युक्ति से मुक्ति

युक्ति से मुक्ति


 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।

कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवद प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंध जाता है । अब भगवान संसार मे रहकर संसार से पार के अनुभव …
शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्…….अयुक्तःकामकारेण फले सक्तो निबध्यते… बड़ा सरल, सहज और व्यवहार में काम लेने जैसा श्लोक है । इस श्लोक से तो ऐसा लगता है कि बड़ा आसान और बड़ा सहज जीवन जीने की कला मिलती है । साधु बनकर, तपस्वी होकर , सन्यासी होकर, परमात्मा को पाना तो जरा जन साधारण के लिए कठिण है लेकिन ये श्लोक तो ऐसा है कि तुम जहाँ हो जैसे हो , तुम्हारे पास जो भी है – चाहे ज्यादा धन है चाहे कम धन  है, ज्यादा पढ़ाई है कम पढ़ाई है, ज्यादा विस्तार है चाहे कम विस्तार है | तुम जहाँ हो वहीं से ईश्वर प्राप्ति तुम्हारे लिए सुगम हो सकती है । बड़ा सहज में है.. युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्… योगी शांति पाते है एकांत गुफा में लेकिन उस एकांत गुंफा की शांति में भी कृष्ण राजी नहीं हो रहे है । कृष्ण कहते है नैष्ठिकीम् शांति …युद्ध चल रहा हो.. मार, काठ, हाथी… घोड़े चींखते हो हाथी चिंखारते हो घोड़े हुँकारते हो ..मल्ल और योद्धे मूछे ऐंठते और तलवार और भालों की नोक सजाते हो.. उस समय भी तुम शांत रह सको, उस समय भी तुम्हारे जीवन की दिशा सही हो सके, उस समय भी तुम्हारी बंसी बज सके, भीतर के गीत गूंज सके, युद्ध के मैदान में कृष्ण जैसे निश्चिंत है ऐसे ही संसार के इस राग द्वेष के, काम क्रोध के, मेरे तेरे के,  चहो ओर से अशांत युग मे भी तुम्हारे दिल की बंसी बजती रहे ऐसा दिलबर कृष्ण तुम्हें समझाना चाहते है ।

मंदिर में जाकर पूजा करना ठीक है लेकिन तुम जहाँ खड़े हो वहीं मंदिर खड़ा हो जाए ये कृष्ण कला बता रहे है । यज्ञ की वेदी पर धर्म सम्पन्न करना ये अच्छा है सुंदर है लेकिन  तुम जो कुछ कर्म करते हो वो ही योग सिद्धि का मोक्ष द्वार खोल दे ये कृष्ण का संकेत है । तुम गिरी गुंफा में जाकर समाधि करो और योग सामर्थ्य, योग सिद्धि पाओ ये अच्छा है सुंदर है लेकिन जो तुम करते हो वो ही योग सिद्धि का मोक्ष द्वार खोल दे ये कृष्ण का संकेत है । तुम सत्पुरुषों को खोजकर गिरी गुफाओं में महापुरुषों के चरणों मे बारह, बारह  वर्ष झाड़ू बुहारी करके अन्तःकरण शुद्ध करो फिर तत्ववेत्ता महापुरुष को खोजो.. और तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥.. ऐसे तत्वदर्शी ज्ञानी को खोजकर आत्मज्ञान पाकर मुक्त हो जाओ ये तो अच्छा है लेकिन तुम जहाँ हो वहीँ मुक्ति के गीत गूँजने लगे ये कृष्ण बता रहे है । युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्.. ध्यान द्वारा जो शांति है वो.. नाम जप करते है ज्योत निरंजन, ओंकार अथवा भूर्भुवःसवः अथवा और कोई.. वातावरण अनुकूल होता है तो शांति आ गयी लेकिन बच्चा जरा मैं- चें पुकार देता है शांति चली जाती है । कभी कभी ध्यान भजन करते हो वातावरण शुद्ध होता है,  सुबह की सुंदर मधुर हवाएँ होती है, कुछ प्राणायाम आदि किये, मन और प्राण स्वच्छ हुए, थोड़ी शांति मिली लेकिन ये शांति एक दिन मिली दूसरे दिन उतनी की उतनी मिले ये जरूरी नही दूसरे दिन गड़बड़ भी हो सकती है, और थोड़ी ज्यादा भी मिल सकती है और तीसरे दिन फिर शांति ठनठन पाल हो जाती है । वो नैष्ठिकीम् शांति नही है, वो साधन के आधीन शांति है । योग के आधीन शांति भोगी की अपेक्षा हजार हजार गुना अच्छी है लेकिन कृष्ण तो एक ऐसा योग बताते है कि भोगी और योगी को जो सुख है उससे भी  ऊँचा योग, ऊँचा भोग ऐसा है कि तुम संसार का भोग भी भोगते रहो, काम धंधा आदि भी करते रहो, और लेन देन का ठीक से व्यवहार भी करते रहो फिर भी तुम्हारे अन्तःकरण में ऐसी नैष्टिक शांति हो कि..

उठत बैठत ओई उटाने,
कहत कबीर हम उसी ठिकाने।
एक फकीर ने कहा कि नजरें बदली तो नजारें बदल गए… नजर बदलने को कृष्ण कह रहे है ।
नजरें बदली तो नजारे बदल गए ,
किश्ती ने रुख बदला तो किनारे बदल गए

तुम्हारे अंदर सचमुच में ऐसी अद्भुत चेतना है, तुम्हारे में ऐसी अद्भुत क्षमताएँ है, तुम्हारे में एक ऐसा अद्भुत स्वत्व है कि एक प्रलय तो क्या, एक युद्ध तो क्या एक हजार युद्ध तो क्या, महा महामारियाँ करोड़ करोड़ हो जाय फिर भी तुम्हारा बाल बाँका नही होता ऐसे तुम अमर आत्मा हो । ऐसी तुम्हारी अमरता की शांति पाने को कृष्ण संकेत कर रहे है, और वो भी अर्जुन, प्यारे अर्जुन को.. शिष्य को गुरु उपदेश दे एकांत अरण्य में वो अलग बात है लेकिन कृष्ण तो मित्र भाव से.. चल यार ! दोस्त सुन, जिगरी दोस्त, ऐ सखा !… अर्जुन को कभी सखा कहते है तो कभी अनघ कहते है.. अनघ पहले अध्याय में नही कहा,  दूसरे में नही कहा, तीसरे अध्याय में अनघ कहा ..अनघ माना निष्पाप.. जो निष्पाप होता है वो ही तत्वज्ञान को समझ सकता है और जो तत्वज्ञान को समझता है वो ही निष्पाप कहा जाता है । पहले अध्याय में विषाद है अर्जुन को .. इसलिए अनघ नही है.. विषाद है.. अघ का फल है, मोह का फल है विषाद-दुःख ..दूसरे अध्याय में आत्मज्ञान सुनकर अर्जुन को जिज्ञासा हुई है, पाप जल गए है, निष्पाप हुआ है इसलिए तीसरे अध्याय में कृष्ण अर्जुन को अनघ करके पुकारते है.. अनघ माना निष्पाप । हमलोग सत्संग करते है उसके पहले हरि नाम का ध्वनि करते है ध्यान करते ताकि हमारा अन्तःकरण निष्पाप हो जाए और निष्पाप हो तो हम अनघ हो जाएँगे जैसे अर्जुन अनघ हुआ और कृष्ण के गीता को युद्ध के मैदान में सुनकर साक्षात्कार कर लिया ऐसे ही इस मैदान में गीता के ज्ञान का साक्षात्कार हो जाए । तो आज का ये श्लोक हमें कहता है कि –

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।

कर्मयोगी कर्म के फल का त्याग करके भगवद प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंध जाता है । भोजन तो कर्मयोगी भी करता है और कर्मभोगी भी करता है । कपड़े तो कर्मयोगी भी पहनता है और भोगी भी पहनता है । तो कृष्ण बोलते है जब खाना है, पीना है, रहना है, जीना है, लेकिन खाना, पीना, जीना अशांति के लिए, दुःख के लिए तो करते नही, तुम सब सुख के लिए करते तो आओ मेरे मित्र, आओ मेरे भैया, तुमको सुख कहाँ है वो जरा गुंफा का द्वार दिखा दे! तुम कर्म करो लेकिन कर्म में योग को मिला दो तो कर्म तुम्हारे सुंदर होंगे । कर्म में जब फल की लोलुपता मिला देता है आदमी तो क्या होता है कि कर्म करने की जो योग्यता है, उत्साह है, आनन्द है, क्षमता है वो कुंठित हो जाती है । कर्म में जब फल की आसक्ति होती है तो फल की चिंता भी होती है और फल मिलेगा, कैसा मिलेगा, कब मिलेगा  उसकी विव्हलता होती है इसलिए कर्म इतना सुसज्ज नही होता है । और कर्म में जब फल की आसक्ति हट जाती है तो कर्म करने का अपना रस आता है, मजा आता है… रामतीर्थ बोलते है मूर्ख लोग कर्म के फल की इंतजारी में मर जाते है लेकिन उनको पता नही कि कर्म करते समय जो आनन्द रूपी फल प्रगट होता है वो मिलने वाले फल से भी ऊँचा है और मिलनेवाले फल तो तुम्हारे पीछे पीछे घूमेंगे! जब पाप कर्म का फल हम नही चाहते तभी भी सजा तो  मिलती है, तो पुण्य का फल तो मजा तो मिलती मिलती और यार मिलती  है! तो नाहक क्यों अपनी बेइज्जती करना? मैंने सुनी एक भागवतकार की कथा कि – राजा मंदिर में जा रहे थे तो दोनों किनारे मालन फूलों की माला लेकर खडी थी  । दोनों ने राजासाहब को पुष्पों की माला दी। राजासाहब मंदिर में  भगवान को चढ़ाकर जब लौटे.. पूछा कितने पैसे तो एक ने चार आने माँगे, तो वो हार तो दो आने का था लेकिन राजासाहब!.. चवन्नी उनके लिए कोई भारी नही पड़े.. चार आने माँगे.. दे डाले.. दूसरी से पूछा तो उस मालन ने कहा कि “आप हमारे माय बाप है, आप से हम पैसे कैसे ले? ये हार जिस जमीन से आया उस जमीन के आप महीपति  है, ये आप ही का है, हम भी आप ही के है “। राजा ने उस वक्त कुछ भी नही दिया लेकिन मीठी मुस्कान दी और दरबार मे जाकर मंत्री को कहा कि वो मालन कहाँ रहती है क्या करती है, उसके नाम थोड़ी जमीन जागीर और कर दो, बड़ी सज्जन मालिन है । उसने तो चवन्नी में हार बेचा लेकिन इस मालन को तो बेमाप मिला! ऐसे ही तुम चवन्नी में जिंदगी मत बेचो, राजाओं का राजा जो परमात्मा है वो तुम्हें बेमाप दे सकता है भैय्या!  ये शुखर कर के वो तेरे दर पे अपना भाग्य खाते हैं | कोई अतिथि आ जाए तो उसके आदर सत्कार से अन्न, वस्त्र, भोजन आदि की व्यवस्था करके तुम उसके हृदय को संतुष्ट करते हो, अतिथि पाँच पच्चीस का ले गया लेकिन उसके हृदय में जो हृदयेश्वर बैठा है वो न जाने तुमको किसके द्वारा क्या दे दें उसका हिसाब लगाना मेरे बस की बात नही! मैंने ऐसे लोगों को देखा जिन्होंने सन्तों के पास जाकर थोडा सा मार्गदर्शन लिया, उनको शांति मिली या थोडा लाभ हुआ.. संतों का तो पाँच मिनट गया लेकिन उनको जो लाभ हुआ वो  जिंदगी भर संतों के गीत गाते रहे और अपना पूरा जीवन संतों की सेवा में लगाकर धनभागी हो गए! नही तो पाँच मिनट की फी संत लेते तो क्या पाँच रूपये होते, दो रुपये होते और क्या होता! पच्चीस रुपये होते ! वकीलों के लिए हमारे हृदय में इतना आदर नही होता है और  फी लेने वाले डॉक्टरों लिए हमारे हृदय में इतना आदर नही होता है जितना किसी महापुरुष ने निष्काम भाव से कोई प्रयोग बता दिया, कोई जरा मन्त्र बता दिया, कोई औषधि बता दी या जरा आशीर्वाद कर दिया, उनके लिए.. निष्काम कर्म करते है उन महापुरुषों के लिए  हमारे हृदय में जो जगह होती है वो जगह न वकील भर सकता है न डॉक्टर भर सकता है न सिपाही भर सकता है न  सेठ भर सकता है.. कभी कभी तो माँ भी नही भर सकती और बाप भी नही भर सकता ऐसा वो बापजी ह्रदय की जगह है! और बापजी क्यों होते है? बापजी होते है इस बापजी की बात पर अमल करने से! बापजी का बापजी कन्हैय्या है, उसकी बात पर जो अमल करते है वो बापजी हो जाते है।नारायण, नारायण ….. | आज का श्लोक तुम्हे बापजी बनाने की कोशिश करेगा.. जय रामजी बोल दो ! … और ये जरूरी नही कि लोग तुम्हें बापजी कहे.. ऐसे तो लोग तो भिखारी को भी कहते है कि बापजी माफ करो जाओ.. ऐसा बापजी नही, जो सचमुच में बापजी है ऐसा हृदय तुम्हारा बनाने का कोशिश करेगा आज का श्लोक-
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

नैष्ठिक शांति.. जैसे नैष्ठिक ब्रम्हचारी होता है, नैष्ठिक सदाचारी होता है.. प्राण जाए पर वचन न जाए ऐसी
नैष्ठिक शांति… जैसे पतिव्रता स्त्री पति का त्याग किसी अवस्था मे नही करती.. चाहे  वो दरिद्र है, चाहे कंगाल है, चाहे सज्जन है, चाहे वो दुर्जन है लेकिन पतिव्रता स्त्री पति का त्याग नही करती । ऐसे ही शांति तुम्हारा त्याग नही करेगी और विश्व में नैष्ठिक शांति से बढ़कर और कोई  उपलब्धि नहीं हो सकती। नैष्ठिक शांति की उपलब्धि के आगे विश्व मे और कोई उपलब्धि हो नही सकती! बोले महाराज, भगवान मिल जाये.. नही नही! उससे भी ऊँची चीज! …महाराज, श्रीकृष्ण मिल जाये… श्रीराम मिल जाये… बुद्ध मिल जाये.. कुछ मिल जाये… नैष्ठिक शांति कुछ निराली होती है! बुद्ध ने आनन्द को कहा कि मैं अब जा रहा हुँ.. आखरी घड़ियाँ है मेरी, संसार से विदा हो रहा हुँ… ये बात सुनकर आनन्द रोने लगा । लेकिन सुबुद्धि के चित्त में कोई क्षोभ नही हुआ । आनन्द ने कहा कि पागल, शास्ता जा रहा है सदा सदा के लिए, प्रकाश देनेवाले बुद्ध जा रहे है सदा सदा के लिए, शांति दाता जा रहा है.. तुझे रोना नही आता ? तब सुबुद्धि ने कहा कि मैने उनको ऐसा पाया कि वो मेरे से दूर कभी जा नही सकते.. मैने उनको ऐसा निकट से देखा है, ऐसा मैं उनमें घुलमिल गया हुँ कि वो मुझे छोड़कर कभी जा ही नही सकते! इसलिए मुझे रोना नही आता । आनन्द चकित हुआ, बुद्ध के पास गया, भन्ते “मैं चालीस साल तुम्हारी सेवा में हाजरी में रहा और अभी आप विदा होते हो मुझे दुःख हो रहा है, अभी भी मुझे दुःख और सुख की चोटें लग रही है.. और वो सुभूति बोलता है कि बुद्ध कभी मेरी यहाँ से जा नही सकते । बुद्ध ने कहा, सुभूति मुझे ठीक से समझा । तूने अभी मेरे को नही समझा, तू मेरे निकट नही रहा, मेरे शरीर के निकट रहा… मेरे निकट रहता तो तेरा भी रोना धोना बंद हो जाता.. उसने नैष्ठिक शांति पाई है लेकिन तूने थोड़ी व्यवहारिक शांति पाई है.. अब मैं जा रहा हूँ तो मेरा क्या होगा उस चिंता में तेरी शांति खो गयी लेकिन सुभूति की शांति खो जाए ऐसी शांति नही उसने बिल्कुल मेरे को ठीक से पाया है, ठीक से देखा है, ठीक से समझा है… यूँ कहूँ कि वो मेरे मय हो गया है और मैं उस मय हो गया हूँ, मेरा शरीर मिटेगा, मैं नही मिटता हुँ.. ऐसे ही मेरी विदा ,उसके शरीर से मेरी विदा होगी लेकिन उससे मेरी विदा नही होगी.. नैष्ठिक शांति ये है! ये नैष्ठिक शांति भगवान तुम्हारे संसार के गुड़ गोबर व्यवहार में रहकर  पाने का रास्ता बता रही हैं। कह देते कि.. सब छोड़ के जंगल मे जाओ समाधि करो! ..उपदेश वही दिया जाता है जो सामनेवाले झेल सके और कहा वही जाता है जो सामनेवाला कर सके.. तुम कर न सको हम कहें तो ये बेवकूफी है। और हम कहें और उसमें कोई सार न हो तो भी बेवकूफी है। हम कहे उसमें सार हो और सार ऐसा हो कि तुम कर भी सको और सार भी मिले.. तो श्रीकृष्ण ऐसा कह रहे है कि सामनेवाले कर भी सकते है और उनमें सारों का सार संसार के पार का  परमात्मा अपने हृदय में..जीते जी..मरने के बाद नही ये स्वर्ग का सुख !…मरने के बाद वैकुंठ की सांत्वना नही!जीते जी वैकुण्ठों का वैकुंठ और स्वर्गों का स्वर्ग आत्मदेव का साक्षात्कार कराने की बात श्रीकृष्ण कह रहे है। शांति..नैष्ठिक शांति…उस शांति के आगे जगत की कोई उपलब्धि ठहर नही सकती..स्वर्ग सुख उसके सामने सर ऊँचा नही कर सकता। ऐसी वो शांति है! लब्ध्वा ज्ञानं परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति… जिस समय वह आत्मदेव का ज्ञान होता है, परमशांति होती है, नैष्ठिक शान्ति होती है! और उसी समय मुक्ति! ऐसा नही कि अभी शांति मिली और भविष्य में मुक्ति होगी ..नही! जीते जी मुक्ति !चार प्रकार की मुक्तियॉं मरने के बाद होती है। वे सामान्य मुक्तियाँ है। लेकिन जो सुपर मुक्ति है ..सर्वोपरि मुक्ति है वो मरने के बाद का इंतजार नही करती ,वो जीते जी मुक्ति! एक होती है स्वर्गीय मुक्ति.. अगर थोडा सा विस्तार करें तो पाँच प्रकार की मुक्ति मरने के बाद होती है। जैसे यहाँ कर्ज है, चिंता है, झोपड़पट्टी में रहते हैं, इधर रहते है, उधर रहते है.. लेकिन कुछ अच्छे कर्म है.. मर गया आदमी..  गया स्वर्ग में.. शांति! नो इनकम टैक्स ,नो सेल टैक्स ,नो प्रॉब्लम ..ये स्वर्गीय शांति है। अच्छा है, दूसरी चार प्रकार की शांति होती है, इष्टदेव के लोक में जाने से.. जैसे भगवान कृष्ण, राम, नारायण के अवतारों का भजन स्मरण चिंतन करते है .. अथवा शिव, शाक आदि जो जिसकी उपासना पूजा करता है ..तो मरने के बाद उसके लोक में जाता है। अगर पूजा ठीक ठीक  है तो सायुज्य मुक्ति होती है। उससे कुछ बढिया है तो सामिप्य मुक्ति होती है। और.. सालूकय,सायुज्य, सामिप्य, सारूप्य.. चार प्रकार की मुक्ति.. जैसे राजा के गाँव में रहना, राजा के राज्य में रहना ये सालुक्य है… राजा का  कुछ खास आदमी होकर रहना जैसे कारकून आदि या कोई सलाहकार आदि होकर रहना .. सालुक्य मुक्ति इष्ट के, जैसे ब्रम्ह का चिंतन करते है, ब्रम्हलोक में गए, भगवान नारायण का चिंतन करते है नारायण लोक में गए.. शिव का चिंतन करते है, शिवलोक में गए, सतलोक में गए, जनलोक में गए, तपलोक में गए, सात ऊपर के लोकों में कहीं भी गए अपने अपने कर्म के अनुसार ..तो सालुक्य, सामिप्य, सायुज्य, और सारूप्य … तो सालुक्य माना उसी लोक में, सामिप्य माना उनके निकट, सारूप्य माना उनके करीब करीब के, सायुज्य माना जैसे विशेष मंत्री हो राजा के निकट रहनेवाला हो अथवा राजा का छोटा भाई हो, बिल्कुल नजिक रहते है.. सारूप्य माना उनकी बराबरी जैसा .. उतपत्ति, स्थिति, प्रलय करने का सामर्थ्य नही बाकी  का उपभोग और जीने का ढंग, उनके इष्ट के बराबरी की व्यवस्था.. जैसे नजिक का आदमी सेठ के साथ ही रहता है बंगले का, कार का और साधनों का वैसा ही उपयोग करता है जो खास-विशेष होता है, इस प्रकार की पाँच प्रकार की मुक्तियाँ तो मरने के बाद होती है, एक स्वर्गीय मुक्ति, दूसरी सालुक्य, सामिप्य, सारूज्य और सायुज्य, ये चार मुक्तियाँ और पाँचवी स्वर्ग की….ये पाँचो मुक्तियाँ मरने के बाद होती है। कृष्ण जो मुक्ति बता रहे है उसको कैवल्य मुक्ति बोलते है, सुपर मुक्ति! कैवल्य मुक्ति मरने के बाद किसी लोक लोकांतर में अन्तवाहक शरीर से जाकर फिर वहाँ भोगमय शरीर  पैदा करके पंच भौतिक से रहित शरीर पैदा करके है वहाँ का भोग भोगकर फिर गिरने वाली मुक्ति नही बता रहे है.. लब्ध्वा ज्ञानं परां शांति….ऐसा कि परम् शांति! नैष्ठिकम शांति! फिर वहाँ से पतन नही होता!

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम…जहाँ सूरज और चंद्रमा का प्रकाश नही, सूरज और चन्द्र भी जहाँ से, अग्नि भी जहाँ से तेज और प्रकाश लाती है वो परम प्रकाश स्वरूप जो आत्मदेव है उसका साक्षात्कार नैष्ठिक शांति दिलाता है। उसके साक्षात्कार में जो रुकावटे आती है वो कर्म के फल की लिप्सा है। कर्म के फल की लिप्सा से आदमी की योग्यताएं कुंठित हो जाती है । आज का श्लोक बताता है कि –

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते
जो आयुक्त है, जिसको कर्म करने की युक्ति नही है, जिसको कैवल्य मुक्ति पाने की युक्ति नही है, वो कर्म के करने में बंध जाता है और जिसको कर्म करने की युक्ति है वो कैवल्य मुक्ति का अनुभव कर लेता है, कर्म करते हुए भी छूट जाता है। मैंने कई बार ये कहानी सुनाई …कहानी कभी कल्पित भी होती है, कभी दंतकथा भी होती है, कभी घटित घटना भी होती है । कहानी इसलिए कहता हुँ कि मैंने सुनी हुई बात है ,शास्त्रों में नही,किसी के द्वारा सुनी.. कि जंगलों में प्राचीन काल में शिकारी लोग बंदर फँसाते थे छोटे सिकुड़े मुँह के बर्तनों में बंदर देखे जंगलों में,बंदर देखे ऐसे सिकुड़े मुँह के बर्तन पहले जंगल में गाड़ देते फिर बंदर देखे उस ढंग से अक्रोड डाल देते है, छुहारे डाल देते है, गुड़ के टुकड़े डाल देते है और फिर शिकारी छुप जाते है, बंदर नीचे उतरते है और डालते है सिकुड़े मुँह के बर्तन में हाथ !…हाथ डालते है तो महाराज, माल भर लेते! माल भर लेते तो हाथ फिट हो जाता!.. हाथ फिट हो जाता तो वो दूसरे हाथ से दम पछाड़ करते,पूछ हिलाते,  तीन पैर पटकते लेकिन वो मुट्ठी खोलते नही! बाकी का सब करते.. यहाँ तक कि पूँछ पटक-पटक के ,सिर धूम धूम के खूब चीखते… और तो क्या महाराज,  सिंगल और  डबल दोनों कर लेते! फिर भी वो मुट्ठी नही खोलते थे! होता क्या था कि शिकारी आकर उनके गले में फाँसा बाँध देता ,पट्टा,रस्सी..और बादमे उनके हाथ पर जोर से डण्डा मार देता, डण्डा मारने पर हाथ खुल जाता …हाथ यूँ खाली आ जाता! लेकिन खाली हाथ आने के पहले  मुक्ति होने के पहले गले मे फाँसा मिलता और पेट भूखा और शरीर थका रह जाता और जिंदगी भर  वो बंदर फिर  उठ बैठ करते रहते है …बाबू साहब को सलाम भरते रहते है! अगर उनमे युक्ति होती तो भले सकडे मुँह का बर्तन है..एक गुड़ का टुकड़ा उठाया दो उंगली से,खा लिया, माल उठा के.. वो सब माल उठा सकते थे.. तृप्त हो सकते थे और निर्बंध हो सकते थे…ऐसे ही हमारा मन रूपी बंदर संसार मे यूँ मुट्ठी बाँधता है और छोड़ना तो जरूर पड़ता है, मौत आकर फाँसा डालती है और डाँड़ मरती है आसक्ति पर तो राम बोलो भाई राम झख मार के सब  छोड़ के जाना पड़ता है और और संसार का मजा कुछ नही मिलता है मजूरी मजूरी हाथ लगती है… तो हम उसी बंदर के पड़ोसी ही है बिल्कुल ! उसी के  बिल्कुल साथ में  रहने वाला हमारा मन है… तो कृष्ण हमको ऐसा बन  देखकर दया करके हमें उस भाव से हटाकर हमें वो युक्त बताते है… युक्ति से मुक्ति!…कर्म तो करो लेकिन मुट्ठी बाँधकर फल में लगो मत नही तो ..छोड़ना तो पड़ेगा..जो भी फल मिला है छोड़ना पड़ेगा …डाँड़ पड़ेगी ,फाँसा लगेगा तब छोड़ना पड़ेगा !उसके पहले तुम पकड़ो ऐसा क्यों कि उसमें ही फ़ँस मरो? पकड़ो ही मत कि छोडना पड़े ऐसा मुसीबत! उयोग करो लेकिन पकड़ो मत! शरीर का उपयोग कर लो,धन का उपयोग कर लो लेकिन ये धन मेरा है ,शरीर मेरा है बेटा मेरा है ,पत्नी पर मेरा अधिकार है ,पति पर पर मेरा अधिकार है …अरे भैय्या!तेरा तो तेरे मन पर अधिकार नही तो तेरे शरीर पर भी तेरा अधिकार नही! शरीर का छपरा जब सफेद होता है तो तू उसको सफेद होने से रोक नही सकता! काला छपरा…काले बाल में से सफेद होता है तो तू रोक नही सकता है और जवान में से बुढ्ढा होता है तो तू रोक नही सकता है और चिकने चपाटे चेहरे पर झुरियाँ पड़ने लगती है बुढ़ापे की तो रोक नही सकता है,अंत में मर जाता है तो तू उसको अमर नही बना सकता है! जब शरीर  तेरा नही तो शरीर के सबंध तेरे कब तक? लेकिन न शरीर तेरा है न शरीर के सबंध तेरे पक्के है लेकिन जिसकी सत्ता से तेरा और मेरा दिख रहा है वो वृत्ति.. उस वृत्ति को  जहाँ से प्रगट होते देखता है उस को देख ले तो तेरा बेड़ा पार हो जाएगा! कितना सहज है, कितना सरल है! अगर सहज औऱ सरल नही होता तो युद्ध के मैदान में अर्जुन …ऐसा नही कि साक्षात्कार करने के लिए आया था… वो तो विषाद योग में था बेचारा और गले तक डूबा था प्रॉब्लम… गले तक प्रॉब्लम में डूबा हुआ अर्जुन जब गीता सुनकर मुक्ति का अनुभव करता है और संसार में भी सफल हो सकता है तो तुम गले तक संसार में डूबे हो और गीता अगर अमल में आ जाय तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जाय इसमें क्या आश्चर्य है भाई? पहले के जमाने में राजा लोगों के पास ऐसी सुविधा नही थी जैसी आज के नेताओं के पास है।  टेलीफोन,टेलीविज़न,  अखबारें,ये वो…और सिस्टेमैटिक काम होता है सचिव हैं, कलेक्टर है, नायब कलेक्टर है फिर मामलेदार है फिर उसके नीचे और ऑफिसर है, साहब को तो केवल सिग्नेचर करना होता है।पहले के जमाने में तो राजे महाराजे इतना इतना ध्यान देते थे और इतने इतने उनके पास साधन सीमित होते थे छोटे मोटे साधन, कोई संदेशा भेजना है तो घुड़सवार को भेजो… टीपू सुल्तान का संदेशा ले जाना है तो  घुड़सवार को भेजो ,फलाने का संदेशा ले जाना है तो फलाने को भेजो और संदेश वाहक मर गया तो उसको पता चलते चलते तो कई दिन बीत जाते …लेकिन आज का आदमी तो हाय! दिल्ली में क्या हुआ दो घण्टे बाद में पता चल जाता है …अरे दस मिनट के बाद में ही सी एमों को पता चल जाता है कि दिल्ली में विशेष बात क्या हुई ,उसी समय भी पता चल जाता है । अभी अभी दूरदर्शन को खबर मिली और पूरे भारत में फैल जाती है। तो इस प्रकार के साधन सुविधाएँ है फिर भी आज के आदमी को रुचि नही है आत्म ज्ञान को पाने की इसलिए उसके लिए कठिण लग रहा है। उस जमाने के राजाओं के पास साधन सामग्री नही होने के बाद भी छोटे छोटे जासूस के साथ व्यक्तिगत मिलते थे। रामचन्द्रजी एक छोटे जासूस के साथ व्यक्तिगत मिलते थे। छोटे छोटे सीआईडी के साथ व्यक्तिगत मिलते थे  और छोटे छोटे प्रॉब्लम को व्यक्तिगत सुनना पड़ता है। न्यायखाता भी अपने हाथ मे तो  भरण पोषण खाता भी अपने हाथ मे ,फौजी  खाता भी अपने हाथ मे ..सारे खाताओं का बोजा सिर पे होता था और  उन खताओं का दुरुपयोग नही करना, धर्म के अनुकूल चलना और धर्म संकट आ जाय तो महापुरुषों के चरणों में जाना, महापुरुषों की आश्रम की सेवा, शुश्रुषा करना और महापुरुषों के चित्त को प्रसन्न रखकर दुआ माँगते रहना कि  इहलोक भी सुधरे और परलोक भी और महापुरुषों के पास समय निकालकर स्वयं भी जाते तो अपनी पत्नियों को भी ले जाते थे सत्संग सुनने, ऐसा नही कि चुनाव के दिन में कि बापजी..

और आ गए महाराज हो गए,तो फुर्सत मिलेगी तो बापजी का दर्शन करने जाऊँगा… ऐसा नही..वो तो  चुनाव वुनाव होता नही था और इतने डूबे हुए संसार के व्यवहार में फिर भी उन महान बुद्धिमान राजाओं ने ऐहिक व्यवहार करते हुए समाज को और अपने को आत्मअनुभूति के ऊँचे शिखर पर पाया। राजा जनक ने ऐहिक व्यवहार करते हुए आत्मसाक्षात्कार कर लिया । राजा सत्यव्रत ने, राजा अश्वपति ने…और कईं हो गए! ईश्वाकु कुल का राजा..देखा कि  सुबह से शाम, शाम से सुबह… जीवन की शाम हो जाती है औऱ जीवनदाता मिले कब? ईश्वाकु कुल का राजा सत्यव्रत देखता है कि संसार के भोग भोगते भोगते तो जीवन समापन हो जाएगा। राज पाट यथा- योग्य व्यक्तियों को संभालने के लिए देकर एकांत में तप करने को जाता है। सात्यायन मुनि पधारे.. मुनि ने कहा कि  ” राजन तुम तप कर रहे हो मैं बड़ा प्रसन्न हुँ। इतना राज वैभव ,सुख छोड़कर तुम ध्यान भजन में ईश्वर को पाने को कटिबद्ध हुए हो तुम वरदान माँग लो । जो तुम्हें कमी हो वो माँग लो । तुम्हारे राज्य में जो असुविधा हो वो चीज माँग लो, सुविधा आने का आशीर्वाद है।”….”महाराज ये सब तो ठीक है …कितनी भी सुविधा मिलेगी, कितनी भी असुविधा मिलेगी, आखिर सुविधा और असुविधा आकर चली जाएगी असुविधा आकर चली जाएगी और तन पर सुविधा असुविधा आकर चली जाएगी वो तन भी सदा नही रहेगा ,जल जाएगा! महाराज ये शरीर जल जाए उसके पहले मेरी आसक्ति जल जाय और मुझे मालिक परमात्मा का साक्षात्कार  हो जाय ऐसी कृपा करें। सत्यायनमुनि कहते है कि “देखिए तुम ब्रह्मज्ञान माँग रहे हो । ब्रह्मज्ञान.. ऐसी दुर्लभ चीज है ।…

 

“स्वर्गीय मुक्ति माँग लो, सायुज्य मुक्ति का रास्ता माँग लो, सारूप्य मुक्ति का रास्ता माँग लो, सामीप्य मुक्ति का रास्ता माँग लो, और कुछ माँग लो लेकिन कैवल्य मुक्ति की बात …नही! “महाराज ये सब माँग लूँ तो आपके आशीर्वाद से रास्ता मिल जाएगा ये वस्तु मिल जाएगी | लेकिन अंत तो फिर मुझे फिर भी शीर्षासन करना पडेगा, किसी माता के गर्भ में लटकना पड़ेगा किसी पिता के शरीर से पटका जाना पड़ेगा । इसीलिए हे भगवन, हे प्रभु सुन ले मेरा तो यही प्रार्थना है कि मुझे ऐसा उपदेश दीजिए और मुझे ऐसा प्रसाद दीजिए कि जिस प्रसाद से सारे दुःख सदा के लिए निवृत्त हो जाए… टेम्पररी नही! दो दिन ,10 दिन, 25 दिन, पचास दिन.. वो तो बच्चा राजी हो जाता है 4 पैसे की लॉलीपॉप से अथवा जहाँ 4 रुपए की प्रोमोशन हो जाती है तो साधारण आदमी खुशहाल हो जाता है कि बापू तुम्हारी दया से प्रमोशन हो गया , हमारी दया से प्रमोशन हो गया ये बहुत छोटी सी बात  है, हमारी दया से तो  यार वो साक्षात्कार हो जाना चाहिए कि जहाँ पूरा जगत छोटा दिख जाए ये हमारी दया नहीं, ये होगी कोई हमारे पास आनेवाले साधक की दया होगी,  की दया होगी…. नारायण नारायण…

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

कर्म के फल की लिप्सा जो छोड़ते है उनको नैष्ठिक शांति मिलती है और कर्म का फल का रस भी आता है और जो लिप्सा रखते है  आसक्ति रखते है उनको कर्म के फल का स्वाद नही आता बोझा ही बोझा मिलता है । अच्छा, कर्म  फल का त्याग करके जो नैष्ठिक शांति का रास्ता चाहते है उनमें पाँच गुण अवश्य होने चाहिए । और ये पाँच बाते आ जाए तो उनका व्यवहार बंदगी हो जाता है और प्रारब्ध में तो जितना होगा उतना मिलके ही रहता हैं। बेईमानी करें तो भी उतना ही  टिकेगा, उतना ही मिलेगा । ईमानदारी करें तो पहले जरा कठिन सा  लगेगा लेकिन उतना मिलेगा,  कि मिलेगा तो रसमय मिलेगा, आनन्द मय  मिलेगा । उसका मतलब ये नही कि प्रारब्ध पर बैठ जाए हाथ पैर नही चलाए…  बिना काम किये तो तुम एक क्षण भी नही रह सकते हो.. फिर चाहे चिंतन का काम करो, चाहे शरीर का करो, युक्त करो चाहे अयुक्त करो… प्रवृत्ति तो करनी ही पड़ती है.. अयुक्त आदमी अयुक्त प्रवृत्ति कर के  फँस मरता है और युक्त आदमी युक्त प्रवृत्ति करके मुक्त हो जाता है.. अयुक्त माना अयोग्यता से किए हुए कर्म, अज्ञान से किये हुए कर्म बंधनकारी हो जाते है .. जैसे मुट्ठी भर ली और दम पछाड़ करता है, पूँछ हिलाता है बंदर, हाथ हिलाता है, सिर पटकता है, चीखता है, 1-2 सब कर डालता है लेकिन उसका इतना करने पर भी बंधन नही जाता और दूसरा है जो आराम से एक एक लेकर  युक्ति से खाता है और अड़ोसी-पड़ोसी को भी बाँट देता है । ऐसे ही जो युक्ति युक्त कर्म करता है वो अपने सम्पर्क में आनेवाले को सुख शांति और आनन्द के गुड़ की बांगडे  बाँटता भी है स्वयं भी खाता है । और जो अयुक्त होता है वो न स्वयं खाता है न दूसरों को खिलाने का  सौभाग्य प्राप्त करता है और फ़ँस मरता है जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि में ।

काशी नरेश राज्य तो करते थे लेकिन थोड़े युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा के रास्ते पर थे । गीता उन्हें बहुत प्यारी थी । गीता का पाठ करते । गीता का पाठ करते समय इतने तन्मय हो जाते कि.. गीता के श्लोकों को अर्थ समझते समझते कि .. उनको बहाय्य जगत का आकर्षण विकर्षण खींच नही सकता था । काशी नरेश को अपेंडिक्स हो गया और अपेंडिक्स तो महाराज ऐसा रोग है उसमें तो बदबू की सूँघाई जाती है शीशी ! उस समय की शीशी क्या थी ? एनेस्थेशिया… डॉक्टरों ने कहा आपको एनेस्थेशिया दिया जाएगा बाद में आपरेशन होगा । काशी नरेश ने कहा कोई जरूरत नही है मुझे, कुछ सूँघने की जरूरत नही है.. मुझे भगवद्गीता दे दो और तुम अपेंडिक्स का ऑपरेशन कर लो । भगवद्गीता पढ़ते रहे, अपेंडिक्स का ऑपरेशन क़रने के लिए बड़ी  मुश्किल से डॉक्टर लोग सहमत हुए कि बिना एनेस्थेशिया.. वो दवाई सूँघने के ऑपरेशन करना.. बोले तुम कर लो… अगर मैं चीखूँगा तो तुम कर लेना कुछ.. अगर मैं चीखता नही तो तुम अपना काम करते रहना । उनका ऑपरेशन का काम पूरा हो गया .. अपेंडिक्स का जो कुछ करना था वो पूरा हो गया, टाँके वाके आ गए । डॉक्टरों ने कहा “नरेश,  काम पूरा हो गया!” बोले – “अच्छा, पूरा हो गया!” डॉक्टर  चकित हो गए कि ये क्या नरेश को अभी तक कोई पीड़ा का असर नही !  बोले- पीड़ा होती है शरीर को और मन शरीर से जुड़ता हैं तब पीड़ा की संवेदना ज्यादा लेता है और मन जब गीता में जुड़ जाता है या किसी बात में जुड़ जाता है तो उस समय सुख दुःख का अनुभव नही होता, कम होता है.. जैसे एनेस्थेशिया  से  मन को मुर्छित कर देते हो… मन को मुर्छित करके  दुःख को भूलना एक बात है लेकिन मन को मालिक से मिलाकर दुःख से लापरवाह होना ये योगयुक्त होना है, कर्मफल त्यक्त्वा जो अदमी है वो सफलता और असफलताओं के बीच भी अपने चित्त में शांति और आनन्द का अनुभव कर सकता है ।

मन और प्राण ऊँचे केन्द्रों में आते है, चित्त प्रसन्न होता है और योग्यता बढ़ती है तो संसारी फल पाने के लिए अगर योग्यता को हम खत्म करते हैं तो बंध जाते है और उसी योग्यता को बढ़ाते बढ़ाते संसार का कर्म तो ठीक से करते है लेकिन संसार की चीजों को पाकर, पकड़कर सुखी होने की बेवकूफी छोड़ देते है तो फिर वो हमारे योग की सामर्थ्य, ध्यान की सामर्थ्य, सेवा की सामर्थ्य सत्य स्वरूप ईश्वर को पाने में काम आ जाती है । उसमें पाँच बातों पर ध्यान रखना पड़ता है। एक तो अपने व्यवहार में स्वार्थ का त्याग हो भीतर से । जितने अंश में स्वार्थ का त्याग होगा उतने अंश में तुम्हारा चित्त सुयोग्य होता जाएगा। दूसरी बात.. अहंकार का त्याग.. किसी मित्र से मिलते हो या किसी से बात करते हो तो अपना अहं बढाने के लिए नही अहंकार मिटाने के लिए ! श्री रामचन्द्र जी जब बात करते तो सामने वाले को मान देते और आप अमानी रहते । जो व्यवहार में अपना अहंकार दिखाने की कोशिश करता है उसका मान नही रहता है  …सुनने वाला हाँ हाँ वाह वाह कर लेता है, अंदर से अपने को तोल के रख देता है कोने में । लेकिन अहंकार निर्मूल जो है वो आदमी जब बात करेगा तो उसकी बात में  सार भी होगा और सामने वाले के चित्त में उसकी गहरी असर भी होगी । तो एक पहली बात है कि व्यवहार में स्वार्थ का त्याग, दूसरी बात है अहंकार का त्याग.. और तीसरी बात सत्य का आचरण करें । झूठ, कपट, बेईमानी से थोड़ी देर  के लिए दिखता है लाभ लेकिन अंत तो गत्वा  दुःख ही दुःख होता है, अशांति ही अशांति होती है । क्योंकी कोई भी चीज तुम पाते हो तो  जिसका कारण अशुभ है उस अशुभ कारण से शुभ कार्य हो नही सकता । जैसे तांबे की तारों से बुनी  हुई जाल तांबे की होगी, मिट्टी के लगदे से मिट्टी के ही बर्तन बनेंगे और स्वर्ण से सोने के ही गहने होंगे ऐसे ही जो तुम कर्म करते हो तो  तुम्हारा कार्य अगर अशुद्ध है तो फल तुम्हारे को शुद्ध शांति वाला, सुख वाला नहीं मिलेगा,  दिखाऊ भले थोड़ी देर के लिए लाभ हो जाए लेकिन घर में कोई बीमारी, कोई मुसीबत अथवा बुद्धि में कोई उल्टा निर्णय करके तुम्हारे धन को,  तुम्हारे सत्ता को,  तुम्हारे अधिकारों को तितर बितर कराने के दिन जल्दी आ जाते है । इसीलिए आप स्वार्थ त्याग और अहंकार त्याग ये दो बाते आ जाए तो सत्य आचरण करने पर दृष्टि रखे । जितना हो सके मन से, कर्म से,  वचन से अपने चित्त में, अपने अन्तःकरण में, अपने व्यवहार में  कपट न आए तो आपका अन्तःकरण थोड़े ही दिन में पावन हो जाएगा, और आप पर लोग भरोसा करने लगेंगे और आप के संपर्क में आकर आपकी तो उन्नति होती ही है इससे आपके संपर्क में आने वालों की भी उन्नति होगी और सत्य आचरण से भगवान जल्दी रीझते है,  भक्ति, ज्ञानयोग में बरकत आती है और गीता में एक जगह आया है कि जो भक्ति का प्रचार करता है ,गीता के ज्ञान का प्रचार करता है वो मुझे प्राणों से भी प्यारा है आप भगवान के अतिप्रिय हो जाएँगे । जो भगवद चर्चा सुनते है, सुनाते है वो भगवान के अति निकटवर्ती हो जाते है उनका अन्तःकरण जल्दी भगवद रस से,  भगवद भाव से पावन हो जाता है । तुलसीदास ने कहा . .
जिन हरि कथा सुनी नही काना । श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना ।।
जिन्होंने अपने कानों के द्वारा हरि कथा नही सुनी तो फिर उनके कान है भृंग के भवन जैसे, सांप के बिल जैसे उनके कान है । जिनकी जिव्हा से हरि नाम नही उच्चारा गया उनकी जिव्हा दादर की जिव्हा के समान है । तो तुम्हारा सत्य आचरण और भगवद चिंतन से तुम्हारी जिव्हा पवित्र होगी और सत्य आचरण से तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध और पावन होगा । तो शुद्ध वातावरण में से शुद्ध और अशुध्द सब चीज को आप खिंच सकते है । जैसे गुलाब अपना कुछ ले लेता है और मोतिया अपना ले लेता है गंध पृथ्वी में से, और चंम्पा अपनी गंध ले लेता है । ऐसे ही तुम्हारा अन्तःकरण जैसा होगा  विशाल वातावरण में से वैसी चीज तुम्हारी ओर आकर्षित होकर आएगी । तुम्हारे अन्तःकरण में सच्चाई और स्नेह है तो अन्तःकरण में जो सत्पुरुष है और स्नेह से पूर्ण है, परमात्मा को पाए हुए सत्पुरुषों के आंदोलन तुम्हारे अन्तःकरण को और उन्नत करेंगे और तुम्हारे जीवन में अगर पाप ताप दगा बेईमानी हैं तो आसुरी आंदोलन तुम्हारे अन्तःकरण में सेट होते जाएँगे । तो तुम जैसा व्यवहार करते हो वैसा ही वातावरण तुम्हारे अंतःकरण में आमंत्रित होता जाता है। जैसे आदमी पानी पीता है निकालता है, पीता है निकालता है, थोड़ी असावधानी रहती है तो पानी मे भी क्षार तत्व पत्थरी हो जाती है, कुछ स्टोरेज हो जाता है और ठीक से गाड़ी चलती है तो पत्थरी आदि नही होती है ऐसे ही तुम्हारे कर्म करने की गति ठीक होती है तो कर्मों के बंधन की पत्थरी  नही बनती है और अगर ठीक व्यवहार नही होते है तो कर्मों के बंधन की पत्थरी  बन जाती है ,जो पीड़ा देती है। ये पत्थरी  तो ओपेराशन करके निकाली जाती है लेकिन वो पत्थरी  के  ओपेराशन के लिए 84-84 लाख बार जन्मना और मरना पड़ता है। इसलिए अपने अल्प जीवन में आदमी ऐसा काम करे कि 84-84 लाख जन्मों के बंधन कट जाए। और अल्प जीवन में ऐसा काम न करे कि हजारों हजारों जन्म तक भटकता रहे, दुःखी होता रहे ।

तो यहाँ भगवान कहते है कि जिसको युक्त कर्मफलं त्यक्तवा बनना है उसको पाँच बातें ध्यान में लेनी चाहिए , एक तो उत्तम व्यवहार स्वार्थ त्याग का.. दूसरा अहंकार.. महमान को खिलाओ पिलाओ ,किसीसे मिलो लेकिन ये भाई साहब काम में आएँगे , ये साहब काम में आएँगे इस भाव से मत मिलो। इस भाव से मिलोगे तो फिर वो मिलने मे …वो काम मे आएँगे उतना नही आएँगे जितना निस्वार्थ भाव से मिलोगे तो काम मे आएँगे। तो स्वार्थ रखकर  तुम जब  गिड़गिड़  गिड़गिड़  करते हो तो अंदर से छोटे हो जाते हो और तुम्हारा फायदा दूसरे स्वार्थी लोग उठा लेते है। तुम जब निस्वार्थ होकर मिलते और व्यवहार करते हो तो वो  सामनेवाले के ह्रदय में  जो हृदयेश्वर बैठा है वो तुम्हारे लिए ठीक उसको मदद करने को प्रेरित कर देगा। तो ये साहब काम में आएँगे, ये साहब काम में आएँगे, फलाना काम में आएगा, डिंगना काम में आएगा, इस प्रकार का आकर्षण, अंतःकरण मलीन करके जब व्यवहार किया जाता है तब उस व्यवहार का फल मधुर नही होता है, व्यवहार  फल उत्तम ढंग से स्वार्थ त्याग करके स्नेह से  …  दूसरी बात अहंकार का त्याग.. तीसरी बात सत्य  आचरण… औऱ चौथी बात है तुम्हारे व्यवहार में विनय हो ! विनय युक्त जो व्यवहार है वो शत्रु को भी अपना बना लेता है, तो मित्र को अपना बनाने में देर कितनी? और मित्रों का मित्र परमात्मा ! उसको अपना बनाने में देर कितनी भैया ? तो अपने व्यवहार में विनय हो! वाणी में विनय हो | और पाँचवी बात तुम्हारे जीवन में प्रेम हो ! जहाँ प्रेम होता है न वहाँ परिश्रम का ख्याल नही होता | जैसे बच्ची अपने भाई को प्यार करती है नन्हे मुन्ने आठ साल की बच्ची अपने भाई को चार मंजिल तक ऊपर ले जाती है | अरे दस मिनट पहले तो बोलती थी कि 1 लीटर दूध लाना मेरे से नही उठेगा | ये 6-7 किलो का भाई को लेकर ऊपर जाती | बोले नही नही इसमें कोई वजन नही क्योंकि भैय्या में प्रेम है ! जहाँ प्रेम होता है वहाँ बोझा नही लगता और जहाँ प्रेम नही है वहाँ थोडासा काम भी बोझा हो जाता है । तो मोह से बच्चों को पालना,मोह से परिवार को पालना, पति की सेवा करना या पत्नी को खुश रखना ,स्वार्थ से या मोह से तो पति पत्नी एक दूसरे के शत्रु हो जाते है लेकिन परमात्मा को प्रसन्न करने के नाते पति की सेवा करना और परमात्मा को प्रसन्न करने की खातिर पत्नी का पोषण करना और बच्चों में जो परमात्मा है उसकी सेवा की खातिर, ऎसा नही कि बच्चे बड़े होंगे फिर हमारा सेवा करेंगे ,हम बुड्ढे होंगे बच्चे हमको कमा के खिलाएँगे इस भाव  से भी पोषता हैं न तो उनके बच्चे बड़े होके उनको ऐसा दुःख देते है कि  बूढ़े ताकते रह जाते है कि …gujrati text…. जो प्रेम परमात्मा से करना चाहिए था, जो कर्म ईश्वर के नाते करने चाहिए थे, वो कर्म तुमने अपने स्वार्थ के नाते किए इसलिए बुढापे में रोना पड़ता है । जो भरोसा परमेश्वर पर रखना चाहिए था वो भरोसा अगर पुत्रों पे रखा तो वो भरोसा जरूर गड़बड़ कर देगा । तो, तुम भरोसा तो भगवान पे रखो और कर्म संसार मे करो, कर्म क़रने में ये पाँच बातों की सावधानी रखो | एक तो – उत्तम व्यवहार.. कनिष्ठ नही , पापाचार नही, अच्छा व्यवहार ,सुंदर पवित्र व्यवहार |

दूसरा- उस व्यवहार में स्वार्थ का त्याग …सेल्समन  भी अच्छी मीठी बातें करता हैं ,लेकिन स्वार्थ होता है और ये जरूरी नही कि सेल्समन मीठी बातें करता है तो वो सदा के लिए सुखी हो जाता है…नही! सदा के लिए सेल्समेनी करो ,मीठी बातें करो ,लेकिन उसमें स्वार्थ न रखो तो सेल्समेनी तो चलेगी ….एक दुकान है गोधरा बस स्टैंड के सामने ,वो साधक यहाँ आता है, छोटीसी दुकान है । और स्टार्ट किया उसने  हजार दो हजार का माल है, और उसका व्यवहार ऐसा कि बस गुजारे भर का मिल जाये, स्वार्थ नही | एक रुपए छः आने का पॉपलीन का डेढ़ रुपया लेता था। तो पहले तो ऐसी आदत थी… Gujrati text…. तो सब दुकानदार तीन गुना भाव बताते थे , वो ही पॉपलीन बताते थे 2.50 रुपया, 2.50  रुपया वाली खेंच तान के पौने दो रुपया बिकती और ये जो डेढ़ रुपये बोलते थे तो ग्राहक चले जाते थे। लेकिन उन्होंने देखा कि मेरे को स्वार्थ त्याग करके जीवन दिव्य करना है। डेढ़ रुपया बोले ग्राहक लेवे नही, घूम फिर के 2.50, 2.25 , 3 सुन सुन के फिर आकर डेढ़ रुपया में ले जावे.. फिर दूसरी बार कभी भाव पूछे नही… क्या Gujrati text… वो छोटीसी दुकान में से 30 तो छोटे मोटे लड़कों को छोटे मोटे धंदे रोजगारी की लाईन मिल गई, और अब बड़ी दुकान है दयाल वस्त्र भंडार और होलसेल रिटेल चल रहा है।तो स्वार्थ त्याग में शुरुआत में आदमी ऐसा मूर्ख जैसा लगता है, भोला भाला लगता है, वो स्वार्थी कपटी लोगों की जो पूरी बाजार में कपटी लोग भरे हैं सब जगह उसमें एक सज्जन और स्वार्थ त्यागी आदमी दुकान लेके बैठे और पैसा इतना नही… एक बार तो पैसा भरना था दो हजार रुपया | रोकड़ा हुआ नही, इज्जत जाती है | तो अंजान आदमी सुबह सुबह आकर 2500 रुपया दे गया ! कहाँ से आये? बोले हम कहीं से भी आए हो तुम ले लो हमको जरूरत पड़ेगी तो हम ले जाएँगे। खुदा खैर करे बंदा लहर करे ! और जब जरूरत पड़ेगी तब लेने को आए,उसके पहले तो हालाकि वो था तो यवन और यह भाई तो हिंदू था फिर भी भगवान  न जाने किस वक्त किसके द्वारा तुम्हारी किश्ती को चलाने के लिए सहयोग दे दे ,दिला दे! तो तुम्हारे जब रुख बदलते हैं न तो नजारे भी बदलते है ! नजरे बदली तो नजारे बदलेंगे, किश्ती रुख बदलेगी तो किनारे बदलेंगे । तो हमारी जो स्वार्थमई बुद्धि वृत्ति है उसमें निःस्वार्थता आ जाए | किश्ती रुख बदलेगी तो नजारे बदल जाएँगे। जो दुःख ,पीड़ा, अशांति, प्रोब्लेम और टेंशन में हम मरे जा रहे है वो सुख,शांति,निर्भिकता, आनंद , और यहाँ भी सुखी ,परलोक में भी सुखी ये मार्ग मिल जाएगा। तो ये पाँच बातें फिर से कहता हुँ- उत्तम व्यवहार-स्वार्थ त्याग , दूसरी बात- अहंता का त्याग , तीसरी बात – सत्य आचरण, चौथी बात- विनय , और पाँचवी बात – प्रेम । तुलसीदास जी ने कहा –
परहित सरिस धर्म नहीं भाई’
पर पीडन सम नहिं अधमाई
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
जिनके चित्त में दूसरों की भलाई  छिपी है , जो दूसरों की भलाई के लिए काम करते है उनके लिए जगत में दुर्लभ कुछ भी नही होता, ऐहिक चीजे भी दुर्लभ नही होती और भगवान भी उनके लिए दुर्लभ नही होता है …
पीछे पीछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर…
कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर |
पीछे पीछे हरी फिरे, कहत “कबीर, कबीर” ||
कबीर ने कहा…
यह तन विष की बेलरी ,गुरु अमृत की खान |
सिर दीजिए सतगुरु मिले ,तो भी सस्ता जान ||
वो सद्गुरु तत्व आत्मदेव आपको मिल सकता है चालू व्यवहार में ! जैसे तुलाधार को हो गया । तो चालू व्यवहार में  ये पाँच बातें आ जाए तो अंतःकरण शुद्ध होगा, शुद्ध अंतःकरण वाला बैठेगा तो ध्यान जल्दी लगेगा , ज्ञान की बात जल्दी समझ में आएगी, महापुरुषों को पहचानने की बुद्धि मिल जाएगी, महापुरुषों के उपदेश को झेलने की बुद्धि मिल जाएगी । बुद्ध के साथ आनंद भी रहता था और सुबुद्धि भी रहता लेकिन सुबुद्धि को बुद्ध इतने सारे मिल गए कि सुबुद्धि बुद्ध के विदाई का भी सुबुद्धि को भय नही है, खतरा नही है क्योंकि बुद्ध को ऐसे पा लिया कि बुद्ध कभी जा नही सकते | लेकिन आंनद ने ऐसा नही पाया कि बुद्ध कभी जा नही सकते | आनंद ने बाहर बाहर से पाया था और सुबुद्धि ने बुद्ध को बाहर और भीतर दोनो ढंग से, अच्छी ढंग से पाया था । तो आप परमात्मा को बाहर बाहर से तो मंदिर में पाते हो , बाहर बाहर से तो आरती के वक्त भगवान के निकट होते हो लेकिन भीतर से भगवान के निकट अगर एक बार हो जाओ तो फिर वियोग नही होता है। बाहर से हजार बार भगवान के साथ मिलो.. शाकुनी मिलता था श्रीकृष्ण को , दुर्योधन मिलता था श्रीकृष्ण को, और ग्वाला कहके पुकारता था, रामजी को सूर्पनखा भी मिली थी | तो मैंने अर्ज किया था कि ये जो शाश्वत शांति है, नैष्ठिकम शांति है वो भगवद दर्शन तो पाप आत्माओं को भी हो जाता है अनजाने में, जैसे शाकुनी को भगवद दर्शन हुआ था, दुर्योधन को हुआ था, लेकिन ये पाँच बातों से अपने व्यवहार को सजाया नही तो वैसे के वैसे रह गए ! और जिन्होंने
पाँच बातों से अपने व्यवहार को अनजाने में भी व्यवहार में थी उन्होंने भगवान के दर्शन से बहुत कुछ पा लिया ।

शबरी में प्रेम था, भगवान के दीदार से शबरी ने ऐसी यात्रा की कि सारी यात्रओं का फल मिल गया। मतंग ऋषि के आश्रम में रहने वाली वो अबला भीलण , उसके व्यवहार में निष्कामता थी ,उसके व्यवहार में  प्रेम था, उसके व्यवहार में विनय था और रामजी एक बार मिले | सूर्पनखा को भी रामजी मिले और शबरी को भी रामजी मिले | बताओ सूर्पनखा ने कुछ नही पाया, नाक कान कटाकर नककट्टी हो गयी औऱ शबरी ने ऐसा पाया कि साधु संतों की जिव्हा पर शबरी का नाम आदर से लिया जाता है ! सरोवर कांठे शबरी बैठी ,सरोवर कांठे ओली भीलण बैठी ,करे राम नू ध्यान, राम राम रटता शबरी बैठी….

जिसका व्यवहार शुध्द होता है न उसको  सत्संग में रुचि होती है। जिसका पुण्य जोर होता है व्यवहार शुद्ध होता है, व्यवहार में ये पाँच बातें होती है वो सत्संग के बिना रह नही सकेगा। सत्पुरुषों का आदर किये  बिना रह नही जाएगा उससे ! जैसे सती सावित्री ..बाप ने तो क्रुद्ध होकर एक भील के साथ ब्याह दी .. और भील वास में रहती थी झोंपडी में.. देवर्षि नारद पसार हुए तो कईं भीलण ऐ बाबा आए, बाबा आए .. ऐसा करके मस्करी करती थी लेकिन सावित्री तो आदर से नारद जी को प्रणाम करती और नारद जी पूछते  कि भीलण तेरा व्यवहार तो कुछ बड़े घराने की बुद्दिमान महिला जैसा है । बातचीत करते हुए पता चला कि पिता ने गुस्से गुस्से में लकड़हार के साथ शादी करा दी। नारदजी ने देखा लकड़हार कौन है.. की सत्यवान.. और सावित्री को मंत्र दिया! भील वास में रहनेवाले और लड़की काँटकर गुजारा करनेवाला  वो बचपन से भीलों के वातावरण में पलनेवाला सत्यवान .. समय पाकर ऐसा जीवन चमका कि अभी सती सावित्री होकर अभी सुप्रसिद्ध है। तो आपके व्यवहार से ही आपका भविष्य बनता है और  व्यवहार  करने के पहले … मशीन को काम दिया जाता है, मनुष्य को ज्ञान दिया जाता है।

व्यवहार के पहले अगर गीता का ज्ञान मिल जाए और फिर व्यवहार में लगे तो बेड़ा पार हो जाता है … अर्जुन को गीता का ज्ञान मिला और बाद में युद्ध में लगा है .. तो युद्ध जैसे घोर कर्म में भी अर्जुन सफल हुआ है और आदरणीय हो गया। नही तो जो युद्ध करे लड़ाई करें अपने कुटुम्बियों को बड़े बड़ों को जिनकी गोद में खेला है, जिनसे सीखा है, पढ़ा है उनकी हत्या करनी पड़ती है ! लेकिन अर्जुन विवश है.. धर्म युद्ध करना पड़ता है , फल आसक्ति नही है… त्यक्त्वा कर्मफल … कर्मफल को छोड़ दिया है … जो होगा !… निष्काम भाव से युद्ध ! निष्काम भाव से जब युद्ध हो सकता है तो निष्काम भाव से तुम्हारी नौकरी क्यों नही हो सकती ? की बाबाजी नौकरी करेंगे तो पगार तो लेंगे ! पगार तो जरूर लो लेकिन ये पगार लेकर मेरे को मजा नही लेना है.. पगार लेकर ये जो मेरे इर्द गिर्द भगवान ने जबाबदारी सौंपी है उसको निभाना है ! जिनको खिलाना वो बड़े होकर मेरे को खिलाए , जिनको पोशणा वो मेरे को पोशे इस स्वार्थ से नही ! और कभी कभी पड़ोसी का बच्चा अपने बच्चे से जरा ज्यादा जरूरतमंद है तो वहाँ भी हाथ चला जाएगा सेवा के लिए !  तो हृदय में जो आनंद आएगा, शांति आएगी वो कुटुम्बियों के मोह माया से आक्रांत जीवन से वो आनंद नही आएगा जितना हृदय विशाल करके आनंद पा सकोगे! जितना जितना व्यवहार में स्वार्थ त्याग होगा ,हृदय की विशालता होगी उतना उतना अंतःकरण शुद्ध होगा  और परमात्म रस से पूर्ण होने लगेगा।

एक पुरुषोत्तम नाम के भगवान के भक्त हो गए। हकीकत में वो पुरुषोत्तम दास जी साधारण कुटुंब में जन्मे थे और बचपन में माँ बाप विदा हो गए थे । गंगा तट पर गाँव देवपुरी उसमें पुरुषोत्तम दास जी महाराज एक बहुत उच्च कोटी के संत हो गए। उनका बाल्यकाल तो महाराज ऐसा गुजरा कि थोड़ी 3-4 वर्ष की उम्र में पिता चले गए,  छठी वर्ष की  में माँ चली गयी.. अब दीदी ने उनको पाला-पोशा । दीदी भगवान की भक्त थी, और सत्संग में जाया करती थी । तो उस बालक पुरुषोत्तम को सत्संग में ले गए। और सत्संग का रंग बचपन मे जब लग जाता है न  बड़ी गहरी असर करता है। तो दीदी ने उनको राम नाम में प्रीति सिखा दी और व्यवहार की शुद्धि, इन पाँच बातों के छोटे मोटे संस्कार डाल दिए। महाराज वो पुरुषोत्तम बच्चे पुरुषोत्तम में तो भक्ति का कुछ ऐसा रंग जमा कि 5 वर्ष.. 6 वर्ष की उम्र में माँ- बाप तो चले गए लेकिन ऐसे माँ- बाप का शरण मिल गया जो कभी न जाए । तो  उनको नौ रस फीके हो गए .. नौ रस कौन से है ? कि श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस, वीर रस, रौद्र रस , भयानक रस, बिबित्स् रस, अद्भुत रस और सांसारिक शांति का रस .. ये सारे नौ के  नौ रस उनके लिए फीके हो गए.. षडरस , नौ रस दोनों फीके हो गए … षडरस कौनसे होते है?  कि कटु, तीक्ष्ण, मधुर, काषाय, आम्ल, और लवण .. इस प्रकार के नौ और छः पंद्रह के पंद्रह जगत के रस फीके हो गए ऐसा उनके चित्त में रामरस प्रगट होने लगा और इस प्रकार रामरस में वो जीते थे, धंदा व्यवहार जो कुछ छोटा मोटा आता था काम तो करते थे लेकिन चित्त  रामरस से भरा रहता था । बारह वर्ष इसप्रकार  उनका चित्त रहा महाराज फिर तो वो देह अध्यास से पार हो गए, बाहर का काम धंदा छूट गया ! जो  आत्म तृप्त  होते है.. तस्य कार्य न विद्यते, आत्मरति एवच…जिसको आत्मरति होती है ,आत्मप्रीति होती है उसके लिए  संसार का कार्य करें न करे, संसार का बोझा अपने आप छूट जाता है। ऐसे ही इस संत के जीवन में संसार जीवन जीने वाले पुरुषोत्तम दास महाराज हो गए , दीदी के संग से गंगा तट पर उस गाँव में लोगों को जब पता चला कि इनका मधुर व्यवहार और इनका सानिद्वय से इतना सुख  शांति मिलता है तो लोग धीरे धीरे उनके पास कथा श्रवण को आते थे। रामायण लेकर बैठ गए, कभी कोई संत महापुरुष का पुस्तक लेकर बैठ गए .. तो पुस्तक या ग्रन्थ तो कोई होता था धार्मिक लेकिन धर्म अंदर से प्रगट होता था । धर्म अंदर से जब प्रगट होता है न तो उसमें बड़ी मधुरता होती है।

 

धर्म क्या है ? कि जिससे अपना और दूसरे का इस लोक में और परलोक में श्रेय हो वही धर्म है। अपना और दूसरों का इस लोक  और परलोक में कल्याण हो वह धर्म है। ऐसा  धर्मआचरण पुरुषोत्तम दास  के व्यवहार में और वाणी में था । धीरे धीरे लोग उनके पाँच पच्चीस से ,पचास सौ दो सौ ऐसे बढ़ते गए .. देर सवेर वो  पुरुषोत्तम दास  महाराज एक संत के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । पुरुषोत्तम दास  महाराज 5 वर्ष तक लोक सम्पर्क में रहे और  फिर अंत में देखा कि ये प्राण पखेरू उड़ने वाले है उस समय उन्होंने प्राणायाम करके परमात्मा ध्यान किया और उनकी तालू में से प्राण पखेरू ईश्वर तत्व में समा गए । उनका नाम नश्वर शरीर संसार में जैसी विधि होती है ऐसा हो गया और शाश्वत उनका अंतवाहक शरीर परमात्मा में मिल गया । कहने का तातपर्य यह है कि जिसके जीवन में ये पाँच बातें आ जाती है अथवा जिसके जीवन में भगवद रस आने लगता है … तो  ये पाँच बातें  अपने आप उनके व्यवहार से टपकने लगती है, वो आदमी संसार का व्यवहार करते हुए भी परमपद को पा लेता है । उत्तम मनुष्य वह है कि उत्तम व्यवहार और उत्तम विचार और उत्तम  संग करके जीवन का निर्वाह करते है । उत्तम मनुष्यों का काम है कि कोई  काम करते है न तो आगे पीछे विचार करके हाथ में लेते है और फिर प्राण जाए लेकिन उस कर्म को छोड़ते नही जबतक उस कर्म में पूर्णता न आए । मध्यम आदमी ऐसे होते है कि अच्छा काम लेते तो है   थोड़ा विघ्न आ जाए तो ध्यान भजन छोड़ दिया … थोड़ा कुछ प्रॉब्लम आया तो सत्संग वत्संग छोड़ दिया.. और कनिष्ठ- अधम आदमी ऐसे होते है कि अच्छे काम की तरफ चलते ही नही ! और चलते है तो दिखावे भर को चलते है । तो अधम आदमी उस रास्ते चलता नही, चलता है तो दिखावे भर का है । मध्यम आदमी चलता है और विघ्न आता है तो भाग खड़ा होता है । लेकिन उत्तम आदमी हजार हजार विघ्न आ जाए फिर भी नही छोड़ता और अंत तो गत्वा उत्तम पद को पा लेता है ! तो उत्तम में उत्तम पद है शाश्वत शांति,  नैष्ठिकम शांति | तो तुम जो कुछ करो … तो काम करने के पहले आराम होता है , काम करने के  बाद भी आराम होता है .. तो काम ऐसा करो कि तुम्हारे   चित्त में राम का आराम प्रगट होने लग जाए !  चित्त को जाँचो ! अपने चित्त में अशांति तो नही आ रही है ? भय तो नही आ रहा है ? क्रोध तो नही आ रहा है ? और जब क्रोध भय अशांति आए तो देख लेना कहीं ना कहीं गड़बड़ है, कहीं ना कहीं स्वार्थ है.. हरिकथा मीठी नही लगती, सत्संग मीठा नही लगता है  तो कहीं ना कहीं स्वार्थ खटपट कर रहा है , कहीं ना कहीं पुण्यों की कमी है इसलिए कूड़ाकरकट आ गया है । तो अपने मन को अपने बुद्धि को जाँचते रहेंगे तो जल्दी स्वच्छ होंगे और संसार मे और ईश्वर के रास्ते दोनों रास्ते आदमी सफल होता है। कभी कभी तो कोई आदमी दोनों हाथ से सिर खुजलाते है .. दोनों हाथ से सिर नही खुजलाना चाहिए और झुठे हाथ से तो सिर को कभी स्पर्श नही करना चाहिए नही तो बुद्धि मंद होती है । झुठे हाथ से बच्चे अपने सिर को हाथ न लगाए ऐसी सीख देनी चाहिए उनको ।

नारायण नारायण…

 

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