सेवा ही भक्ति – १

सेवा ही भक्ति – १


अपनी सेवा वही है के अपने को परस्थितियों का गुलाम ना बनाये। परिस्थितियों के दास्ताँ से मुक्त करे। वही स्वतंत्र व्यक्ति है और जो स्वतंत्र है वही सेवा कर सकता है |

पद और कुर्सी मिलने से सेवा होगी और बिना कुर्सी के सेवा नहीं होगी ये नासमजी है। जो अपनी सेवा कर सकता है वो विश्व की सेवा कर सकता है। चाहे उसके पास रुपया पैसा नहीं हो, फिर भी वो सेवा कर सकता है। किसी को रोटी खिलाना, वस्त्र देना इतना ही सेवा नहीं है | किसी को दो मीठे शब्द बोलना, उसके दुःख को  हरना यह बड़ी सेवा है। निगुरे को गुरु के द्वार पर पहुंचाना ये बड़ी सेवा है। असाधक को साधक बनाना ये भी सेवा है । अनजान को जानकारी देना ये भी सेवा है ।  भुखे को अन्न देना यह सेवा है ।  प्यासे को पानी देना ये  सेवा है। अभक्त को भक्त बनाना ये सेवा है। उलझे हुए की उलझने मिटाना ये  सेवा है और जो देता है वो पाता है। जो दूसरोंको कुछ न कुछ देता है, और नहीं तो दो मीठे शब्द ही सही, और नहीं तो दो भगवान की बात ही सही। और सेवा में जो बदला चाहता है वह सेवा के धन को कीचड़ में डाल देता है। सेवा करे और बदला  कुछ मिले, हमारा यश हो, हमें पद मिले,  हमें मान मिले,  तो वो सेवक व्यक्तित्व बनाना चाहता है और व्यक्तित्व हमेशा सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा। व्यक्तित्व सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा तो सत्य स्वरुप से सेवा नहीं करने देगा। जो सच्चाई से सेवा नहीं करने देगा तो सच्चाई से मुक्ति भी नहीं पाने देगा।

सच्चाई तो ये है के सेवा के बदले कुछ न चाहना। जब कुछ न चाहेंगे तो  जिसका सब कुछ है वो संतुष्ट होगा | अपना अंतरात्मा तृप्त होगा, खुश होगा।  जब अंतरात्मा खुश होगा, तृप्त होगा तो  कुछ न चाहने वालो को तो सब कुछ मिलता है।

जो किसी को प्रेम करता है वो किसी को  द्वेष करेगा।  जो कुछ चाहता है वो कुछ गँवाता है । लेकिन  जो कुछ नहीं चाहता वह कुछ नहीं गँवाता ।  और जो किसी को प्रेम नहीं करता वो सबको प्रेम करता है और जो सबको प्रेम करता वो किसी व्यक्तित्व में, परिस्थितित्व में बंधता नहीं है और वो निर्बंध हो जाता है।

जो निर्बंध हो जाता है  दूसरों को भी निर्बंध बनाने का सामर्थ्य उसका निखरता है।  जो निर्दुःख हो जाता है वो दूसरोंके दुःख दूर करनेमें सक्षम हो जाता है। जो निरहंकार हो जाता है वो सच्ची सेवा में सफल हो जाता है। औरों को निरहंकार होने के रास्ते पे ले जाता है।

तो सच्ची सेवा का उदय उसी दिन से होता है की सेवक प्रण करले के मुझे इस मिटने वाले नश्वर शरीर को, कब छूट जाये कोई पता नहीं | इस नश्वर शरीर, इस नश्वर तन से, अगर हो सके  ,शारीरिक क्षमता हो तो, तन से सेवा करुँ।  और भाव सबके लिए अच्छा रखूंगा ये मन से सेवा करुँ।  और लक्ष्य सबका ईश्वरीय सुख बनाऊंगा ये बुद्धि से सेवा करने का निर्णय कर ले और बदले में मेरे को कुछ नहीं चाहिए। बदले में  कुछ नहीं चाहिए क्योंकि शरीर प्रकृति का है, मन प्रकृति का है, बुद्धि प्रकृति की है और जहाँ सेवा कर रहे है वो संसार प्रकृति का है। संसार के लोग प्रकृति के है। संसार की  परस्थिति प्रकृति की है।  तो प्रकृति की चीजे प्रकृति में अर्पण कर देने से आप प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हो जाते है । जब प्रकृति के दबाव से और प्रकृतिके आकर्षण से  मुक्त हुए तो आप परमात्मा में टिक गए।

वो आपका स्वतः स्वाभाव था आप उसमें टिक गए। उसके आनंद में आप आ गए। ये एक दिन की बात नहीं है धीरे धीरे होगा लेकिन हर रोज ये मन को बतायें के हमको तो सेवा करनी है।  सेवा लेने वाला गुलाम रहता है और सेवा करने वाला स्वामी हो जाता है | सेवक न आय तो  स्वामी लाचार होता है के ‘अरे आज फलाना नहीं आया’ | लेकिन जो सेवा करता है स्वामी आये चाहे न आये सेवक तो अपना… उनकी पराधीनता महसूस नहीं करता। नौकरानी की याद में सेठानी दुःखी होती है | लेकिन सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती | नौकरानी तो रुपये की याद में दुखी हो सकती है, सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती। सेवा लेने वाला भले सेवक को याद करे लेकिन सेवा करने वाले की गाडी तो ऐसे ही चल जाती है।

तो ईश्वर के नाते सेवा करे और उस सेवा में और सुगन्धि लाये की ईश्वर के नाते सेवा करे और जिसकी भी सेवा करते है वो सब ईश्वर की भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ  है।  आप जिस किसी व्यक्ति को नीचा दिखाना चाहते हो तो समझो की उसके अन्दर बैठे हुए ईश्वर को आप नीचा दिखाना चाहते हो। जिस किसी व्यक्ति की इर्षा करते हो तो समझो की व्यापक ईश्वर सब में बैठा है | तो ईश्वर की उस अंग की, उस खंड की आप इर्षा करते हो। तो हमारे चित्त में अपना अहंकार पोसने की और दूसरों को नीचे दिखाने की, और  सेवा का प्रदर्शन करने की जो आदत है या कमजोरी है उसको निकालने से  हमारी सेवा सेव्य को प्रगट कर देगी।

निष्काम कर्म योग अपना स्वतंत्र योग है। जैसे तत्त्व ज्ञान, ज्ञान योग, सांख्य योग मुक्ति देने में स्वतंत्र है। ऐसे ही भक्ति ध्यान योग भी मुक्ति देने में स्वतंत्र माना गया है | ठीक ऐसा ही दर्जा है निष्काम कर्मयोग का । निष्काम कर्म योग भी स्वतंत्र है । मुक्ति देने में स्वतंत्र है। अपने स्वार्थ को पोसने का, अहंकार को पोसने का , दूषित वासनाओ को पोसने का , जो भी कोने खाचरे में वासनाये  या बेवकूफियां भाव है उसको उखाड़ के फेक दे।

बड़े बड़े जोगियों को समाधी करने से जो सुख मिलता है वो सुख सतियों को अपने घर में ही मिला।  बड़ा बड़ा सामर्थ्य जिन योगियों के जीवन में सुना जाता है उससे भी बढ़ा चढ़ा सामर्थ्य सतियों के जीवन में सुना गया है।  सतियों ने क्या किया ? सतियों ने अपनी इच्छा छोड़ दी, पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दी | पति की इच्छा में,  पति के संतोष में,  पति की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी को रख  लिया। पति की…..बस मेरी अपनी इच्छा नहीं।  पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाने से उनकी अपनी इच्छा हटती गयी | अपनी इच्छा  हटती गयी और उनकी सेवा चमकती गयी और  वे सतियाँ  ऐसी-ऐसी महान हो गयी  की सूर्य की गति को थाम लिया।

शाण्डिली थी – शाण्डिली का रूप, लावण्य, सौंदर्य देख कर ग़ालब ऋषि और गरुड़ जी मोहित हो गए के ऐसी तेजस्विनी, ऐसी सुंदरी इस धरती पर’ और तपस्या कर रही है।  नहीं नहीं तू तो भगवान विष्णु की भार्या होने के योग्य है।  विष्णु भगवान से तेरा विवाह करेंगे।  शाण्डिली ने कहा ‘ नहीं नहीं मुझे तो ब्रम्हचर्य व्रत पालना है।  शाण्डिली तपस्या में लग गयी, ध्यान भजन में लग गयी।  अपने शुद्ध बुद्ध स्वरुप की तरफ यात्रा करने लग गयी।  गरुड़ और ग़ालब को हुआ की इतनी तेजस्वी सुंदरी ! मानो अप्सराओ को भी मात कर दे…ऐसी  धरती की युवती…कहीं तपस्या-वपस्या में जोगन बन जाएगी तो फिर बात मानेगी नहीं | इसको उठा ले जाये और जबरन भगवान विष्णु के पास पंहुचा दे और वहां शादी करा दे। एक प्रभात को ग़ालब और गरुड़ आये शाण्डिली को उठा के ले जाने के लिए …और शाण्डिली की दृष्टि पड़ी की इनकी अपने लिए तो नहीं लेकिन अपनी मनमानी इच्छा पूरी करने के लिए इनकी नियत बुरी हुई है।  जब मेरे में इच्छा नहीं तो मैं किसी की इच्छा से क्यों दबु ? मुझे तो ब्रह्मचर्य व्रत पालना है और ये मुझे जबरन गृहस्थ में घसीटते है | विष्णु की पत्नी ! मुझे पत्नी नहीं होना है | मुझे तो अपने स्व स्वभाव को पाना है | पत्नी शब्द प्रकृति है,  प्रकृति में जन्मना-मरना नहीं है | मुझे तो प्रकृति के आधार को जानना पहचानना है और ये क्या कर रहे है मुझे निराधार बनाने के लिए।  शाण्डिली ने.…गरुड़ तो बलवान था और ग़ालब भी कम नहीं थे | लेकिन शाण्डिली की निस्वार्थ सेवा, निस्वार्थ परमात्मा में विश्रांति की यात्रा ने उसको ऐसा तो भर दिया था की शाण्डिली ने देखते देखते उनपर पानी का छीटा मारा ‘ग़ालब तुम गल  जाओ और ग़ालब को सहयोग देने वाले गरुड़ तुम भी गल जाओ’ | उन दोनों के शरीर महसूस हुआ की उनकी शक्ति क्षीण हो गयी | मानो वो गल ही रहे है भीतर भीतर से | बड़ा प्रायश्चित किया, क्षमा-याचना  की, तब कहीं उस भारत की कन्या ने उनको माफ़ किया और जैसे थे वैसे बना दिया और अपनी शक्ति बचाकर भागे। जिसमें निस्वार्थता होती है और ब्रह्मचर्य  का संयम होता है उसके आगे प्रकृति के नियम भी बदलने को राजी हो जाते है।

जो रुग्न मन का अनुसन्धान करके मनोवैज्ञानिक बोलते है की काम आये तो कोई बात नहीं रोको मत, सम्भोग से समाधी की ओर जाओ …तो उन बिचारे वैज्ञानिको की जो किताब है और  आचार्य  और विद्वानियों ने पढ़े तो वैज्ञानिकों का अविष्कार, अन्वेषण था की रुग्न मनो का अध्ययन करके…. तीन प्रकार के रुग्ण मन होते है और दो प्रकार के स्वस्थ मन होते है । क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये रुग्न मन होते है और आम आदमी के रुग्न मन होते ही  है।  निरुद्ध और एकाग्र ये स्वस्थ मन होते है।  स्वस्थ मन था अर्जुन का , अप्सराये गिडगिडायी उर्वंशी, लेकिन अर्जुन ने कमर नहीं तोड़ी अपनी। स्वस्थ मन था युधिष्ठिर का , कई परिस्थितियाँ आई लेकिन युधिष्ठिर  अडिग रहे ।  स्वस्थ मन था जनक का कई विक्षेप के अवसर आये, भोग  वासना में गिरने का अवसर आया लेकिन जनक भोग  में रहते हुए भी योग में रहे, ये स्वस्थ मन है।

तो स्वस्थ मन का अध्यन करके, अनुसन्धान करके वैज्ञानिक अगर अविष्कार करते , घोषणा करते तो वो ये नहीं कह सकते की काम न रोको, क्रोध न रोको , आवेग है उनको गुजरने दो, आने दो | ऐसा नहीं कहते, अपितु ये कहते की  काम को रोको, क्रोध को रोको, युक्ति से रोको।  लेकिन उनको अगर और कोई सतगुरु मिल जाये तो वो सज्जन भी कहेंगे की काम को रोकना पर्याप्त नहीं है | काम की जगह पर राम को प्रकट करो | क्रोध की  जगह पर क्षमा और सहानुभूति  को प्रगटाओ | यही तुम्हारे में विशेष क्षमताएँ हैं ।

झूठ न बोलो ये तो ठीक है, सत्य बोलो ये भी ठीक है, लेकिन स्नेह भरा बोलो। चोरी न करो ये तो ठीक है लेकिन जहाँ चोरी करने की आदत है वहाँ दान करों।  उदार बनो .. दो…. आपके पास शारीरिक बल हो,  मानसिक बल हो, बौद्धिक बल हो, जितना हो चाहे मुट्ठी भर हो , जितना भी हो उसे आप ईश्वर की विराट सृष्टि में , ईश्वर के लिए, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करो।  सदुपयोग मतलब सेवा करो।  आपके पास जितना, थोड़े से थोड़ा भी है उसको ईमानदारी से सेवा के लिए लगाओ | तो आप पाओगे के ज्यों-ज्यों आप अपनी योग्यताएं सेवा में लगा रहे है और बदले में कुछ नहीं चाहते त्यों त्यों आपकी योग्यताएं जादुई ढंग से बढ़ती  जाएगी। देखे बढ़ती है की नहीं ऐसा अध्येर्य मत करो।  बढ़े न बढ़े हमें कोई जरूरत नहीं।  हमारे पास जो योग्यता है देनेवाले की है और देनेवाले की  सृष्टि सवारने के लिए है । देनेवाले की सृष्टि की सेवा करने के लिए है। न सेवा का बदला चाहो और न सेवा का प्रचार चाहो, न सेवा का दिखावा चाहो। आपके हृदय की शांति और समझ सूझबूझ बढती जाएगी |

और आदर्श सेवक हनुमान हो गए | इसी ढंग से अपने को देखने की इच्छा करो।  सेवक और मान चाहे, सेवा के बदले में मान चाहे, सेवा को बेच रहा है फेक रहा है।  शरीर का अहंकार पोसने के लिए सेवा को नष्ट कर रहा है।  सेवक और मान की इच्छा? सेवा करोगे लोग मान देंगे लेकिन आपको उस मान से कोई फायदा नहीं होता अपितु अहंकार जगने का अवसर आता है। सेवा के बदले में मान न चाहो।  सेवा के बदले में भोग न चाहो।  सेवा के बदले में दूसरों को दबाने की क्षमता न चाहो।  सेवा करते जाओ जो तुम्हारा हरीफ़ है उसका ह्रदय भी जीतो। हरीफ़ जिस कारण से दुखी है वो कारण हटाते जाओ।  तुम्हारा दुश्मन जिन कारणों से दुखी है वे कारण आप हटाते जाओ।  दुश्मन की भी सेवा करो। फिर देखो उस दुश्मन पर आपकी कैसे विजय होती है।  दुश्मन को मार देना ये दुश्मन पर विजय नहीं है।  दुश्मन का  गला दबा देना या नीचे गिरा देना यह दुश्मन की विजय नहीं है इसमें दुश्मनी तो बनी रहेगी।  दुश्मन को अगर जीतना है तो दुश्मन जिन कारणों से दुःखी है वे कारण हटाना शुरू करो।  ये ऐसी सेवा है महाराज!

गजब कर देगी !

आपको स्वामी पद पे बिठा देगी।आप विश्वजीत हो जायेंगे। दुर्योधन युधिष्ठिर को दुश्मन मानते थे लेकिन दुर्योधन कहते थे की युधिष्ठिर…नहीं…युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलेंगे। अगर फ़स जाते दुर्योधन, कोई निर्णय नहीं कर पाते तो युधिष्ठिर से निर्णय करवाते। दुर्योधन युधिष्ठिर का भगत था भीतर से। जय राम जी की।  ऐसा कहलो की दुर्योधन युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से।  शाकुनि युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से।

रावण रामजी का विरोधी था, लेकिन रामजी यथा योग्य रावण की खिदमत करते है।  उसको स्वधाम पहुंचाना यह भी रामजी के चित्त में द्वेष नहीं है, खिदमत का भाव है। नहीं तो हार्ट अटैक कर देते और उपाय से बुरी तरह मारते … नहीं …मौका दिया अवसर दिया।  तो अगर जरूरत पड़ती है किसीको कुछ करने की तो भी अंदर में द्वेष रखकर नहीं जैसे रामजी उसकी खिदमत की भावना से युद्ध करके उसे स्वधाम भेज देते है।

तो सेवक को जो विघ्न बाधा आये और जो तत्त्व विघ्न बाधा डालते है।  तो उन तत्वों की बुराई नहीं लेकिन उन तत्वों का जिस में भला हो, ऐसी कोशिश करे।  उनकी वासना और उनका अहंकार घटे ऐसी कोशिश करे।  खिदमत भाव से उन तत्वों को , उन विरोधो को हटाये तो वो सेवक….वो सेवक सेव्य पद को पा लेगा।  गुरु लोग शिष्य को डाटते है , गुरु लोग शिष्य को निकाल देते है।  गुरु लोग शिष्य को भर सभा में उठ-बैठ कराते है ऐसा आपने देखा है, हमनें भी देखा है।  हमनें हमारे गुरु देव के चरणो  में देखा है और आपने मेरे संपर्क में देखा है।  लेकिन मेरे ह्रदय  में उनको खुले आम उठ-बैठ कराना या डाटना  द्वेष बुद्धि नहीं है अपितु उनमें जो दुर्गुण है, जो उनको ऊपर उठाने से रोकते है….. खुले आम उनको वाहवाही मिलती है  तो फिर अकेले में उनको कहते है तो उनके अहंकार में परिवर्तन नहीं होता | इसलिए  खुले में उनको उठ-बैठ करा देते हैं ताकि उनका खुले आम अहंकार विदा हो जाये।

मेरे गुरुदेव अपने एकदम निकट वर्ती सेवक को खुले आम  उठ-बैठ कराते, डांटते ।  एक बार सेवक ने पूछा की ‘स्वामीजी! आप कृपालु तो है ये तो अनुभव करते है हम …लेकिन जब आप नाराज़ होते है तो छक्के छुड़ा देते है स्वामीजी |  आप अगर डाटे और कुछ  हमारी गलती बताये तो एकांत में कह दे। दिन भर आपकी सेवा करते है , जब सभा भरती है सत्संग होता है और आपके हाथ में माइक आता है तभी आप हमको बोलते हो।  बिना माइक के कह दिया करो गुरुदेव ! सहा नहीं जाता ! कहाँ तो इतने लोग हमको पूजते है, जानते है और इतने लोगो के बीच आप हमको माइक…गुरुदेव ने फिर करुणा की डाट बरसाते हुए कहाँ  ‘ बेवक़ूफ़ ! गधा ! पता नहीं है तेरे को वीर्यभान का बच्चा!  वाहवाही लोगों के बीच होती है।  फुगा लोगों के बीच भरता है तो फिर हवा लोगों के बीच क्यों नहीं निकलेगी? यही तरीका है बेटे तेरे को पता नहीं है।’

वो जो वीरभान लड़का था वो सब्जी बेचने की लारी चलाता था और खूब सुलफे पिता था। वो तो खुद बोलता था की ‘ मैं  छटांग छटांग अफीम उड़ा देता था।  चरस गांजा जो भी बोलते है।  मैं ऐसा था और देखो धीरे धीरे स्वामी जी के पास आया हूँ और स्वामीजी का अंगद सेवक हो गया हूँ…देखो ! संत कितने दयालु है’ वो ऐसी प्रशंसा भी करता था। और कभी कभी ऐसा जुनून  चढ़ जाता था की उठाके बिस्तर बोरी की ‘ नहीं नहीं रहना है … दस साल में क्या मिला  है तुम्हारे पास? हम जाते है।  तो स्वामीजी बोलते थे की ‘ ले जाओ साले को उठाके , एक मिनट मत रखो , निकालो आश्रम से इसको ‘वो आश्रम से निकल के बोरी बिस्तर बांधकर रवाना होता तो बोलते थे की ‘अकेला जायेगा फिर लौट के आएगा हरामी! जाओ! ये पैसे लो इसे बस स्टैंड पे जाके बस में धक्का मारके घुसेड़ के फिर आना । और साइड में उसको बोलते की सचमुच जाता है न तो धीरे धीरे समझा के ले आना।  अगर सचमुच चला जाये तो फिर चरस अफीम पियेगा…लारी चलाएगा…. बर्बाद हो जायेगा। अगर अहंकार मिटाने के लिए अपन ये करते है तो देखो… ध्यान रखना अगर सचमुच जाये तो समझा  के ले आना। अब देखो ! बाहर से कितने कठोर ! और अंदर से कितने करुणामय! ऐसे स्वामी की विजय हुई और ऐसा सेवक सफल जीवन बिता गया। अब जैसे साधुओ की पूजा होती है ऐसे ही  सब्जी चलाने वाले, गांजा चरस फूकनेवाले व्यक्ति की पूजा आदिपुर में होती है।  जो लोग लीलाशाह का दर्शन करते वो लीलाशाह के हनुमान का भी दर्शन करते, माथा टेकते हैं । ये स्वामियों ने स्वामी बना दिया महाराज!  नारायण हरी।  नारायण हरी। नारायण हरी।

श्री कृष्ण कहते है  अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |   संन्यासी योगी निरग्निर्न चाक्रियः||

जो आसक्ति रहित होकर, करने योग्य कर्म करता है ,फल की आकांशा नहीं।  सेवा करता है लेकिन वाहवाही की आकांक्षा नहीं।  सेवा करता है लेकिन दिखावे की इच्छा नहीं। सेवा करता है लेकिन बदले में सेवा चाहता नहीं।  सेवा करता है बदले में मान चाहता नहीं।  सेवा करता है लेकिन दूसरों को हिन् दिखाकर आप श्रेष्ठ होने की बेवकूफी नहीं करता है |  ऐसा जो सेवक है उसे तुम संन्यासी समझो। उसे तुम अर्जुन योगी समझो।  अनाश्रितः कर्म फलं ‘ कर्म के फल की आशा न रखे। कार्यं कर्म करोति यः’ करने योग्य। ….  ऐसा नहीं की सेवा का मतलब है कोई चाहते है की भाई हमें पिक्चर में जाना है और आप जरा लिफ्ट  दीजिये। तो उसको पिक्चर में न जाये उसका भला हो तो कोई लिफ्ट देता है  उसको रोकना ये भी सेवा है। जय राम जी की। मेरे को जरा फलानि पार्टी में जाना है….और पैसे नहीं है तो आप जरा थोड़ा …. आप तो जाने माने हो ….स्वामीजी के शिष्य हो …. जरा थोड़ा मेरे को २०० रुपये दो न …. फलानि पार्टी अटेंड करनी है …. तो आप तो नहीं लेकिन कोई दूसरा देता हो तो बोलना ‘भाई ये पार्टी अटेंड कर रहा है वो भी चिकन की ! इसमें उनका अहित है ! कृपा करके आप उनको न दे तो अच्छा है।’ ये भी एक सेवा है। उसको पतन करने में आप विघ्न डाले ये भी सेवा है  …. और ईश्वर के रस्ते में जाने में वह  न भी मांगे फिर भी आप सहयोग करे ये भी एक सेवा है।

सामने वाले की उन्नति किसमे होगी ये  ख्याल करके जो कुछ चेष्टा करना है और बदले न चाहना इसका नाम सेवा है । भले उस वक़्त वो आदमी आपको शत्रु मानेगा लेकिन देर सबेर आपका जो शुद्ध भाव है वो आपका ही हो जायेगा। मेरे अपने आप के कितने हो गए।  क्या मैंने जादू मारा या क्या मेरे पास कोई कुर्सी है या मेरे पास कोई बाहर का प्रलोभन है।  नहीं…. मेरे पास वह  है की मेरे पास जो आता है उसका कैसे मंगल हो ये भाव मेरे मन में उठते रहते है। लाइन में आते है दर्शन के बहाने तभी भी मैं देखता हूँ किसी को साखरबुट्टी की जरूरत है, किसी को पुस्तक की जरूरत है, किसी को खाली मुस्कान की जरूरत है और किसीको डाट की जरूरत है , जिसकी जो जरूरत है भगवान उसका करता है मेरा इसमें क्या होता है?

‘देने वाला दे रहा है दिन और रैन। लोग मुझे दानी कहे उसलिए नीचे नैन’ ऐसा एक दाता ने कहा है वो बात भी हमें याद रहती है। तो देनेवाला परमात्मा ही दे रहा है दिन रैन दे रहा है। मति को शक्ति वही दे रहा है। मन को प्रसन्नता वही परमात्मा दे रहा है। शरीर को सामर्थ्य उसी की सृष्टि से आ रहा है।  इसमें अपना क्या है? बस अपना कर्ज चुकाओ बस!….ऋण मुक्त हो जाओ… ऋण मुक्त हो गए तो जन्म  मरण मुक्त हो गया। विवेकानंद बोलते थे की तुम सेवा करते तो ये न सोचो की ये तो दीन-

हीन है | मैं न होता तो इन बेचारों का क्या होता? नहीं नहीं यह तो ईश्वर की कृपा है और सेवा लेने वाले की ….सेवा लेने वाले की भी कृपा है की हमें अवसर दे रहा है ऐसा मानो।  ईश्वर ने हमें क्षमताये दी उसकी कृपा है और ईश्वर ने हमें सेवा करने की क्षमताये दी वो ईश्वर की कृपा है।  और कोई हमारी सचमुच में सेवा ले रहा है सत मार्ग में तो उसको भी धन्यवाद है। नहीं तो गाड़ी में लोग नहीं बैठे तो गाडी किस काम की ? सड़क पर लोग नहीं चले तो सड़क किस काम का? ऐसे ही हमारी वस्तुओ का और योग्यताओ का लोगों के लिए उपयोग न होवे तो वस्तु और योग्यताएं किस काम की ? अपनी वासनाएं बढ़ाने  के लिए वस्तु और वासनाएं का उपयोग होता है तो हम बर्बाद हो गए।  अपना अहंकार बढ़ाने में वस्तु और योग्यताओ का उपयोग होता है तो बर्बाद हो गए।  हमें तो आत्मिक आबादी चाहिए।

तो हिटलर, सिकंदर जैसे तैसे आदमी  नहीं थे अच्छे थे लेकिन सेवा के बदले वस्तु और योग्यताओ को, अहंकार बढ़ाने में थोडी सी गलती की उन्होंने।  और इससे बड़ी गलती कोई होती नहीं है।  रावण और कंस क्यों विफल गए ? और क्यों अभी तक फटकार पाते है? की उनमें योग्यताएं बहुत सारी थी, वस्तुए बहुत सारी थी लेकिन वो अहंकार विसर्जन करने में, सेवा में नहीं लगाकर, अहंकार को पुष्ट करने में और वासनाओ को भड़काने में लगायी।  इसीलिए वे विफल है।

 

रामजी के पास और कृष्ण जी के पास जो वस्तु और योग्यताएं थी वो सेवा में लगा  दी रामजी और कृष्ण जी अभी तक भारत के हर दिल पर राज्य कर रहे है।  धरती पर कई राजा आये कई चले गए | लेकिन दो राजाओ का नाम अभी भी भारत वासियों के हृदय पर  है | वह राज्य राजा रामचन्द्र और राजा कृष्णचन्द्र उनका राज्य है क्योंकि वो भलाई ही अपनी योग्यता और वस्तु का सदुपयोग करने की कला थी उनमें।  ऐसे ही जनक राजा का और महात्माओ का भारत वासियों पे राज्य है।  गांधीनगर की कुर्सियों पर चाहे किसीका राज्य हो, भोपाल की कुर्सी पर, दिल्ली की कुर्सी पर चाहे किसी का भी राज्य हो लेकिन भारत वासियों के हृदय पर अभी भी निष्काम कर्म प्रेमी संतों का ही राज्य हो रहा है।  बस यह प्रत्यक्ष प्रमाण को देख कर आप  लोग भी अपने जीवन में जो सेवा करते है वो भाग्यशाली तो है लेकिन असावधान न रहे सावधान रहे की सेवा का बदला अगर लिया तो सेवा सेवा ही नहीं रही। सेवा से अगर दूसरा हमारी सेवा चाहे तो ये दुकानदारी हो गयी।  और सेवक के अंतकरण में इर्षा नहीं होती।

सिंधी संत हो गए। स्वामी साब उनका नाम था। उन्होंने  श्लोक बनाये उस ग्रन्थ का नाम है ‘ स्वामी जा श्लोक ‘ स्वामी के श्लोक….ग्रन्थ का नाम है।  उन्होंने लिखा है

‘सेवा सच्ची उस ग्रन्थ में सेवा सच्ची माँ जिन लधो। लधो लाल आण मुलोम से स्वामी सच्ची सिख सा सदा सेवा कण।  लता मुका मोचड़ा सदा सिर  सहन, रता रंग रहन अठे पहर अजीब रे। ‘

सच्ची सेवा से जिन्होंने पाया वो लाल … अनमोल लाल पाया।  आत्मा लाल पाया।  आत्म सुख पाया, आत्मसंतोष पाया।  वे तो सदा सच्चाई से सेवा करते है।  सेवा के बदले में कभी किसी के गुरु की या मातापिता की लात सह लेते है। तो कभी कोई खट्टी बात भी सह लेते है फिर भी हसते हसते सेवा करते रहते है जिन्होंने सेवा का मूल्य जाना है। जो सेवा के द्वारा कुछ चाहता है वो तो सेवा के नाम को कलंकित करता है और जो सेवक होकर सुख चाहता है वो भी सेवा के महत्त्व को।

गुरु देव दया कर दो मुझ पर….सिर पर छाया घोर अँधेरा, हो, सिर पर छाया

 

सेवक चेही  सुख लहीं। नहीं नहीं  सुख की अभिलाषा सेवक नहीं करता।  मान की अभिलाषा सेवक नहीं करता।  जब सुख और मान की अभिलाषा को हटा ने के लिए सेवा करता है तो सुख और मान पर उसका अधिकार हो जाता है।  तो अंदर से ही सुख और अंदर से ही सम्मानित जीवन उसका प्रकट होने लगता है।  नारायण हरी।  नारायण हरी।  नारायण हरी।  कुछ लोग सेवा से मुकरने की आदत रखते है। ‘अच्छा ये तू कर ले, अरविन्द हा तू करी ले ,फलाना भाई तू वे कर ले ,अला अतिनै करू तू तया आल्या जाओ तू करू ,करू आ करो , आ करो ‘ ऐसे सेवक विफल हो जाते सेवा में।

दो भाई थे। एक बड़ा एक छोटा। दोनों को बराबर संपत्ति मिली।  कुछ वर्षों बाद बड़े भाई ने मुक़दमा कर दिया छोटे भाई पर। न्यायलय में खटला गया।  न्यायाधीश ने केस चलाया और चेम्बूर में बुलाया बड़े भाई को, छोटे भाई को । बोले बड़े तुम कंगाल कैसे रह गए और तुम छोटे इतने अमीर कैसे हो गए ? जब तुम बोलते हो की हमने भले लिखा पढ़ी नहीं की लेकिन आधी आधी संपत्ति मिली थी। तो बराबर की संपत्ति मिलाने पर एक कंगाल और एक अमीर कैसे हो गया ? तो छोटे ने कहा ‘ मेरे बड़े भाई क्या करते थे की जाओ जाओ ये कर लो ! अरे, तेरे को बोला ये कर तूने नहीं किया अभी तक? अरे, ये कर ले , वो कर ले , जाओ जाओ, ये करो, जाओ जाओ तो इनका सब कुछ चला गया और मैं मित्रो से , साथियों से, नौकरों से ,मुनिमों से मिलकर कहता था की ‘आओ ! अपन ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ आओ। । मैंने आओ आओ सूत्र रखा और इसने जाओ जाओ इसीलिए उसका सब कुछ चला गया और मेरे पास सब कुछ आ गया।’

तो अच्छा उद्योगपति होना हो, अच्छा सेवक होना हो, अच्छा सेठ होना हो ,अच्छा संत होना हो , अच्छा नेता होना हो तो ‘जाओ! ये कर दो नहीं …आओ ये करें। आओ ये करें। आओ आओ जाओ नहीं। हरलु ख़रीदे तू आम ख़रीदे अपडायवु  ख़रीदे।  भले आपके पास समय नहीं , आपका डिपार्टमेंट नहीं फिर भी चलो अपन ये कर ले। अपन ये कर ले जिससे करवाते उसको विश्वास में लेके फिर शुरू करो।  तो उसको अपना लगे काम। जिससे काम करवाते उसको आपका  काम अपना लगे।  ऐसा नहीं की उसको ऐसा लगे की ये तो इनका सोपा हुआ काम है ,ये इनका सोपा हुआ बोज़ा है…. नहीं | जो सेवक दूसरों से सेवा लेकर सेवा कार्य को बढ़ाना चाहता है वो उनसे ऐसा पेश आये ऐसी बातचीत करे की ‘ देखो ! अपना ये कर्तव्य है।  अपन  लोगो को ये काम ऐसा करना चाहिए ऐसा मेरा विचार है , आपका क्या विचार है ? अच्छा विचार होगा तो मानेगा क्या? तो अपन कैसे करे?’

उसी को हो दूल्हा का बाप बनाओ।  एनज वर्णो बाप बनाओ।  तमारा सेवा ना निर्णयों ऐना मोदेतीच गढ़ाओ। आणि पचि हाळी मली ने सेवानु कार्य चालू करेन तमे खासकए जाओ पाछू बीजे शुरू कराओ। जय श्री कृष्ण।  एमने के तमे खास्कि न खास्कि ज्ञान यश मळे ते अरे हा गळ आ गळया। हने सेवा करवा नु आते बीजा लोकों कर ते सेवा में भली वारनि ने तमार ह्रदय साचा सक्नु भली वर्णी ने।

 

जो बेईमानी से सेवा का यश लेना चाहते उन बेईमानो को सच्चा सुख मिलता भी नहीं है।  काम तो कोई करे और यश का अवसर आये तो खुद हार पहनाने को खड़े हो गए।  क्योंकी हार बदले में गले में पड़े …. अरे हार तो हार ही है भाई! जय राम जी की। अगर ईमानदारी से सच्चाई से सेवा करते तो अहंकार को हरा दे। अगर बेईमानी से तुम फुलहार चाहते हो तो खुद को ही हरा रहे हो।

सत्यम शिवम सुन्दरम। और जो सत्य है वही शिवकल्याणकारी है और वही सुन्दर है तो हृदय को सुन्दर बनाने के लिए सच्चाई से सेवा करे। सच्चाई से ईश्वर के हो और सच्चाई से गुरु के हो। सच्चाई से समाज के हो। समाज का, गुरु का, ईश्वर का विश्वास संपादन कर लेता है सेवक। गुरु कहेगा की मेरा सेवक है ये ऐसा भद्दा काम नहीं कर सकता है।  ये मेरा सेवक है। गुरु को संतोष होना चाहिए की ये मेरा सेवक है। ईश्वर को संतोष होना चाहिए की ये मेरा जीव है इतना घटिया काम नहीं कर सकता है। समाज को विश्वास होना चाहिए की ‘फलानो भाई …ना ना वो न हु अबिदु झूठु छे ‘ सेवक पर आरोप भी आएंगे।  सेवक यशस्वी होगा, उन्नत होगा उसको  देखकर लोग ईर्षा भी करेंगे, दाह भी आयेंगें, आरोप भी करेंगे और विघ्न भी आएंगे। लेकिन ये विघ्न,  ये आरोप , ये दाह सेवक की क्षमताएं विकसित करने के लिए आते है ऐसा सेवक को सदैव याद रखना चाहिए। और फिर सेवक को सुबह उठकर अपना आत्मबल बढ़ाना चाहिए।  लम्बे श्वास ले प्राणशक्ति को बढ़ाये, भावशक्ति को बढ़ाये, क्रियाशक्ति को बढ़ाये ऎसा ध्यान सीख लेना चाहिए। ऐसा ध्यान करना चाहिए। तो और सेवा में चार चाँद लग जायेंगे। हरी ॐ।

 

हरी ॐ।  बुद्धि से तत्त्वनिष्ठ हो।  मुक्त अवस्था को इस जन्म में ही पाओ। आत्मबल जगाओ। सेवा को सुन्दर बनाने का संकल्प बढ़ाओ। सच्चा सेवक दुःख मिटाने की चिंता नहीं करता,वो तो सुख बाटने  में लग जाता है तो दुःख अपने आप भाग जाता है लोगोंका। सुख बाटने की कोशिश करने वाला सेवक सुखी होता जाता है। दुःख मिटाना ही सेवा नहीं सुख बाटना सच्ची सेवा है। जब सुख बांटे तो दुःख रहेगा कहाँ? और सुख बांटोगे तो सुख खुटेगा क्यों? जिनके जीवन में सेवा का सदगुण नहीं।  जिनके पास संपत्ति है , जिनके पास शक्ति है, जिनके पास योग्यता होते हुए भी सेवा नहीं करते वे आलसी है। वे प्रमादी है।  वे सुख के आसक्त है। वे अहंकार भोगी है। वे अहम पोषक है। जिनके पास शक्ति , संपत्ति,योग्यता, मति ,गति है अगर वे लोग उसका सदुपयोग सेवा में नहीं करते तो वे चीज़े उनको संसार के जन्म मरण में बांधती रहती है। सेवा चाहता वे दुःखी? ….ना ना सेवा चाहने वाला दुखी नहीं होता है सेवा लेनेवाला दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है सेवा करना चाहता है वो सुखी होता है लेकिन जो सेवा का लाभ लेना ही चाहता है या बदला चाहता है वो दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है, सत्कर्म चाहता है दूसरों की सेवा करना चाहता है वो सुखी रहता है।   चाहे बाहर से उसके पास साधन कम हो फिर भी अंतकरण से वो सुखी रहता है राजा रहता है।

 

हमेशा के लिए रहना नहीं इस धारे पानी में।  कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की जिंदगानी में।

तन से सेवा करो जगत की मन से प्रभु के हो जाओ। शुद्ध बुद्धि से तत्वनिष्ठ हो जाओ मुक्त अवस्था को तुम पाओ।

निस्वार्थ सेवा हो सदा मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ  से।

 

द्वेष को, कपट को ,अहंकार को त्यागकर संघटित होकर सेवा करो ऐसा स्वामी विवेकानंद बोला करते थे। समाज को आध्यात्मिकता  की आवश्यकता है।  समाज को स्नेह की आवश्यकता है।  समाज को स्वास्थ की आवश्यकता है। समाज को अच्छे संस्कार पोषने की आवश्यकता है और समाज को अच्छे में अच्छे पिया के प्रेम बाटने वाले सेवकों की आवश्यकता है।  और यही उम्मीद आशाराम अपने साधकों से करेगा। हरी ओम ओ ओम ओम।  राम….

 

ऐसी शक्ति देना ओ मेरे ओलिया के मैं दुनिया में दिल बहार करता रहूँ। जो  कोई मुझसे मिले में निहाल करता रहूँ।  ऐसी शक्ति मुझे देना मेरे ओलिया ! राम…..

हे आनंददाता तेरी जय हो

हे सुखदाता तेरी जय हो

हे प्रेमदाता तेरी जय हो

हे परमेश्वर तेरी जय हो

मारा वालूड़ा तेरी जय हो

मारा गुरुदेव तुम्हरो जय हो

मारा लीलाशाह बापा थारो जय हो

मारा सदगुरु ना सदगुरु तुम्हरो जय हो

हरी ओम ओ ओ ओम

“भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीना जा नाथ तू  मेहर कर रहण सब

भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीन जा नाथ प्रभु मेहर कर रहन तू ‘ ये मेरे गुरुदेव गया करते थे।

“लीले के लालन हण रख जाई सांण तू।  भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीन जा नाथ प्रभु मेहर कर रहन तू।

सब जा सतार साईं वाली सारे जग जा लीले के लालन हण रख जई सांण तू। भारत जो भलो कर… डा डा डा डा डा डा डा कैसा है?” ऐसा बोलते थे और सदा मस्त रहते थे।

मस्ती बाटने  वाले उस दाता तुम्हारी जय हो। मेरे सदगुरु देव तुम्हारी जय हो। हरी हरी ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।

 

पुस्तको की गठरी उठाके जाते थे नैनीताल के गावों में। एक पहाड़ से उतर के दूसरे पहाड़ पर। गाव बसा है वहां जा रहे। गाव के लोगों को इकट्ठा करते।  उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है वो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा के गठरी बाँध कर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था…पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था।  तो सामने नीचे तलेठी में भी गाव था और दूसरी पहाड़ियों पे भी गाव।  कभी किसी गाव में जाते।  सौ दोसौ के खपड़े के गाव थे। कभी किसी  गांववालों को इकट्ठा करते।  प्रसाद  देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो नारी धरम जैसी पुस्तके। और युवान हा तो यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की ओर ‘ जैसी पुस्तके। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तके। भक्तों की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। आते और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ।  आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तब तक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंगे तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे याद रहे वो लिख लेना, हो सकता है की मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक  तुम्हारे से मैं ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा। ऐसा करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गावों गावों जाकर पुस्तक बाटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज  गाव गाव  ऋषीप्रसाद रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है सेवा का । उन्ही की ही तो प्रेरणा है  की हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धनभागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है। वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ? हरी हरी ओम ओ ओ ओम

 

यह तन काचा कुम्भ है, यह तन काचा कुम्भ है

फुटत न लागे बाट, फुटत न लागे बाट।

फटका लागे फूटी पड़े, फटका लागे फूटी पड़े

गर्व करे वे गवार, गर्व करे वे गवार।।

पानी  केरा बुलबुला, पानी  केरा बुलबुला

यह मानव की जात, यह मानव की जात।

देखत ही छुप जात है, देखत ही छुप जात है

ज्यों तारा प्रभात, ज्यों तारा प्रभात ।। 

तो क्या करोगे ? हरी हरी ओम ओ ओ ओ ओ ओम ओम ओम। राम

 

कभी रोग का चिंतन न करो।  कभी शत्रु का चिंतन न करो।  कभी द्वेष के विचार को न आने दो। शत्रु की गहराई में छिपा मित्र ऐसा चिंतन करके शत्रु से यथा योग्य सावधानी से जीना पड़ता है युक्ति से, लेकिन उसका बुरा न चाहो। फिर देखो शत्रु तुम्हारे देर सबेर या तो तुम्हारे मित्र हो जायेंगे या प्रकृति उनको घुमा घुमा कर देगी। दे धमाधम करके देगी। ये ईश्वर का दैवी विधान है। हरी ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम

गीतगोविन्द के कर्ता जयदेव जी ने कथा की और दक्षिणा मिली।  दक्षिणा लेके गए रास्ते में डाकू ने छीन लिया और गीत गोविन्द के कर्ता जयदेव को कुँए में फेक दिया उंगलिया काट कर। जयदेव वहां भी गीत गोविन्द के गा रहा है। राजा घूमने निकला और राजा ने आवाज सुना की ये जयदेव जी प्रभु है खुद।  कुँए के नजदीक आये और आदमियों द्वारा निकला जयदेव जी को और ऐसी स्थिति किसने की ऐसा पूछा।  बहुत पूछने पर भी जयदेव ने नहीं बताया तो राजा की बड़ी श्रद्धा हो गयी। राजा अपने राजमहल के सात्विक खंड में जयदेव को रखता और सेवा श्रूषुसा करके जयदेव को स्वस्थ कर दिया। जयदेव की अध्यक्षता में राजा ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में सत्संग हो, भजन हो, कीर्तन हो, होम हवन हो, ध्यान हो आदि और पूर्णहुती जयदेव के  हाथ से हो और साधु संतों को दक्षिणा भी जयदेव की प्रेरणा से बटेगी। जब साधु आंतों को दक्षिणा बाटनेका दिन आया तो वो जो चार डाकू थे चोर थे वे भी साधुओं का वेश लेकर आये दक्षिणा लेने की लाइन में। नजिक आकर देखते की अरे ये तो जयदेव जिसको हमने पैसे छींन कर कुएँ में फेका था उँगलियाँ काट के । जयदेव की नजर उनपर पड़ी और उनकी नजर जयदेव पर पड़ी। गीतगोविन्द के कर्ता जयदेव बड़े प्रसिद्ध पुरुष हो गए। अब उनको कहीं सुकड़न न हो दुखी न हो ऐसा समझ कर जयदेव ने अपनी ओर से ही बुलाके के ‘राजन ! ये मेरे चार मित्र है। उन डकैतों ने समझा की ये अब ये हमारी पोल खोलेगा। लेकिन जयदेव ने पोल नहीं खोला और मित्र के भाव से ही सारा व्यवहार किया। उनको दान दक्षिणा खूब दिलाई। राजा ने देखा की जयदेव के मित्र है और साधु है तो हो सकता है की आपको दक्षिणा दीया था और आपको लूट लिया तो इन साधु बाबाओ को ना कोई लूट ले इसलिए मैं एक सिपाहियों की  टुकड़ी भेज देता हूँ।  ये लोग जहाँ से आये उनको पहुंचा दे। सिपाहियों की टुकड़ी लेकर सिपाहिओं का अगवा  उन लूटेरों को साधु वेश में आये थे साधु समझकर कर पहुँचाने  गए थे तो रास्ते में पूछा की जयदेव तुम्हारा इतना सत्कार क्यों करता है ? तो उन बदमाशो ने कहाँ की जयदेव की हम पोलपट्टी जानते है। जयदेव हमारे गावों का है और उसने बड़ी चोरी की थी तो राजा ने उसको मार काट के कुएँ में फेकने का आदेश दिया था लेकिन हमने उसको बचाया इसलिए हमारा कही पोल न खोले जयदेव ऐसा सोचते इसलिए हमारा अगदा-स्वागता करते। ऐसा झुठ बोला। जयदेव ने तो सज्जनता की लेकिन दुर्ज्जन का स्वभाव् है तो फिर …….साप का स्वाभाव है की विष बनाना, दुर्जन ने तो दुर्ज्जनता बनायीं। जयदेव को तो पता नहीं लेकिन जो सबके दिल का पता रखता है उस दिलबर से सहा नहीं गया। सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया। जहाँ वो बोलकर वाक्य पूरा करते है, जयदेव की ग्लानि करते, निंदा करते, वहां चलते चलते वो धरती वहां से फटी और चारों के चारों बदमाश जो साधु का वेश बनाके जयदेव से ईर्षा करते थे वे चारों बदमाश  वहां हि रीवा रीवा के मर गए। टुकड़ी वापस आई और राजा तक बात पहुंची, राजा ने जयदेव के पैर पकड़े की ‘महाराज! हकीकत क्या है ? ‘ महाराज ने कहाँ की मैंने समझा की इन्होने लूटा है तो इनको जरूरत होगी चलो लगये फिर आये तो उनको सुकड़न न हो इनका मंगल हो भला हो  इसीलिए इनका सत्कार भी किया और दक्षिणा भी दिलाई ताकि ये सुधर जाये।  लेकिन महाराज उस ढंग से नहीं सुधरे तो प्रकृति ने दंड के ढंग से उनको सुधारने का ही तो काम किया है ईश्वर ने। तो सेवक में इतनी शक्ति होती है की सेवक अपनी सेवा में विफल होता है।  ईमानदारी से सेवा करता है और विफल होता है तो स्वामी परमात्मा फिर उसको साहाय्य करता है।  जहाँ दंड की जरूरत है वहां दंड भेज देता है और जहाँ पुरस्कार की जरूरत है वहां पुरस्कार भेज देता है। सृष्टि कर्ता के ह्रदय में सबका मंगल छुपा है। ऐसे ही सेवक के ह्रदय में सबका मंगल छिपेगा , मंगल छुपा रहेगा सबक तो सृष्टि कर्ता के साथ अपने स्वाभाव का ताल मेल करके बहुत सुखी और उंचाईओं का अनुभव कर सकता है। तो अभी क्या करेंगे? हरी ही ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।

 

राम राम

निस्वार्थ सेवा हो सदा। मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ से।

हमेशा के लिए रहना नहीं इस दारे पानी में।  कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की ज़िंदगानी में।

 

शक्ति , संपत्ति और योग्यता होने पर भी जो सेवा नहीं करते वे आलसी प्रमादी है।  सुख आसक्त है और भाग्य हीन है। जो मनुष्य जन्म पाके सेवा का भाग्य नहीं पाते वे भाग्यहीन है।  किसी के दुःख मिटाने के बदले उसको सुखी करने का पौरुष करने वाला सेवक ज्यादा सफल होता है। और जो सुख देने की भावना से सेवा करता है तो दुःख तो मिटा ही देगा। दुःख मिटाना पर्याप्त नहीं उसे सुखी करना उसे प्रसन्न करना और सच्चे सुख की राह पे लगा देना ये बहुत बहुत ऊँची सेवा है। सेवा चाहो मत सेव करो उत्साह से। सेवा का फल चाहना सेवा धर्म को भ्रष्ट करना है। सेवा के फल को तुच्छ करना है। हमें तो कुछ नहीं चाहिए। जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सब कुछ जिसका है वो खुद मिल जाता है।

बलि देता ही जाता है कुछ नहीं चाहता है तो सब कुछ जिसका है वही वामन होके आता है। उससे भी कुछ नहीं चाहता है तो वामन उनका द्वारपाल हो जाता है। भगवान वामन बलि राजा का द्वारपाल हो जाता है। जिसका द्वारपाल भगवान है उसको कमी ही क्या रहेगी? शत्रु उनका क्या बिगाड़ेंगे? ऐसे ही तुम्हारे इन्द्रियों के द्वारपाल श्री हरी को कर दो। हे मेरे परमात्मा ! तुम ही रक्षक रहिये। तुम ही प्रेरक और पोषक रहिये। हे मेरे नाथ ! मेरे गुरु, मेरे हरी, मेरे इष्टदेव! प्रभु तेरी जय हो !      हरी ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।  राम राम।  खूब आनंद ! मधुर आनंद !आत्मिक आनंद परमेश्वरिय आनंद का भाव करो। मस्ती…. माधुर्य….विश्रांति मैं सदा स्वस्थ हूँ।

क्यों बीमारी देखत ही छुप जात है मुझ तक कभी आती ही नहीं मैं वो चैतन्य आत्मा हूँ।  मैं सदा सुखी हूँ क्यूंकि दुःख मेरे तक कभी पहुंचता ही नहीं है। कभी कभी मन को छूता है मुझको कभी नहीं छूता। में अमर हूँ।  मौत शरीर तक आती है मुझ तक मौत की दाल नहीं गलती। मैं ईश्वर का ईश्वर मेरे ! मैं गुरु का गुरु मेरे। ईश्वर और गुरु सद्चिदानन्द स्वरुप है तो मैं भी उन्ही का चिंतन, अनुसरण और उनकी प्रसन्नता से मैं भी वही हुए जा रहा हूँ। खूब आनंद , मधुर आनंद, सद्चिदानन्दमय आनंद। वाह मौला! तेरी जय हो! प्रभु तेरी जय हो।

 

मधुरं मधुरे भ्योपि मंगले भ्योपि मंगलम।

पावनं पावने भ्योपि हरे नामैव केवलम।

 

हरी हरी ओम ओ ओ ओ ओ ओ ओम।  राम राम

 

मधुर शांति अथवा तो मधुर शांति में शांत होते जाओ नहीं तो श्वासोश्वास को गिनाते जाओ अथवा तो मन के विचारों को देखते जाओ नहीं तो जो सत्संग सुना है उसी को अपना बनाते जाओ।

 

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