ऊँचे-में-ऊँचा है गुरु तत्त्व का प्रसाद ! – पूज्य बापू जी

ऊँचे-में-ऊँचा है गुरु तत्त्व का प्रसाद ! – पूज्य बापू जी


कोई सोचता है कि ‘मनपसंद व्यञ्जन खाऊँगा तब सुखी होऊँगा,’ कोई बोलता है, ‘धन इकट्ठा करूँगा तब सुखी होऊँगा’, कोई सोचता है कि ‘सत्ता मिलेगी तब सुखी होऊँगा’ लेकिन आद्य शंकराचार्य जी ‘श्री गुर्वष्टकम्’ में कहते हैं-

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं

यशश्चारू चित्रं धनं मेरूतुल्यम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।

गुरु तत्त्व के गुरु प्रसाद में अगर मन नहीं लगा तो राज्य, धन, सौंदर्य मिल गया तो क्या हो गया ? चारों तरफ वाहवाही मिल गयी तो क्या हो गया ? और ज्यादा बेवकूफ बन गये। ‘मेरी वाहवाही है, मेरा नाम है !…’ लोगों ने वाहवाही की और शरीर को सुविधा दे दी तो अहंकार, आसक्ति बढ़ी, और क्या मिला ? चाहे कुछ भी मिल जाय, कितना भी नाम हो जाय, कितनी भी सुविधा मिल जाय फिर भी असली माँग, असली प्यास नहीं मिटती है यह भगवान की कृपा है।

प्रसिद्ध लोग भी सुख चाहते हैं। इतना नाम होने के बाद भी आनंद चाहते हैं। तो वाहवाही के, सुविधा के, धन के, स्वर्ग के सुख से भी कोई ऊँचा सुख है, कोई सच्चा सुख है, जिसकी माँग बनी रहती है,  वह गुरु-तत्त्व का, गुरु प्रसाद का सुख।

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।।

‘जिस पद की इच्छा करते हुए इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता दीन हो रहे हैं, उस पर स्थित हुआ भई योगी हर्ष को प्राप्त नहीं होता – यही आश्चर्य है।’

इन्द्र के आगे तो धरती का वैभव कोई मायना ही नहीं रखता। जैसे चक्रवर्ती सम्राट के आगे एक बकरी चराने वाले व्यक्ति की क्या कीमत होती है ! ऐसे ही इन्द्र के वैभव के आगे धरती का सारा वैभव भी तुच्छ है। ऐसे शक्राद्याः माना इन्द्र से लेकर सब देवता, जिस पद को पाये बिना दीन हैं, उस आत्मपद में स्थित योगी ऐसे ऊँचे परमात्मपद को पा के भी अहंकार नहीं करता, यह भी आश्चर्य है।

अहंकार करेगा तो दूसरे से करेगा, उसको तो अनुभव हो गया कि ‘सब मेरा ही स्वरूप है।’ ईश्वर और उसके बीच का अज्ञान नहीं रहता। सच्चिदानंद ब्रह्म और उसके बीच का अज्ञान गुरु कृपा से, गुरु-प्रसाद से मिट जाता है। वैसे तो कृष्ण के दर्शन हो रहे थे अर्जुन को, फिर भी अपना जीवत्व था तो अर्जुन बेचारे, बेचारे-से लग रहे हैं। हालाँकि वे बेचारे नहीं थे, कितने महान व्यक्तित्व के धनी थे ! सशरीर स्वर्ग जाने का सामर्थ्य था, दिव्यास्त्र लाये। इस जगत की सुंदरी भी जवानों को बहा ले जाती है लेकिन स्वर्ग में उर्वशी, अप्सराओं में महारानी जैसी, उसने संसार भोगने का आग्रह किया परंतु अर्जुन ने संयम का परिचय दिया। उर्वशी ने श्राप दे दिया कि ‘एक वर्ष तक तुम नपुंसक रहो।” वह श्राप सह लिया पर संयम नहीं छोड़ा। इतने ऊँचे संयम के धनी थे ! ऐसे अर्जुन ने भी जब तक गुरु-तत्त्व का, भगवत्-तत्त्व का अनुभव नहीं किया, भगवान श्रीकृष्ण को बाहर तो देखते हैं लेकिन श्रीकृष्ण सर्वव्यापक सच्चिदांद ब्रह्म हैं, आत्मरूप में ‘मैं’ ही वह हूँ और वह ही मैं है – यह अनुभव नहीं हुआ तो अर्जुन को उपदेश की, सत्संग की जरूरत पड़ती है। ‘गुरुग्रंथ साहिब में आता हैः

बाणी गुरु गुरु है बाणी विचि बाणी अंम्रित सारे।।

गुरु के अनुभव की वाणी वही गुरुस्वरूप हो जाती है और उसी में सारा अमृत होता है। उसके आगे स्वर्ग का अमृत भी छोटा हो जाता है। उसके आगे स्वर्ग का अमृत भी छोटा हो जाता है। स्वर्ग का अमृत पीने से, उपभोग करने तो पुण्य खर्च होते हैं लेकिन गुरु की वाणी, सत्संग और आत्मनोन्नति का अमृत पीने से पुण्य बढ़ते हैं, पाप नष्ट होते हैं, जीवन स्वतंत्र होने लगता है।

गुरु की जितनी महिमा है उतनी गुरुओं की ऊँचाई भी होनी चाहिए, उतनी गुरुओं की जिम्मदारी भी है। सारी धरती का राज्य मिल जाय और गुरु के चरणों में प्रीति नहीं है तो वह मूर्ख है। चारों तरफ यश है, चँवर डुलाने वाले लोग हैं और आप जरा सा बोलते हो, विश्व के लोग आपको सुनते हैं, मानते हैं लेकिन आपकी गुरु-तत्त्व में, गुरु के चरणों में प्रीति नहीं है तो आखिर आपने क्या पाया ? तो यह गुरु-तत्त्व कितना ऊँचा होगा ! गुरुचरण (आत्मानुभूति) कितने ऊँचे हैं !

मेरे गुरुदेव हँसी-हँसी में ऐसी ऊँची बात कह देते कि

गोपो वीझी टोपो गिस्की वेठो गादीअ ते.

गोपा गुरुपद का टोपा डाल के गद्दी पर बैठ गया  कि “मैं भी गुरु हूँ” लेकिन गुरुओं की कमाई तो करनी पड़ती है।

गुरु-तत्त्व, परमेश्वर को पाना होता है न, हम तो रात्रियाँ जगह हैं। गुरुओं के उपदेश को राम जी सुनते और रातभर विचार करते। प्रभात को फिर संध्या करते और कथा में पहुँचते थे। भगवान भी गुरुपद के आगे शिष्य बन जाते हैं। ऐसा गुरुपद कोई मजाक की बात नहीं है। यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी ऊँचा पद है। गुरु साक्षात् परब्रह्म हैं। ब्रह्माजी ने तो बाहर का शरीर दिया किंतु गुरुदेव ने हमको ज्ञान का वपु (शरीर) दिया। विष्णु जी बाहर के शरीर का पालन करते हैं लेकिन गुरु जी हमारे ज्ञान को  पुष्ट करते हैं। हमारे “मैं” को, हमारे चैतन्य वपु को ब्रह्ममय उपदेश दे के पुष्ट करते हैं। शिवजी तो बाहर के ‘कचरा (मलिनता भरे) शरीर’ को मारकर नये की परम्परा में ले जाते हैं लेकिन गुरु जी तो जन्म-जन्मांतर के संस्कारों की सफाई करके हमें शुद्ध स्वरूप में जगाते हैं। तो गुरुदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश की नाईं हमारे अंदर इतना परिवर्तन करते हैं फिर भी रूकते नहीं, वे अपने स्वरूप का दान दे देते हैं- ‘जो मैं हूँ वह तू है।’ तो ब्रह्म-परमात्मा से अपने को अभिन्न अनुभव करना यह गुरु तत्त्व का प्रसाद पाना है।

कहाँ तो अनंत ब्रह्मांडनायक परमेश्वर और कहाँ एक हाड़-मांस के शरीर में रहने वाला चेतन लेकिन ‘शरीर मैं हूँ’ यह भ्रांति मिटते ही अनंत ब्रह्मांडनायक के साथ एका करा देते हैं गुरुदेव। ऐसे गुरुदेव को मेरा और आप सभी का नमन, नमन !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 293

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