सात्विक श्रद्धा में ज्ञान टिकता है!

सात्विक श्रद्धा में ज्ञान टिकता है!


बड़े-बड़े महलों में रहने से आदमी बड़ा नहीं होता, बड़े भाषण करने से आदमी बड़ा नहीं होता अथवा आकाश में हेलीकॉप्टरों में, हवाई जहाजों में उड़ने से आदमी बड़ा नहीं होता, बड़े विचारों से आदमी बड़ा होता है। छोटे विचारों से आदमी छोटा होता है। ब्रह्म के विचार करो “मैं कौन हूँ? यह शरीर आखिर कब तक रहेगा? ये संबंध कब तक रहेंगे? मैं नित्य हूँ, ये अनित्य है। मैं एकरस हूँ, ये अवस्थाएँ बदलने वाली है। मन भी बदलता है, बुद्धि के निर्णय भी बदलते है, मैं अ-बदल हूँ, वह कौन हूँ? सत्संग में सुना है कि अ-बदल तो आत्मा है, तो मैं वही हूँ, ये बड़े विचार है। तो फिर अ-बदल में टिकने का अभ्यास करो, महान बन जाओगे! ऐसे महान, ज्ञानवान, अलग-अलग प्रारब्ध है, अलग-अलग अपनी मौज है। कई ऐसे ज्ञानवान है जो कंदराओं में बैठे है, समाधि कर लिया, स्वरूप को जानकर उसमें विश्रांति…। कई ऐसे है कि लीला करते है, उपदेश करते है। कई ऐसे है विनोद करके जीवन बिताते है, कई पागलों का वेश धरकर बैठे है। कई ऐसे ज्ञानवान है जो नित्य-नियम, जप-तप, कर्म करते है वैसे व्यवस्थित ताकि दूसरे लोग भी उधर की तरफ मुड़ जाएँ, कईयों का ऐसा स्वभाव होता है। कई ज्ञानवान अपने-अपने ढंग से बोध होने के बाद शेष जीवनयापन करते है लेकिन स्वरूप में जग गये, एक बार परमात्मा का दर्शन हो गया, ज्ञान हो गया फिर सारी प्रकृति, सारी परिस्थितियाँ उनके लिए खिलवाड़-मात्र हो जाती है, विनोद-मात्र हो जाती है।


आश्चर्यो त्रि‍भुवनजयी… श्रुति कहती है वो आश्चर्यकारक है। बाले बालवतां यूवे युवा… बच्चों में बच्चों जैसा, युवानों में युवाओं जैसा, गरीबों के साथ गरीबों जैसा, अमीरों के साथ अमीरों जैसा लेकिन अंदर से समझता है कि सब खेल है। अभ्यास करते है तो आत्मज्ञान होना कोई कठिन नहीं है। अभ्यास के बल से ही तो मैं ‘ब्राह्मण’ हूँ, मैं ‘वैश्य’ हूँ, मैं ‘क्षत्रिय’ हूँ, मैं ‘जीव’ हूँ, मैं ‘फलाने का बेटा’ हूँ, मैं ‘फलाना भाई’ हूँ… ये सुन-सुन के तो माना है।  म्‍हारो नाम मंगुबा, म्‍हारो नाम अमथालाल…म्‍हारो नाम मफतलाल… अब मफतलाल क्‍या.. बचपन में पड़ा नाम मफतलाल सुन-सुन के पक्का हो गया। सौ आदमी सो रहे है, “ऐ मफतलाल!”  हाश… ये भी तो अभ्यास से ही पड़ा है, जो भी नाम पड़ा है, जो भी जिसका… ऐसे ही अपने आत्मा में जगने का अभ्यास करो तो वही नाम… ॐ ॐ ॐ ॐ


दुराचार, अश्रद्धा या फाँका(अहंकार) ऐसा दुर्गुण है कि उसमें सब योग्यता नाश हो जाती है। अहंकार जो है.. फाँका…ऐसा दुष्ट है कि उसमें सब सदगुण नाश हो जाते है और श्रद्धा ऐसा सदगुण है कि उसमें सब दुर्गुण बह जाते है। श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक, राजसी, और तामसी। सात्विक श्रद्धा एक बार हो गई, नहीं डिगेगी, उसमें ज्ञान बढ़ जाएगा। जो वचन सुनते ही गुरु के, जिसमे श्रद्धा है, श्रद्धेय के वचन सुनके… समझो मेरी मेरे गुरूदेव में श्रद्धा है , सात्विक श्रद्धा है तो उनके वचन सुनूँगा… बस! मैं अपने जीवन को ऐसे ढाल दूँगा; ये सात्विक श्रद्धा ज्ञान पैदा कर देती है। सात्विक श्रद्धा जिसमें करेंगे उसके सब गुण अपने में आ जाएँगे। भगवान विष्णु में श्रद्धा है, भगवान विष्णु का जो सामर्थ्य है, जो अंतर्यामीपना है वो अपने में आ जाएगा। भगवान विष्णु को अपने स्वरूप का बोध है, अपने को भी होने लगेगा, ऐसा गुरू मिल जाएगा। सात्विक श्रद्धा जो है एक बार हो गई तो हो गई! ज्ञान कराके छोड़ेगी। सात्विक श्रद्धा चाहे हजार मुसीबत आ जाए, हजार प्रतिकूलता आ जाए, श्रद्धेय व्यक्ति का बाह्य आचरण नहीं देखती। श्रद्धेय व्यक्ति के आदेश को… सात्विक श्रद्धा ऐसी है कि जिसमें हम श्रद्धा करते है उसके दोष नहीं दिखेंगे, उनका ज्ञान हमको हजम होगा, उनके प्रति फरियाद नहीं होगी। मेरी सात्विक श्रद्धा है जिसमें तो उसके प्रति मेरे दिल में फरियाद नहीं होगी, जैसे सुदामा… सात्विक श्रद्धा थी। कृष्ण ने दुशाला छीन लिया, नँगे पैर रवाना कर दिया, खाने को कुछ था नहीं, माँगने को आया, एक कौड़ी भी नहीं दी श्रीकृष्ण ने, जो दुशाला दिया था वह भी वापस ले लिया तब भी सुदामा कहता है कि आहा भगवान कितने दयालू हैं! साथ में पढ़े थे, मेरे मित्र है, मेरे मित्र कितने दयालू है प्रभु! मैंने माँगा धन, संपत्ति ,रोजी-रोटी लेकिन कहीं रोजी-रोटी के मोह में फँस न जाऊँ इसलिए  मेरेको कुछ नहीं दिया! कितनी दया किया! बड़े अच्छे है! ये सात्विक श्रद्धा है। …और जब घर पहुँचते है तो सुशीला सज-धजकर महारानी जैसी होकर आ रही है दासियों के साथ। पूछते है कि तू कैसे बदल गई एकदम? झोपड़ी के जगह पर महल! सुशीला ने कहा तुमने वहाँ प्रार्थना की और भगवान ने यहां ऋद्धि-सिद्धियों की सब लीला करके अमीरी में बदल दी! बोले- प्रभू कितने दयालू है.. मेरा भक्त रोजी-रोटी की चिंता में कहीं भजन न भूल जाए इसलिए ऐसा कर दिया। सब छीन लिया तभी भी वाह वाह..सात्विक श्रद्धा ऐसी है! वो अपने ज्ञान का उपयोग करके सही अर्थ लगा देगी! राजसी श्रद्धा.. जबतक आपके अनुकूल चला थोड़ा- बहुत ठीक चला थोड़ा पुचकार ये वो तो राजसी श्रद्धा टिकेगी नहीं। जहाँ थोडा-सा उन्‍नीस-बीस हुआ कि.. मेरा क्या दोष है !!…ऐसे हिलेगी। तामसी श्रद्धा जो है वो तो थोडा-सा उन्‍नीस-बीस हुआ ,विपरीत हो जाएगा ! दुश्मन बन जाएगा श्रद्धेय का! कई लोग ऐसे होते है तामसी प्रकृति के कि भगवान शिव की पूजा करेंगे, देखेंगे कि इच्छा पूरी नहीं हुई , शिवजी का फ़ोटो- वोटो फेंक देंगे।कई लोग देवी-देवताओं के फोटो रखते है, पूजते है, फिर अपनी इच्छा के अनुसार उनका नहीं हुआ तो वो देव को छोड़ के दूसरे देव को, दूसरे देव को छोड़ के तीसरे देव को ..और सात्विक श्रद्धा है तो बस! लग गया तो लग गया! और उसको गुरू के वचन भी ऐसे लगेंगे जैसे शुद्ध वस्त्र को केसर का रंग चढ़ता है। सात्विक श्रद्धा ऐसी चीज है! अगर सात्विक श्रद्धा है तो स्वाभाविक होगा, और स्वाभाविक नहीं होता है तो फिर ऐसा करने से सात्विक श्रद्धा हो जाएगी। ज्ञान का साधन है कि पुण्य क्रिया करें, दूसरों को सुख पहुँचाएँ.. जैसे अपने शरीर को दुःख के समय दुःख होता है ऐसे ही दूसरों को दुःख न दे। जप, व्रत, नियम, शास्त्र-पठन, सत्पुरुषों का सानिध्य, उनके वचनों में विश्वास… ऐसा सब करने से सात्विक श्रद्धा होने लगती है। ये ब्रह्मविद्या का साधन है आत्मज्ञान पाने का। जो आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे तैंतीस करोड़ देवताओं का पद कुछ नहीं! जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे इंद्र का राज्य कुछ नहीं! जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे योग समाधि से हजार वर्ष के बनकर कोई बैठे है वो भी कुछ नहीं! आत्मज्ञान एक ऐसी चीज है! हजारों वर्ष की समाधि करके बड़े योगी बैठे है लेकिन आत्मज्ञान नहीं है तो कुछ नहीं! एक दिन वो  फिर नीचे आ जाएँगे! आत्मज्ञान हो गया, बेड़ा पार! तो ये आत्मज्ञान का साधन है… संतों की संगति, सत्शास्त्रों का विचार। कभी कभी लोग धैर्य छोड़ बैठते है।ईश्वर के रास्ते जो आदमी चलता है न …धैर्य न छोडे तो पहुँच जावे, धैर्य छोड़ देते है…कि किसको साक्षात्कार हुआ? इसको तो नहीं हुआ! इसको तो भी नहीं हुआ इसको भी नहीं हुआ! लेकिन …जन्म-जन्म मुनि जतन करहि…जन्म-जन्म तक मुनि जतन करते थे ऐसे लोग आत्मज्ञान पाकर धन्य धन्य हो जाते थे ! अपने को 4 दिन में, 2 साल में, 1 साल में …इतना प्रयत्न नहीं तीव्र क्योंकि  अभीतक कुछ नहीं हुआ! अभी तक कुछ नहीं हुआ! तो कई लोग ऐसे होते है! अच्छा खाओ, पीओ, मौज करो!


तो गुठली डालके, मिट्टी डालके,पानी पिलाके छोड़ देना चाहिए, कुछ समय जम जाए! अब गुठली डालना क्या है? कि ब्रह्मज्ञान का सत्संग महापुरुषों से सुनकर हृदय में रख देना चाहिए। सत्संग सुनके बंदर जैसा गुठली रखके मिट्टी डाला और फिर निकाले तुरंत! गुठली डालके छोड़ देना चाहिए। ऐसे ही संस्कार डालके उसको रख देना चाहिए संस्कार…संस्कार फिर खुले नहीं , जो सुना है ज्ञान का संस्कार उसको जमाना चाहिए। फिर उसको पानी पिलाना चाहिए.. नित्य सत्संग करते रहना ये पानी पिलाना है। सत्संग, सेवा, परोपकार ये उसको पानी पिलाना है !  गुठली में से छोड होता है लेकिन जानवर खा जाए तो? आम नहीं मिलेगा । उसकी रक्षा करना ..रक्षा करना क्या है कि गधा खा न जावे, बकरी उसको चर न जावे, भैंस उसको लपका न मार दे, ऊँट उसको पैर से कुचल न दे ..इसके लिए बाड़ करनी पड़ती है, जानवर आवे नहीं…. खेती में बाड़ करते है न! नहीं करो तो सफाया!
ऐसे ही यह ब्रह्मज्ञान की खेती में बाड़ करने के लिए – अहंकार तो नहीं घुसता गधा? दुष्‍चरित्र  विकार तो नहीं घुसते?
पापाचरण तो नहीं घुसता ?नहीं तो ये पौधा खा जाएँगे! उसकी रक्षा करनी पड़ती है। जैसे पौधे की रक्षा के लिए बाड़  है और जानवरों से बचाव है ,ऐसे ही इसमें खबरदारी की, विवेक की बाड़ बनानी पड़ती है कि लोभ, मोह, विकार वाहवाही ये कहीं हमारा पौधा उखेड़ तो नहीं देगी?

मान पुड़ी है जहर की खाए सो मर जाये… कोई मान में गिरते है, कोई काम में गिरते है, कोई लोभ में गिरते है, कोई मोह में गिरते है। तो ये सब जानवर है। जानवर जैसे पौधा खा लेता है ऐसे ही ये विकार हमारा साधनारूपी पौधा चट कर देते है। …तो धैर्य होना चाहिए, धैर्य के साथ खबरदार। जिसकी सात्विक श्रद्धा होती है उसके अंदर ये गुण अपने आप आ जाते है।


सात्विक श्रद्धा वाले को तो… एकनाथ लगा रहा तो लगा रहा, दिन-रात एक कर दिया बारह साल। जनार्दन स्वामी गृहस्थी है कि साधु है, वो नहीं देखा। राजा के पास नौकरी करते है कि संन्यासी, वो नहीं देखा। बस मेरे गुरू है बात पूरी हो गई।  
एकनाथ को ऐसा साक्षात्कार हो गया! पूरणपुडा को ऐसा हो गया! डटे रहते है। बार-बार गुठली निकाले? नहीं।  


एक लड़का है वह मेहनत करता है, कमाता है, परिश्रम करता है, धनवान बनता है। दूसरा ऐसा है कि सीधा पिता की गोद चला जाता है। पिता की गोद चल गया, करोड़पति पिता है, किसी करोड़पति की गोद चला गया, बन गया करोड़पति।  ऐसे ही सत्संग क्या है? कि भगवान की गोद में आदमी चला जाता है। परमात्मा के सत्संग से सहज सुलभ है परमात्मप्राप्ति।  सत्संग मिले तो उसको फिर उन संस्कारों को जमने देना चाहिए। सत्संग जिनको नहीं मिलता उनके लिए जप, व्रत, तपस्या है। जिनको सत्संग मिलता है उनके लिए तो स्वाध्याय। उन्ही विचारों में अपने को तल्लीन कर देना है। सखी सम्प्रदाय में भी ऐसा मानते है। रामकृष्ण ने साधना की थी सखी सम्प्रदाय की। अपने को स्त्री मानना पड़ता है और एक परमात्मा को ही पुरुष। कलकत्ता में चलता था सखी सम्प्रदाय। अभी भी कई सन्यासी है। एक वृद्ध सन्यासी था वो छह महीना सखी भाव में रहता। चूड़ियाँ, साड़ी फर्स्ट क्लास, घूँघट- वूँगट निकाल गोपी बन जाते और छह महीना हरिद्वार में आकर ऋषिकेश में रहते थे। मैं उनको मिला था। कैसा भी भाव है, भाव बना लो। हम देह नहीं है लेकिन देह का भाव बन गया है तो देह ही हम दिखते है। अपना भाव बढ़िया बना लो। हम परमात्मा के हैं-परमात्मा हमारे हैं। परमात्मा नित्य है तो हम भी नित्य हैं, परमात्मा सुखरूप है तो हम भी सुखरुप हैं। परमात्मा आनंदस्वरूप है तो हम भी आनंदस्वरुप हैं।


ज्ञान के मार्ग में दो बातों से बचें तो ज्ञान हो जाता है जल्दी। एक तो ज्ञान का अभिमान न आवे और दूसरा – निराश न होवे। निराश हो जाएगा तो भी चूक जाएगा। अभिमान आ जाएगा तो भी चूक जाएगा। ज्ञान का अभिमान न आवे और दूसरा निराश न होवे तो ज्ञान मार्ग में चल जाएगा । निराश न होवे माने लगा रहे। संन्यास लें कि नासाग्र दृष्टि रखें… ये सब शुभ विचार है, अच्छी बात है.. नासाग्र दृष्टि रखना ठीक है, आँखों से इधर-उधर और लोग दिखते है संकल्प-विकल्प होते है, शक्ति बिखरती है..नासाग्र दृष्टि रखने से दृष्टि की सुरक्षा होती है, मन की चँचलता कम हो जाती है। ब्रह्मचर्य का पुस्तक पढ़ने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। स्त्रियाँ जो है पुरुषों के संपर्क में ज्यादा न आवे तो उनके ब्रह्मचर्य की रक्षा होगी। पुरूष जो है स्त्रियों के दर्शन-वर्शन में कम आवे, ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। बिना ब्रह्मचर्य की रक्षा के ज्ञान हो भी नहीं सकता। ब्रह्मचर्य रखनेसे मनोबल बढ़ता है, मन में स्थिरता आती है और जिसका ब्रह्मचर्य नहीं, जीवन में कोई शक्ति नहीं, जवानी में तो पता नहीं चलेगा लेकिन ३०-३६ साल की उमर में फिर ..जीवन की शक्ति नाश हो गई तो कोई सामने भी नहीं देखेगा। ब्रह्मचर्य या संन्यास लो… संन्यास का मतलब है कर्म के फल की इच्छा छोड़ना। गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में है-.

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स सन्‍यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥

संन्यास ले लिया अक्रिय हो गए, अग्नि को नहीं छूते, स्त्री को नहीं देखना है संन्यास लेने के बाद , पैसे को नहीं छूना है लेकिन मन के संकल्प नहीं छोड़े तो…? और सब छोड़ा तो भी क्या छोड़ा ? आशाओं को छोड़ना संन्यास है! जगत की तृष्णा, आशा छोड़ दिया तो संन्यास हो जाएगा। संन्यास तो हो गया, आशा छोडने से संन्यास हो जाता है। नासाग्र दृष्टि रखने से एकाग्रता में मदद होती है। ब्रह्मचर्य का पुस्तक पढने से, विचार करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए सरल उपाय है, बहुत सहज है। संसार में सुख आता है, चला जाता है। सुख आकर चला जाता है तो क्या छोड़कर जाता है? दुःख! सुख जब चला जाता है तो आपको क्या होता है? सुख होता है? सुख चला जाता है तो क्या रहता है? दुःख! सुख आता है तब सुख होता है, जाता है तो दुःख दे जाता है और दुःख जब आता है तो दुःख लगता है लेकिन दुःख चला जाता है तो सुख लगता है। …तो एक बार वो दुःख दे जाता है और एक बार वो दुःख देता है। एक बार वो सुख देता है एक बार वो सुख देता है, दुःख जाता है तो सुख छोड़ जाता है न? और सुख जब जाता है तो दुःख दे जाता है।  बात समझ में आती है? दुःख जो है सुख छोड़ देता है और सुख जो है दुःख छोड़ के जाता है लेकिन ये दोनों आने-जाने वाले हुए।  हम लोग चिपके हैं, सुख के साथ सुखी हो गये, दुःख के साथ दुःखी हो गये, इसीलिए हम साक्षात्कार से दूर हो गये। सुख आया उसको भी देखो, दुःख आया उसको भी देखो, अलग हो गए! हो गया ज्ञान ! जमा दो उसको! कल भी बताया था हमने अभी और बताऊँगा । शरीर अच्छा है चमड़ी ठीक है, आप खुजलाओ तो अच्छा नहीं लगेगा लेकिन जहाँ दाद है न, जहाँ चमड़ा खराब है, चमड़े की बीमारी है उधर खुजलाओ तो क्या होता है? सुख मिलता है और बाद में ज्यादा दुःख होता है। तो सुख कहाँ मिलता है? खुजलाने से सुख कहाँ मिलता है? …जहाँ खराबी है और वहीं दुःख होता है।  ऐसे ही जिस अंतःकरण में खराबी है उसको संसार की चीजों में सुख मिलता है। खुजलाहट है संसार की चीज़ें और उतना ही दुःख मिलता है। इसीलिए सब दुःख में मरे जा रहे है। करते सब सुख के लिए है न? तो, अंतःकरण जिसका मलीन है उसको संसार में सुख मिलता है। जितना सुख मिलता है उससे दुगना दुःख हो जाता है, खुजलाते  समय जितना सुख मिला उससे ज्यादा दुःख हुआ। ऐसे ही संसार के जो भी सुख है वो दुःख छोड़ के जाते है। ईश्वर की तरफ चलो तो पहले जरा सहन करना पड़ता है- तितिक्षा, मान- अपमान, ये वो , गुरू की घड़ाई, ये वो सब। पहले तो दुःख होता है। दुःख चला जाता है तो क्या छोड़कर जाता है? सुख! संसार में पहले सुख होता है और छोड़कर दुःख जाता है। और साधन के रास्ते पर पहले जरा कष्ट होता है लेकिन भविष्य में, बाद में क्या छोड़ जाता है? हम लोग ईश्वर के रास्ते चले थे, गुरुओं के चरणों में पहुँचे थे, जंगलों में रहे थे, तो पहले जरा दुःख को स्वीकार कर लिया, तो अभी वो दुःख क्या छोड़कर गया? सुख छोड़ा कि नहीं? और करते कि कोका कोला पीयो, लिमका पीयो, जरा सुख लो, पान का मसाला, तंबाखू डालो  मुँह में… उस समय सुख लेते तो अभी क्या होता? वो सुख क्या छोड़कर जाता? दुःख! आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
ये आगम, अपाई है, अनित्य है ये संसार के प्रसंग।  उनको देखते जाओ, उनको सह लो, बह रहे है, बीत रहे है। जो बीत रहे है उसको देखने वाला नहीं बीतता- वो साक्षी आत्मा ‘मैं’ हूँ। ऐसा बार-बार चिंतन करने से, ऐसे संस्कारों को जमाने से ज्ञान हो जाता है। ये संस्कार फिर फूट निकलते है, अभी तो सुने है, जमेंगे तो फिर अंदर से फूट निकलेंगे, फिर वृक्ष होगा तो आत्मज्ञान का फल लगेगा। इसमें मेरे को ज्ञान हो रहा है कि नहीं हो रहा है ऐसी बार-बार शंका नहीं करना चाहिये और हमको नहीं होगा, ऐसे विचार नहीं करने चाहिये। साधक को सत्संग के द्वारा ऐसे ही मिल जाता है माल! गाय इतना परिश्रम करके घांस खाती है, पानी पीती है, खुराक खाती है, दूध बनता है और बछड़े को ऐसे ही पिला देती है। ऐसे ही संतों ने कितने और संतों का मुलाकात किया, संपर्क किया, शास्त्र विचार करे, गुरुओं की आज्ञा में रहे, गुरुओं की सेवा किया, क्या- क्या करके उन्होंने ब्रह्मविद्यारूपी अमृत अपने हृदय में प्रगट कर लिया। अब संतों ने तो परिश्रम करके वो बनाया लेकिन सत्संग में ऐसे ही मिल जाता है। सत्संग में समझो ईश्वर की गोद चला जाना है। सत्संग तो सुनते है, फिर कुछ रुकावटें आती है। क्यों आती है? कि सात्विक श्रद्धा नहीं है तो रुकावटें जोर पकड़ेंगी। राजस-तामस श्रद्धा है तो रुकावटें जोर पकड़ेंगी। सात्विक श्रद्धा है तो रुकावटों की ताकत नहीं ज्यादा टिकेगी, सात्विक श्रद्धा रुकावटों को उखाड़कर फेंक देगी।

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