हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं…. संत ज्ञानेश्वरजी

हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं…. संत ज्ञानेश्वरजी


हे गुरुदेव ! आपकी जय हो ! समस्त देवों में आप ही श्रेष्ठ हैं। हे बुद्धिरूपी प्रातःकाल के सूर्य ! सुख का उदय आपसे ही होता है। आप ही सबके विश्रामस्थल हैं। आप ही के द्वारा ‘सोऽहम्’ भाव का साक्षात्कार होता है। इस नाना स्वरूपवाली पंचभूतात्मक सृष्टि की तरंगें जिस समुद्र पर उठती हैं वह समुद्र आप ही हैं। आपके ऐसे स्वरूप की जय हो, जय हो ! हे आर्तबंधु ! निरन्तर करूणासिंधु (दया के सागर), शुद्ध आत्मविद्यारूपी वधू के वल्लभ (प्रियतम, स्वामी) ! आप सुनें। आप जिनकी दृष्टि में नहीं आते उन्हीं को यह मायिक विश्व दिखलाते हैं और उन्हीं पर यह नाम-रूपात्मक जगत प्रकट करते हैं। दूसरों की दृष्टि को चुराने को ही दृष्टि-बंध कहते हैं परंतु आपका यह अदभुत कौशल ऐसा है कि आप स्वयं अपना ही स्वरूप छिपाते हैं।

हे गुरुदेव ! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं। यह सब नाट्य आपका ही रचा हुआ है। आप ही किसी को माया का भास कराते हैं और किसी को आत्मबोध कराते हैं। आपके ऐसे स्वरूप को नमन है ! मेरी समझ में तो सिर्फ यही आता है कि इस जगत में जिसे अप (जल) कहते हैं, उसे आपके ही शब्दों से मधुरता प्राप्त हुई है। आपसे ही पृथ्वी को क्षमावाला गुण भी मिला हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा इत्यादि जो तेजस्वी सिपाही संसार में उदित होते हैं, उनके तेज को आपकी प्रभा से ही तेज प्राप्त होता है। वायु की चंचलता भी आपका ही दिव्य सामर्थ्य है और आकाश भी आपका ही आश्रय पाकर यह आँख-मिचौली का खेल खेल खेलता है।

तात्पर्य यह कि सारी माया आपकी ही देन है और आपके ही सामर्थ्य से ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है। पर अब इस विवेचन की यहीं समाप्ति करनी चाहिए कारण कि वेद भी ऐसा विवेचन करते-करते थक जाते हैं। जिस समय तक आपके आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, उस समय तो वेदों की विवेचनात्मक शक्ति ठीक तरह काम करती है पर जब आपके स्वरूप के सन्निकट की कोई मंजिल अथवा पड़ाव आ जाता है, तब फिर वेद भी तथा मैं भी दोनों मौन हो जाते हैं अर्थात् दोनों की दशा एक समान हो जाती है। जिस समय चारों दिशाओं में समुद्र-ही-समुद्र हो और एक बुलबुला भी अलग न दिखाई देता हो, उस समय (उसमें मिल चुकी) महानदियों को ढूँढ निकालने की बात ही नहीं करनी चाहिए। जिस समय सूर्योदय होता है उस समय चन्द्रमा खद्योत (जुगनूँ) की भाँति हो जाता है। इसी प्रकार आपके आत्मस्वरूप में वेद और मैं – दोनों ही एक से हो जाते हैं। फिर जहाँ द्वैत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तथा परा वाणी (चार प्रकार की वाणियों में पहली जो नादस्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी गयी है।) के साथ वैखरी वाणी (मुँह से उच्चारित होने वाली वाणी) का भी लोप हो जाता हो, वहाँ भला मैं किस मुख से आपका वर्णन कर सकता हूँ ! यही कारण है कि अब मैं आपकी स्तुति करने की चेष्टा छोड़कर चुपचाप आपके चरणों पर माथा टेकना ही अच्छा समझता हूँ।

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 24 अंक 293

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