क्षणभंगुरता में एकमात्र सहारा

क्षणभंगुरता में एकमात्र सहारा


आयुः कल्लोललोलं कतिपयदिवसस्थायिनी यौवनश्री-

रर्थाः संकल्पकल्पा घनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूगाः।

कण्ठाश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत्प्रियाभीः प्रणीतं

ब्रह्मण्यासकतचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम्।।

जीवन ऊँची तरंगों की तरह तुरंत नाश पाने वाला है। यौवन की सुंदरता थोड़े दिनों तक रहने वाली है। अर्थ यानी धन, धान्य, धाम, ग्राम, पशु आदि पदार्थ मनोरथ के समान अस्थिर हैं। सारे भोग वर्षाकालिक मेघों के बीच की बिजली के विलास की तरह हैं और प्रौढ़ प्रियाओं द्वारा किया गया कंठ-आलिंगन भी क्षणिक है। अतः संसार के भयरूप सागर के पार तक तैरकर जाने के लिए ब्रह्म में अपने मन को लीन करिये।’ (वैराग्य शतकः 36)

योगी भर्तृहरि जी यहाँ समझा रहे हैं कि प्राणी की आयु का कोई ठिकाना नहीं है। यह जल की तरंगों के समान चंचल और बुलबुलों के समान क्षणस्थायी है। यह अभी है और अगले क्षण न रहे। श्वास बाहर जाता है तो वापस आये या न आये, कुछ निश्चित नहीं है। शरीर ने जन्म लिया नहीं कि मौत उसके पीछे लग ही जाती है और शैशव, बाल्यकाल या युवावस्था भी पूरी होने देगी या नहीं यह बताती नहीं है। ऐसे क्षणभंगुर जीवन पर क्या खुशी मनायी जाय ?

कमल के पत्ते पर पड़ा हुआ जल अति चंचल होता है। मनुष्य का जीवन भी उसी तरह अति चंचल है। यह सारा संसार रोगरूपी सर्पों से ग्रसित हो रहा है। इसमें दुःख-ही-दुःख है। जवानी भी अल्पकालिक एवं अस्थायी है। सदा कोई जवान नहीं रहा। अवस्थाएँ बदलती ही रहती हैं। बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आता है अवश्य आता है। कहा भी गया हैः

सदा न फूलै तोरई, सदा न सावन होय।

सदा न जोवन (जवानी) थिर रहे, सदा न जीवे (जीवित रहे) कोये।।

यौवन अवस्था की बहार उम्रभर थोड़े ही रहती है, यह तो फूल की सुगंध की तरह इधर आयी – उधर गयी। जो आज जवानी के नशे में मतवाले हो रहे हैं, शरीर को इत्र व फुलेल (सुगंधित तेल) से सुगंधित करते है एवं भाँति-भाँति के गहने पहने रहते हैं वे मन में निश्चित समझ लें कि उनका यह शरीर सदा उनके साथ न रहेगा, एक दिन यहीं-का-यही पड़ा रह जायेगा और मिट्टी में मिल जायेगा। काया के नाश होने से पहले ही वृद्धावस्था युवावस्था को निगल जायेगी। जो दाँत आज मोतियों की तरह चमकते हैं वे कल हिल-हिलकर एक-एक करके आपका साथ छोड़ देंगे। उस समय आपका मुख पोपला और भद्दा हो जायेगा। जिन बालो को आप रोज धोते और साफ रखते है तथा जिनकी तरह-तरह से सजावट करते हैं वे बाल एक न सफेद हो जायेंगे। ये फूले हुए गाल पिचक जायेंगे। आँखों में यह रसीलापन न रहेगा। इनमें पीलापन और धुँध छा जायेगी। यह तो आपकी काया और जवानी का हाल है।

अब धन-दौलत की चंचलता देखें। लक्ष्मी को चंचला और चपला भी कहते हैं। लक्ष्मी ठीक उस चपला (बिजली) की तरह है जो क्षण में जाती है। यह धन किसी के पास सदा नहीं रहा। आज जो धनी है, कल वही निर्धन हो जाता है। आज जो हजारों को भोजन देता है, कल वही अपने भोजन के लिए औरों के द्वार पर भटकता फिरता है। आज जो राजा है, कल वही रंक हो जाता है। आज जो बिना मोटर-गाड़ी के घर से बाहर नहीं जाता, कल वही पैदल दौड़ा फिरता है। सारांश यह कि धन-वैभव व तन तो सदा किसी के  पास रहा है और न आगे ही रहेगा।

शुक्रनीति सार में लिखा हैः

यौवनं जीवितं चित्तं छाया लक्ष्मीश्च स्वामिता।

चञ्चलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत्।।

‘यौवन, जीवन, मन, शरीर का सौंदर्य, धन और स्वामित्व – ये छहों चंचल हैं यानी स्थिर होकर नहीं रहते। यह जानकर धर्म में रत हो जाना चाहिए।

जिस तरह आयु, यौवन और धन चंचल हैं, उसी तरह नारी भी चंचल है। आज जो रमणियों के साथ विचरण करते हैं, कल वे ही उनके वियोग में तड़पते देखे जाते हैं। अतः धन यौवन का गर्व न करें, काल इनको पलक झपकते हर लेता है और पछतावा ही हाथ  लगता है।

तो इस भयंकर संसार-सागर से तरने का उपाय क्या है ? इस संदर्भ में पूज्य बापू जी की आत्मानुभवी अमृतवाणी में आता हैः “जन्म-मरण के दुःखों से सदा के लिए छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि अविद्या को आत्मविद्या से हटाने वाले सत्पुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए लग जाना चाहिए। जैसे भूख को भोजन से तथा प्यास को पानी से मिटाया जाता है, ऐसे ही अज्ञान को, अँधेरी अविद्या को आत्मज्ञान के प्रकाश से मिटाया जाता है। ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्या को हटाने मात्र से आप ईश्वर में लीन हो जाओगे। अगर अविद्या हटाकर उस परब्रह्म-परमात्मा में दो क्षण के लिए भी बैठोगे तो बड़ी-से-बड़ी आपदा टल जायेगी।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *