राजमहल में राजा का 5 वर्ष का पुत्र सोया पड़ा था। एक भील अवसर पाकर बालक को चुरा ले गया और उसके आभूषण उतार के उसे अपने बच्चों के साथ रखा। भील के बच्चे और राजकुमार भील के पास पल रहे थे।
राजकुमार बड़ा होता गया। जब युवावस्था में आया तो वह भीलों की तरह कामकाज करता रहा अर्थात् हिंसा, पाप, चोरियाँ और जीवों का घात करता रहा।
एक दिन वह घूमते-घामते शिकार करने हेतु घने जँगल में जा पहुँचा। वहाँ उसे प्यास ने बहुत सताया। इधर-उधर जाँच की तो उसे एक महात्मा की कुटिया दिखी। जा के महात्मा को प्रणाम कर विनती करके कहने लगाः “महाराज ! मुझे प्यास सता रही है, कृपा करके पानी पिलाइये।”
महात्मा ने उसे पहचान लिया। जब राजा दर्शन के लिए महात्मा को सादर आमंत्रित करता था, तब उन्होंने राजकुमार को राजमहल में अच्छी तरह देखा था। महात्मा ने उस युवक को बिठाया, पानी पिलाया और कहाः “तुम कौन हो ?”
युवकः “मैं भील हूँ।”
महात्मा आश्चर्य में पड़ गये। बोलेः “तुम राजकुमार हो। मैं तुम्हें अच्छी प्रकार जानता हूँ। तुम भीलों के संग में आकर अयोग्य काम करके अपने को भील समझ बैठे हो। तुम अपने को पहचानो। जब तुम राजकुमार वाले स्वरूप को जानोगे, तब तुम इस भील के जीवन को छोड़ के राजमहल में जाओगे और राजसिंहासन प्राप्त कर राजा हो के राज्य चलाते हुए आनंद पाओगे।”
महात्मा के वचन सुनने पर युवक को बचपन का स्मरण आया और उसे निश्चय हो गया कि ‘मैं भील नहीं हूँ, मैं निःसंदेह राजकुमार हूँ।’
महात्मा ने तत्काल राजा को संदेश भेजा। राजकुमार के लिए राजकीय वस्त्र और आभूषण आये, जिन्हें पहनकर वह राजा के लोगों के साथ राजमहल में गया और राजा से मिला। फिर तो वह राजमहल में रहकर राज्यसुख प्राप्त करके बड़े आनंद को प्राप्त हुआ।
इस दृष्टांत का तात्पर्य यह है कि इस जीवरूपी राजकुमार को देहाध्यास अर्थात् भ्रांति के कारण काम, क्रोध आदि अपने वश में कर लेते हैं और संसाररूपी घने वन में ले जा के उसके दैवी सम्पदा गुणरूपी आभूषण उतार के अपने जैसा तुच्छ कर देते हैं।
यह जीव अपने को कर्ता-भोक्ता और सुखी-दुःखी, पापी-पुण्यात्मा मानकर संसाररूपी जंगल में भटक रहा है। जब यह किसी पुण्य के प्रताप से किन्हीं आत्मवेत्ता सद्गुरु की शरण में जाता है, तब उसे सद्गुरु ज्ञानोपदेश देते हैं कि ‘तू देह नहीं है। तू अज्ञानी नहीं है। तू जाति-वर्णवाला, कर्ता-भोक्ता, पाप-पुण्य के संबंधवाला नहीं है। तू शुद्ध, सत्-चित्-आनंद, चिद्घन ‘स्व’ स्वरूप को भूलकर इन अवस्थाओं में अपने को मान रहा है। तू ‘स्व’ स्वरूप को याद कर और अपने को पहचान, तब तू परम सुख प्राप्त करेगा।’ सद्गुरु के उपदेश से जीवभाव की मान्यता त्यागकर साक्षी, अभिन्न, एकरूप ब्रह्म की अद्वैतनिष्ठा प्राप्त करके सुखसागर ब्रह्म में लीन होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 28 अंक 295
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