कौन होते हैं संसार बंधन से मुक्त ?

कौन होते हैं संसार बंधन से मुक्त ?


महाभारत (आश्वमेधिक पर्व, 19वाँ अध्याय में आता हैः

यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किंचिदचिन्तयन्।

पूर्वं पूर्वं परित्यज्य स तीर्णो बन्धनाद् भवेत्।।

‘जो मनुष्य (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में से क्रमशः) पूर्व-पूर्व का अभिमान त्यागकर कुछ भी चिंतन नहीं करता और मौनभाव से रहकर सबके एकमात्र अधिष्ठान परब्रह्म-परमात्मा में लीन रहता है, वही संसार-बंधन से मुक्त होता है।’ (श्लोकः1)

सर्वमित्रः सर्वसहः शमे रक्तो जितेन्द्रियः।

व्यपेतभयमन्युश्च आत्मवान् मुच्यते नरः।।

‘जो सबका मित्र, सब कुछ सहने वाला, मनोनिग्रह में तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोध से रहित तथा आत्मवान है, वह मनुष्य बंधन से मुक्त हो जाता है।’ (2)

आत्मवत् सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः।

अमानी निरभिमानः सर्वतो मुक्त एव सः।।

‘जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियों के प्रति अपने जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पाने की इच्छा नहीं है तथा जो अभिमान से रहित है, वह सर्वथा मुक्त ही है।’ (3)

जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च।

लाभालाभे प्रियद्वेष्ये यः समः स च मुच्यते।।

‘जो जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों को समभाव से देखता है, वह मुक्त हो जाता है।’ (4)

न कस्यचित् स्पृहयते नावजानाति किंचन।

निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा सर्वथा मुक्त एव सः।।

‘जो किसी के द्रव्य का लोभ नहीं रखता, किसी की अवहेलना नहीं करता, जिसके मन पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्त की आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है।’ (5)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 23 अंक 295

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