भगवान श्रीरामचन्द्र जी के वनवास के दौरान का प्रसंग है। भगवान राम सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ एक-एक ऋषि आश्रम में गये। ऋषियों से मिलकर उनका कुशल-मंगल पूछा। ऋषि-मुनियों ने राक्षसों के आतंक के बारे में बताया तो राम जी का हृदय करुणा से भर गया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि ‘मैं इन आततायी राक्षसों का विध्वंस अवश्य करूँगा।’
इसके बाद श्रीराम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी आगे बढ़ गये। मार्ग में एक स्थान पर विश्राम के लिए बैठे। वहाँ सीता जी और राम जी में परस्पर बातें होने लगीं।
पति-पत्नी में केवल मनोरंजन की ही बातें नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें एक दूसरे के कर्तव्य-अकर्तव्य के संबंध में भी विचार-विमर्श करना चाहिए।
सीता जी ने राम जी से कहाः “आर्यपुत्र ! इस संसार में तीन दोष मनुष्य को नीचे गिरा देते हैं – मिथ्या भाषण, परस्त्रीगमन और दूसरों के प्रति अकारण क्रूरतापूर्ण व्यवहार। मिथ्या भाषण का दोष आपमें न तो कभी था, न है और न आगे होगा – यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ। परस्त्री की ओर भी आप कभी आँख उठाकर नहीं देखते फिर यह दोष आपमें आ ही कैसे सकता है लेकिन आपने ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए जो प्रतिज्ञा की है, उसको लेकर मेरा चित्त चिंता से व्याकुल हो उठा है। इस समय मुझे आपका अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर वन में चलना अच्छा नहीं लगता। मुझे ऐसी आशंका होती है कि कहीं आपके द्वारा उन वनचारी प्राणियों का वध न हो जाय जो आपसे कोई वैर नहीं रखते।”
सीता जी ने एक तपस्वी की कथा सुनायी जो पहले बड़े सत्यवादी थे। एक दिन उनकी तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र आये और उनके पास अपना खड्ग (तलवार) छोड़ गये। तपस्वी पहले तो धरोहर के रूप में उस खड्ग की रक्षा करते रहे, बाद में उसके संसर्ग से उनकी बुद्धि में क्रूरता आ गयी। वे उससे हिंसा करने लगे और उनको नरक में जाना पड़ा।
सीता जी ने कहाः “नाथ ! मैंने उन तपस्वी के पतन की कथा इसीलिए सुनायी कि मेरा आपके प्रति बहुत स्नेह एवं आदर भाव है। मैं आपको शिक्षा नहीं देती क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं। मैंने तो केवल एक घटना का स्मरण दिलाया है।”
राम जीः “सीते ! मैंने राक्षसों से रक्षा करने की प्रतिज्ञा उन ऋषि-मुनियों के सामने की है जो बड़े तपस्वी हैं। यदि वे चाहें तो अपने हुंकार मात्र से राक्षसों को नष्ट कर सकते हैं परंतु ऐसा इसलिए नहीं करते कि उनकी तपस्या नष्ट हो जायेगी, उसमें विघ्न पड़ जायेगा। ऐसे महान ईश्वरनिष्ठों के सामने मैंने राक्षसों के विनाश का जो संकल्प किया है, उसको मैं नहीं छोड़ सकता। मनुष्य को अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए। जो एक प्रतिज्ञा तोड़ देता है वह दूसरी प्रतिज्ञा भी तोड़ने में संकोच नहीं करता। फिर उसका आत्मबल शिथिल हो जाता है और वह अपना कोई भी संकल्प पूर्ण करने योग्य नहीं रह जाता। मैं अपने शरीर का, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकता हूँ परंतु परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले ऋषि-मुनियों के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा कभी तोड़ नहीं सकता।”
ऋषि-मुनियों को कष्ट पहुँचाने वाले राक्षसों के वध के लिए प्रतिज्ञाबद्ध राम जी की दृढ़ता देखकर सीता जी बहुत प्रसन्न हुईं व उनका मत भी राम जी के मत के साथ मिल गया। उन्होंने कहाः “ठीक है, सत्पुरुषों की रक्षा तो करनी ही चाहिए।”
श्रीरामजी के जीवन से यह सीख मिलती है कि यदि संतों-महापुरुषों की सेवा करने का अवसर मिल जाय तो संसार की किसी भी वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति, यहाँ तक कि अपने शरीर की भी परवाह किये बिना पूरी तरह लग जाना चाहिए। कभी किसी को कोई शुभ वचन दिया हो तो उसे निभाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 295
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ