रूप में भिन्नता तत्त्व में एकता

रूप में भिन्नता तत्त्व में एकता


संत तुलसीदास जी जयंतीः 30 जुलाई

एक युवक ने आनंदमयी माँ के सम्मुख जिज्ञास प्रकट कीः “माँ ! संत तुलसीदास जी तो महान ज्ञानी व भक्त थे।…”

माँ ने कहाः “निःसंदेह वे थे ही !”

“उन्हें जब भगवान ने श्रीकृष्ण के विग्रहरूप में दर्शन दिये, तब उन्होंने यह क्यों कहा कि ‘मैं आपका इस रूप में दर्शन नहीं चाहता, मुझे रामरूप में दर्शन दीजिये।’ क्या यह ज्ञान की बात थी ? भगवान ही तो सबमें हैं फिर इस तरह तुलसीदास जी ने उनको भिन्न क्यों समझा ?”

माँ बोलीं- “तुम्हीं तो कहते हो कि वे ज्ञानी भी थे, भक्त भी थे। उन्होंने ज्ञान की ही बात तो कही कि ‘आप हमें रामरूप में दर्शन दीजिये। मैं आपके इस कृष्णरूप का दर्शन नहीं करना चाहता।’ यही प्रमाण है कि वे जानते थे कि श्रीराम और श्रीकृष्ण एक ही हैं, अभिन्न हैं।’ ‘आप मुझे दर्शन दीजिये।’ – यह उन्होंने कहा था। ‘रूप’ मात्र भिन्न था पर मूलतः तत्त्व तो एक ही था। इन्हीं शब्दों में तो उन्होंने अपनी बात कही। भक्ति की बात तो उन्होंने यह कही कि ‘मैं अपने राम के रूप में ही आपके दर्शन करना चाहता हूँ क्योंकि यही रूप मुझे प्रिय है।’ इस कथन में ज्ञान और भक्ति दोनों भाव प्रकाशित होते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 295

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