Monthly Archives: July 2017

रूप में भिन्नता तत्त्व में एकता


संत तुलसीदास जी जयंतीः 30 जुलाई

एक युवक ने आनंदमयी माँ के सम्मुख जिज्ञास प्रकट कीः “माँ ! संत तुलसीदास जी तो महान ज्ञानी व भक्त थे।…”

माँ ने कहाः “निःसंदेह वे थे ही !”

“उन्हें जब भगवान ने श्रीकृष्ण के विग्रहरूप में दर्शन दिये, तब उन्होंने यह क्यों कहा कि ‘मैं आपका इस रूप में दर्शन नहीं चाहता, मुझे रामरूप में दर्शन दीजिये।’ क्या यह ज्ञान की बात थी ? भगवान ही तो सबमें हैं फिर इस तरह तुलसीदास जी ने उनको भिन्न क्यों समझा ?”

माँ बोलीं- “तुम्हीं तो कहते हो कि वे ज्ञानी भी थे, भक्त भी थे। उन्होंने ज्ञान की ही बात तो कही कि ‘आप हमें रामरूप में दर्शन दीजिये। मैं आपके इस कृष्णरूप का दर्शन नहीं करना चाहता।’ यही प्रमाण है कि वे जानते थे कि श्रीराम और श्रीकृष्ण एक ही हैं, अभिन्न हैं।’ ‘आप मुझे दर्शन दीजिये।’ – यह उन्होंने कहा था। ‘रूप’ मात्र भिन्न था पर मूलतः तत्त्व तो एक ही था। इन्हीं शब्दों में तो उन्होंने अपनी बात कही। भक्ति की बात तो उन्होंने यह कही कि ‘मैं अपने राम के रूप में ही आपके दर्शन करना चाहता हूँ क्योंकि यही रूप मुझे प्रिय है।’ इस कथन में ज्ञान और भक्ति दोनों भाव प्रकाशित होते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 295

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मानव-जाति का इतिहास है सुख-विकास की कहानी


मनुष्य और मनुष्य से भिन्न प्राणियों में एक बड़ा अंतर यह है कि उन प्राणियों में जहाँ  प्राप्त सुख में संतोष अथवा तृप्ति है वहाँ मनुष्य में उच्च से उच्चतर सुखों की उपलब्धि की आकांक्षा एवं प्रयास है। मानव-जाति का इतिहास सुख-विकास की कहानी है। परंतु मनुष्य ने पाया क्या है ? उसने धन इकट्ठा किया है, महल-अट्टालिकाएँ (बहुमंजिला इमारतें) बनायी सजायी हैं, भोग विलास की सामग्री इकट्ठी की है और तद्विषयक अविद्यात्मक विद्याएँ संग्रह की हैं। उसने सुख और तृप्ति का दम्भ किया है जबकि उसका अंतर अनंत अभावों एवं दीनताओं से ग्रस्त रहा है। उसे क्यों यह होश नहीं आता कि उसके सुखप्राप्ति के प्रयत्न की दिशा ही विपरीत है। ऐन्द्रियक सुख सुख नहीं सुखाभास है। सम्पदा का सुख सुख नहीं सुखाभास है। अभिमानजन्य सुख सुख नहीं पतन का प्राक् रूप (पूर्वरूप) है। काम, दाम, चाम के सुख सुख नहीं बंधन के प्रारम्भ हैं। वह सुख सुख ही नहीं, जिसमें भय है, बंधन है, पराधीनता है और परिणाम में रोना है। परंतु यह तो विवेक है जो किसी धीर पुरुष की बुद्धि में ही उत्पन्न होता है।

शोक-मोह से पार होने पर परमानंदस्वरूप आत्मा की प्राप्ति करने का संकल्प ही किसी-किसी के हृदय में होता है फिर प्रयत्न और प्राप्ति तो अत्यंत दुर्लभ ही है।

अज्ञानी मिथ्या को सत्यवत् ग्रहण करता है और तज्जन्य (उससे उत्पन्न) राग-द्वेषरूप बंधन, दुःख और जड़ता का शिकार होता है। जिज्ञासु मिथ्या को सशंक ग्रहण करता है और तज्जन्य द्वन्द्वात्मक तनाव का शिकार होता है तथापि सद्ज्ञानोन्मुख होने के कारण वह इसके (मिथ्या संसार के) सुख के बंधन से बँधता नहीं। भक्त मिथ्या को तो मिथ्या समझता है – ईश्वराश्रित समझता है परंतु स्वयं की परिच्छिन्नता (सीमितता, अलगाव) की सत्यत्व-बुद्धि के कारण उसका यह मिथ्या ग्रहण (मिथ्या समझना) भी सत्यवत् होता है। अतः वह जगत के लेप से अछूता नहीं रहता। संसारित्व तो उसका कटता ही नहीं। परंतु ब्रह्मवेत्ता पुरुष मिथ्या को मिथ्यावत् ही ग्रहण करते हैं और यह ग्रहण भी उनकी दृष्टि में मिथ्या ही होता है।

अज्ञानी के लिए नाम-रूपात्मक प्रपंच और उसका कारण – माया बंधन का हेतु है और इसलिए भयावह है क्योंकि उसने अपने शिवस्वरूप का साक्षात्कार नहीं किया है। परंतु जो महापुरुष जगत से व्यतिरिक्त (भिन्न), जगत में अन्वित (ओतप्रोत) और जगत के अत्यंत अभाव के स्वप्रकाश अधिष्ठान तत्त्व में आत्मत्वेन (आत्मरूप से) स्थित हैं, उनके लिए जगत या उसका कारण विमर्श (कारण का विचार) आत्मोल्लासमात्र है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 9 अंक 295

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भोजन में षड् रसों का महत्त्व


उत्तम स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि रस, रक्त आदि शरीर की सभी धातुएँ व वात-पित्त-कफ सम अवस्था में रहें। धातुओं व त्रिदोषों को समय रखने के लिए आहार का सर्वरसयुक्त होना आवश्यक है। इस संदर्भ में चरक कहते हैं-

सर्वरसाभ्यासो बलकराणाम्

एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणाम्….

भोजन में सभी रसों का सेवन सर्वोत्तम व बलकारी है तथा छः रसों में से किसी एक ही रस का सेवन दौर्बल्यजनक है। (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 25.50)

रस छः प्रकार के होते हैं- मधुर (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (खारा), कटु (तीखा), तिक्त (कड़वा) व कषाय (कसैला)।

शरीर में त्रिदोषों – वात-पित्त-कफ की स्थिति इन षडरसों पर ही निर्भर होती है। इन रसों का उपयोग उचित मात्रा में करने से शरीर भली-भाँति चलता रहता है। यदि इन रसों का उपयोग विपरीत ढंग से किया जाय तो ये दोषों को कुपित करने वाले सिद्ध होते हैं।

रसों का त्रिदोषों के साथ संबंध

तीन-तीन रस एक-एक दोष को प्रकुपित करते है और तीन-तीन रस ही एक-एक दोष को शांत करते हैं।

दोष वर्धक रस शामक रस
वात तीखा, कड़वा, कसैला मीठा, खारा, खट्टा
पित्त तीखा, खट्टा, खारा कसैला, मीठा, कड़वा
कफ मीठा, खट्टा, खारा तीखा, कड़वा, कसैला

आहार में पदार्थों के सेवन का क्रम

 

 

सर्वप्रथम मध्य में अंत  में
मीठे, स्निग्ध प्रथम – खट्टे, खारे

बाद में – तीखे, कड़वे

कसैले

षडरसों के गुण

अम्ल (खट्टा) रसः उचित मात्रा में सेवन किया खट्टा रस पचने में हलका, उष्ण, स्निग्ध व वातशामक होता है। यह भोजन में रूचि उत्पन्न करता है व विभिन्न पाचक स्रावों को बढ़ाता है। यह मल-मूत्र का सुखपूर्वक निष्कासन करने वाला, इन्द्रियों को दृढ़ बनाने वाला व उत्साह बढ़ाने वाला है। यह रस हृदय के लिए विशेष हितकर है।

अम्ल रसयुक्त पदार्थः फालसा, आँवला, अनार, करौंदा, इमली, छाछ, नींबू आदि।

अम्ल रस के अति सेवन से हानियाँ- खट्टे रस का अधिन सेवन पित्त को बढ़ाता है। एवं रक्त को दूषित करता है। परिणामतः कंठ, छाती व हृदय में जलन होने लगती है और रक्ताल्पता जैसी व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। फोड़े-फुंसियाँ, खुजली आदि लक्षण पैदा होते हैं एवं दाँत खट्टे तथा शरीर शिथिल हो जाता है। दुबले-पतले व कमजोर व्यक्तियों में सूजन आने लगती है। घाव तथा फोड़े पककर उनमें मवाद भर जाता है। उपरोक्त लक्षण उत्पन्न होने पर अम्लीय पदार्थों का सेवन पूर्णतः बंद कर कसैले रसयुक्त पित्तशामक द्रव्यों का उपयोग करें।

सामान्यतः खट्टा रस पित्तवर्धक है परन्तु अनार व आँवला खट्टे रसयुक्त होते हुए भी पित्तशामक हैं।

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 32, अंक 295

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भोजन में षड् रसों का महत्त्व

गतांक से आगे

षड् रसों के गुण

मधुर या मीठा रसः यह रस स्निग्ध, शीत, पचने में भारी तथा पित्त एवं वायु शामक है। यह जन्म से ही सभी को प्रिय व शरीर के लिए सात्म्य (अनुकूल) होने से बच्चों, वृद्ध, दुर्बल, कृशकाय-सभी के लिए हितकर है। यह रस-रक्तादि सप्तधातुओं व वज़न को बढ़ाने वाला, बल व आयु वर्धक, ज्ञानेन्द्रियों को निर्मल व अपने कर्मों में निपुण बनाने वाला, शरीर के वर्ण व कांति को सुधारने वाला, टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने वाला, बालों के लिए हितकर तथा शरीर में स्फूर्ति व मन में तृप्ति लाने वाला है। कृश व दुर्बल लोगों के लिए मधुर रसयुक्त पदार्थों का सेवन विशेष हितकर है।

मधुर रस युक्त पदार्थः दूध, घी, शहद, गुड़, अखरोट, केला, नारियल, गन्ना, काली द्राक्ष, किशमिश, मिश्री, मधुर फलों का रस आदि।

पुराने चावल, पुराने जौ, मूँग, गेहूँ, शहद – ये चीजें मधुर रसयुक्त होते हुए भी कफ नहीं बढ़ाती हैं।

मधुर रस के अति सेवन से हानियाँ- मधुर रस इतना लाभदायक होते हुए भी मधुर पदार्थों का अति सेवन हितावह नहीं है। इससे कफ की वृद्धि होकर आलस्य, अति निद्रा, भोजन में अरूचि, भूख की कमी, मोटापा, रक्तवाहिनियों में अवरोध, दमा, खाँसी, गले में सूजन, मुँह एवं गले में माँस की वृद्धि, आँखों के रोग, पेशाब संबंधी बीमारियाँ, गाँठें (Tumours) आदि समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

उपरोक्त में से किसी भी प्रकार का उपद्रव पैदा होने पर मधुर रस युक्त पदार्थों का सेवन बंद कर दें। उपवास एवं काली मिर्च, अदरक आदि तीखे रस के उचित मात्रा में सेवन से इन्हें दूर किया जा सकता है।

इस श्रृंखला में गतांक में छपे लेख के संदर्भ में स्पष्टताः आम बोली में कटु शब्द कड़वे एवं तिक्त शब्द तीखे के अर्थ में प्रयुक्त होता है परंतु आयुर्वेद के ग्रंथों में तीखे रस को कटु रस और कड़वे रस को तिक्त रस कहा जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 31 अंक 296

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षड् रसों के गुण

कड़वा रसः यह पचने में हलका, रूक्ष व शीत गुणयुक्त है। उचित मात्रा में सेवन करने पर स्वयं अरुचिकर होते हुए भी भोजन के प्रति रूचि को बढ़ाने वाला, पित्त-कफशामक तथा वातवर्धक है। कड़वा रस यकृत (लिवर) व प्लीहा (स्पलीन) को शुद्ध करता है। बुखार, विष, कृमि, खुजली, जलन, प्यास की अधिकता एवं चर्मरोग को नष्ट करता है। चर्बी को सुखाने वाला एवं कफ व पित्त दोषों का शमन करने वाला है। कड़वे पदार्थ माता के दूध की विकृतियों को दूर करते हैं तथा कंठ, त्वचा व घावों आदि की शुद्धि करते हैं।

कड़वे रसयुक्त पदार्थः नीम, चिरायता, गिलोय, हल्दी, करेला, अडूसा आदि।

वर्तमान समय में कड़वे पदार्थों का सेवन नहीं के बराबर किया जाता है। अधिक रोगों का कारण भी यही है। कड़वे रस के सम्यक सेवन से स्वास्थ्य को स्थिर रखा जा सकता है। आज के समय में मिठाइयाँ, चॉकलेट आदि के रूप में मीठे रस का सेवन अधिक तथा कड़वे रस का सेवन अत्यल्प हो गया है। पहले के समय में बचपन से ही कड़वे पदार्थ का सेवन होता था, परिणामस्वरूप शरीर में वात-पित्त-कफ का संतुलन बना रहता था। वह स्थिति आज नहीं रही, अतएव कैंसर, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रैशर) हृदय रोग, मधुमेह (डायबिटीज़), बच्चों में कृमि, मोटापा, कफजन्य रोग तेजी से बढ़ते जा रहे है।

कड़वे रस के अति सेवन से हानियाँ- उपरोक्त गुणों के होने पर भी यदि अन्य रसों की उपेक्षा करके कड़वे रस का अधिक सेवन किया जाय तो यह रूक्ष व वातवर्धक होने के कारण धातुओं का शोषण कर शरीर को कृश व दुर्बल बनाता है। पर गिलोय कड़वी होने पर भी वातशामक व वीर्यवर्धक है।

कड़वे रस के अति सेवन से उत्साहहीनता, ग्लानि, चक्कर आना, बेहोशी सी अवस्था, सिरदर्द, मुख में फीकापन, गर्दन व शरीर की जकड़न आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। इन्हें दूर करने के लिए दूध, घी आदि मधुर पदार्थों का उचित मात्रा में सेवन करना चाहिए।

षड् रस सेवन की जरूरत है

पूज्य बापू जी

एक पोती बोलीः “दादा जी ! देखिये, ये मिठाइयाँ हँसकर करेले से कह रही हैं कि तू कितना बेकार है ! कड़वा-कड़वा !!”

दादा जीः “बेटी ! करेला उनसे कह रहा है, मेरे बिना तो तुम्हारी कोई कद्र ही नहीं होती।”

“क्यों दादा जी ? मिठाई तो मिठाई होती है !”

दादा जीः “करेला कहता है कि अकेली मिठाइयाँ मधुमेह (डायबिटीज़) करती हैं। मेरी कड़वाहट पचाते हैं तब मिठाई हजम होती है।”

लेकिन माइयाँ क्या करती हैं ? करेले में जो गुणकारी कड़वा रस है उसे निचोड़ कर सब्जी बनाती हैं और करेले को चीर के नमक भरती हैं। तो करेला नहीं घास खा रहे हैं ! करेले की कड़वाहट पचाओगे तो मिठाई की मिठास हजम होगी। मीठा खाते हैं, खारा, तीखा, खट्टा खाते हैं, कसैला भी खाते हैं किंतु कड़वा नहीं खाते। इससे शरीर में रसों का संतुलन ठीक नहीं होता, आरोग्य नहीं रहता। अतः नीम के पत्ते, करेले आदि खा लेने चाहिए।

शरद ऋतु में तो मधुर व कड़वे – दोनों रसों का सेवन  विशेष लाभदायी है। होली के बाद के दिनों में भी नीम के पत्ते खाने का विशेष महत्त्व है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 31 अंक 297

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कसैला रस-­ यह रूक्ष, शीत, पचने में भारी, कफ व पित्तशामक तथा वातवर्धक होता है। यह रक्त को शुद्ध करता है। अपनी स्वाभाविक संकोचन शक्ति के द्वारा यह स्रोतों का संकोचन, व्रणों की सफाई व व्रणरोपण (मवाद आदि को निकालकर घाव को भरना) करता है। अतः यह प्रमेह (20 प्रकार के मूत्रसंबंधी विकार जैसे – शुक्रमेह अर्थात् मूत्र के साथ वीर्य धातु का निकल जाना आदि), मधुमेह, दस्त आदि में लाभदायी। नये बुखार में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए।

कसैले रसयुक्त पदार्थः हरड़, त्रिफला, शहद, जामुन, पालक, कमल आदि।

कसैले पदार्थों के अति सेवन से हानियाँ- इसके अधिक मात्रा के सेवन से यह मुख को सुखा देता है, हृदय को दबा रहा हो ऐसी पीड़ा होती है तथा पेट का फूलना, आवाज लड़खड़ाना, नपुंसकता, कब्ज, मूत्र-अवरोध, अंगों में अथवा पूरे शरीर में जकड़न, लकवा, शरीर के वर्ण में नीलापन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। हरड़ कसैली होने पर भी उष्ण व मल को साफ लाने वाली होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 32,33 अंक 298

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