कृष्णदास जी का जन्म राजस्थान के ब्राह्म परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही बड़े ईश्वर-अनुरागी और साधु-संग प्रेमी थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भगवद्-भजन करने का निश्चय किया और रामानंद जी के शिष्य श्री अनंतानंदाचार्यजी से दीक्षा ली। वे गुरु-सान्निध्य में सेवा-साधना करते हुए कुछ काल रहे तथा उसके बाद गुरु-संकेत अनुसार कुल्लू की पहाड़ियों में पहुँचकर भगवद्-भजन करने लगे।
कृष्णदासजी केवल दुग्धाहार पर ही रहते थे इसलिए उनका नाम ‘पयहारी बाबा’ पड़ गया। वे भजन में इतने तल्लीन रहने लगे कि दूध के लिए बस्ती में जाने का उनका मन ही न हुआ। दो दिन बीत गये। तीसरे दिन भगवत्प्रेरणा से एक गाय वहाँ आयी। बाबा को देखते ही उसके थनों से दूध झरने लगा। बाबा ने इस प्रभु का मंगलमय विधान जान दूध कमंडल में ले लिया। गाय इसी प्रकार नित्य आकर बाबा को दूध देने लगी। ग्वाले को यह देख के कौतूहल हुआ कि एक गाय रोज़ गायों के झुंड से निकलकर कहीं जाती है और थोड़ी देर बाद वापस आ जाती है ! एक दिन उसने गाय का पीछा किया और छिपकर सारा नज़ारा देखा तो रोमांचित हो गया। वह बाबा के चरणों में गिर गया, बोलाः “महाराज ! मैं धन्य हुआ। इस गाय के कारण मुझे आपके दर्शन हुए।”
“यह तो नित्य मेरी सेवा कर जाती है। इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।”
“मैं क्या वर माँगू ? आपने तो पहले ही मेरी गाय की सेवा अंगीकार कर मुझे कृतार्थ कर दिया है। पर आदि आपको कुछ देना ही है तो ऐसी कृपा करें कि हमारे प्रजावत्सल राजा का राज्य उन्हें वापस मिल जाये। उनका राज्य दुश्मन ने छीन लिया है। उनका दुःख दूर होने से हम सबका भी दुःख दूर होगा।”
बाबा ग्वाले की निस्पृहता स्वामिभक्ति और परोपकारिता देखकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए, बोलेः “अच्छा तो जाओ, राजा को लेकर आओ।”
राजा बाबा के पास आया और श्रद्धापूर्वक दंडवत् प्रणाम किया। बाबा ने उसे अंतर्यामी परमात्मा में शांत होकर आंतरिक सामर्थ्य पाने की युक्ति बता दी और युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया। राजा ने अपने थोड़े से सैनिकों को लेकर शत्रु पर हमला किया। शत्रु हार गया और राजा को अपना राज्य मिल गया। राजा कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु बाबा के पास पुनः आया और दंडवत् प्रणाम कर कुछ सेवा स्वीकारने का निवेदन किया। बाबा ने कुछ भी लेने से मना कर आशीर्वाद दियाः “तुम्हारी भगवान और साधु पुरुषों की सेवा में प्रीति हो।” तब से राजा भगवद्भक्त हो गया और खूब प्रीतिपूर्वक संतों की सेवा करने लगा।
राज्यप्राप्ति के बाद राजा ने अपने सम्पूर्ण राज्य में संत सेवा और भगवद् भजन का आदेश लागू कर दिया। उसके राज्य में चारों ओर ज्ञान-भक्ति की धारा प्रवाहित होने लगी और वहाँ की जनता इस पावन गंगा में गोता लगाकर अपने जीवन को धन्य करने लगी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 19, अंक 295
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