Monthly Archives: July 2017

भगवान की भक्तवत्सलता व संत की करुणा-कृपा


कृष्णदास जी का जन्म राजस्थान के ब्राह्म परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही बड़े ईश्वर-अनुरागी और साधु-संग प्रेमी थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भगवद्-भजन करने का निश्चय किया और रामानंद जी के शिष्य श्री अनंतानंदाचार्यजी से दीक्षा ली। वे गुरु-सान्निध्य में सेवा-साधना करते हुए कुछ काल रहे तथा उसके बाद गुरु-संकेत अनुसार कुल्लू की पहाड़ियों में पहुँचकर भगवद्-भजन करने लगे।

कृष्णदासजी केवल दुग्धाहार पर ही रहते थे इसलिए उनका नाम ‘पयहारी बाबा’ पड़ गया। वे भजन में इतने तल्लीन रहने लगे कि दूध के लिए बस्ती में जाने का उनका मन ही न हुआ। दो दिन बीत गये। तीसरे दिन भगवत्प्रेरणा से एक गाय वहाँ आयी। बाबा को देखते ही उसके थनों से दूध झरने लगा। बाबा ने इस प्रभु का मंगलमय विधान जान दूध कमंडल में ले लिया। गाय इसी प्रकार नित्य आकर बाबा को दूध देने लगी। ग्वाले को यह देख के कौतूहल हुआ कि एक गाय रोज़ गायों के झुंड से निकलकर कहीं जाती है और थोड़ी देर बाद वापस आ जाती है ! एक दिन उसने गाय का पीछा किया और छिपकर सारा नज़ारा देखा तो रोमांचित हो गया। वह बाबा के चरणों में गिर गया, बोलाः “महाराज ! मैं धन्य हुआ। इस गाय के कारण मुझे आपके दर्शन हुए।”

“यह तो नित्य मेरी सेवा कर जाती है। इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।”

“मैं क्या वर माँगू ? आपने तो पहले ही मेरी गाय की सेवा अंगीकार  कर मुझे कृतार्थ कर दिया है। पर आदि आपको कुछ देना ही है तो ऐसी कृपा करें कि हमारे प्रजावत्सल राजा का राज्य उन्हें वापस मिल जाये। उनका राज्य दुश्मन ने छीन लिया है। उनका दुःख दूर होने से हम सबका भी दुःख दूर होगा।”

बाबा ग्वाले की निस्पृहता स्वामिभक्ति और परोपकारिता देखकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए, बोलेः “अच्छा तो जाओ, राजा को लेकर आओ।”

राजा बाबा के पास आया और श्रद्धापूर्वक दंडवत् प्रणाम किया। बाबा ने उसे अंतर्यामी परमात्मा में शांत होकर आंतरिक सामर्थ्य पाने की युक्ति बता दी और युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया। राजा ने अपने थोड़े से सैनिकों को लेकर शत्रु पर हमला किया। शत्रु हार गया और राजा को अपना राज्य मिल गया। राजा कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु बाबा के पास पुनः आया और दंडवत् प्रणाम कर कुछ सेवा स्वीकारने का निवेदन किया। बाबा ने कुछ भी लेने से मना कर आशीर्वाद दियाः “तुम्हारी भगवान और साधु पुरुषों की सेवा में प्रीति हो।” तब से राजा भगवद्भक्त हो गया और खूब प्रीतिपूर्वक संतों की सेवा करने लगा।

राज्यप्राप्ति के बाद राजा ने अपने सम्पूर्ण राज्य में संत सेवा और भगवद् भजन का आदेश लागू कर दिया। उसके राज्य में चारों ओर ज्ञान-भक्ति की धारा प्रवाहित होने लगी और वहाँ की जनता इस पावन गंगा में गोता लगाकर अपने जीवन को धन्य करने लगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 19, अंक 295

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पारिवारिक विचार-विमर्श का आदर्श व वचन-पालन की अडिगता


भगवान श्रीरामचन्द्र जी के वनवास के दौरान का प्रसंग है। भगवान राम सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ एक-एक ऋषि आश्रम में गये। ऋषियों से मिलकर उनका कुशल-मंगल पूछा। ऋषि-मुनियों ने राक्षसों के आतंक के बारे में बताया तो राम जी का हृदय करुणा से भर गया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि ‘मैं इन आततायी राक्षसों का विध्वंस अवश्य करूँगा।’

इसके बाद श्रीराम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी आगे बढ़ गये। मार्ग में एक स्थान पर विश्राम के लिए बैठे। वहाँ सीता जी और राम जी में परस्पर बातें होने लगीं।

पति-पत्नी में केवल मनोरंजन की ही बातें नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें एक दूसरे के कर्तव्य-अकर्तव्य के संबंध में भी विचार-विमर्श करना चाहिए।

सीता जी ने राम जी से कहाः “आर्यपुत्र ! इस संसार में तीन दोष मनुष्य को नीचे गिरा देते हैं – मिथ्या भाषण, परस्त्रीगमन और दूसरों के प्रति अकारण क्रूरतापूर्ण व्यवहार। मिथ्या भाषण का दोष आपमें न तो कभी था, न है और न आगे होगा – यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ। परस्त्री की ओर भी आप कभी आँख उठाकर नहीं देखते फिर यह दोष आपमें आ ही कैसे सकता है लेकिन आपने ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए जो प्रतिज्ञा की है, उसको लेकर मेरा चित्त चिंता से  व्याकुल हो उठा है। इस समय मुझे आपका अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर वन में चलना अच्छा नहीं लगता। मुझे ऐसी आशंका होती है कि कहीं आपके द्वारा उन वनचारी प्राणियों का वध न हो जाय जो आपसे कोई वैर नहीं रखते।”

सीता जी ने एक तपस्वी की कथा सुनायी जो पहले बड़े सत्यवादी थे। एक दिन उनकी तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र आये और उनके पास अपना खड्ग (तलवार) छोड़ गये। तपस्वी पहले तो धरोहर के रूप में उस खड्ग की रक्षा करते रहे, बाद में उसके संसर्ग से उनकी बुद्धि में क्रूरता आ गयी। वे उससे हिंसा करने लगे और उनको नरक में जाना पड़ा।

सीता जी ने कहाः “नाथ ! मैंने उन तपस्वी के पतन की कथा इसीलिए सुनायी कि मेरा आपके प्रति बहुत स्नेह एवं आदर भाव है। मैं आपको शिक्षा नहीं देती क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं। मैंने तो केवल एक घटना का स्मरण दिलाया है।”

राम जीः “सीते ! मैंने राक्षसों से रक्षा करने की प्रतिज्ञा उन ऋषि-मुनियों के सामने की है जो बड़े तपस्वी हैं। यदि वे चाहें तो अपने हुंकार मात्र से राक्षसों को नष्ट कर सकते हैं परंतु ऐसा इसलिए नहीं करते कि उनकी तपस्या नष्ट हो जायेगी, उसमें विघ्न पड़ जायेगा। ऐसे महान ईश्वरनिष्ठों के सामने मैंने राक्षसों के विनाश का जो संकल्प किया है, उसको मैं नहीं छोड़ सकता। मनुष्य को अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए। जो एक प्रतिज्ञा तोड़ देता है वह दूसरी प्रतिज्ञा भी तोड़ने में संकोच नहीं करता। फिर उसका आत्मबल शिथिल हो जाता है और वह अपना कोई भी संकल्प पूर्ण करने योग्य नहीं रह जाता। मैं अपने शरीर का, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकता हूँ परंतु परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले ऋषि-मुनियों के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा कभी तोड़ नहीं सकता।”

ऋषि-मुनियों को कष्ट पहुँचाने वाले राक्षसों के वध के लिए प्रतिज्ञाबद्ध राम जी की दृढ़ता देखकर सीता जी बहुत प्रसन्न हुईं व उनका मत भी राम जी के मत के साथ मिल गया। उन्होंने कहाः “ठीक है, सत्पुरुषों की रक्षा तो करनी ही चाहिए।”

श्रीरामजी के जीवन से यह सीख मिलती है कि यदि संतों-महापुरुषों की सेवा करने का अवसर मिल जाय तो संसार की किसी भी वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति, यहाँ तक कि अपने शरीर की भी परवाह किये बिना पूरी तरह लग जाना चाहिए। कभी किसी को कोई शुभ वचन दिया हो तो उसे निभाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 295

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धर्मराज भी जिनका करते हैं आदर-सत्कार !


सत्संग की महिमा अपार है। ‘पद्म पुराण’ में भगवान महादेवजी ने देवर्षि नारदजी को सत्संग श्रवण व सत्पुरुषों को दान करने की महिमा के संदर्भ में एक बड़ी ही रोचक व प्रेरणापद कथा सुनायी है।

महादेव जी ने कहाः “देवर्षे ! ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार ने मुझे यह उपाख्यान सुनाया था।

सनत्कुमार जी बोलेः “एक दिन मैं धर्मराज (यमराज) से मिलने गया था। वहाँ उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिभाव के साथ मेरा सत्कार किया और आसन पर बिठाया। मैं वहाँ एक अदभुत बात देखी। एक पुरुष सोने के विमान पर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर धर्मराज शीघ्रता से आसन से उठ खड़े हुए और आगंतुक का अर्घ्य आदि के द्वारा पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् धर्मराज ने उससे कहाः “धर्म के द्रष्टा महापुरुष ! आपका स्वागत है ! मैं आपके दर्शन से बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठिये और मुझे कुछ ज्ञान की बातें सुनाइये। इसके बाद उस धाम में जाना जहाँ श्री ब्रह्मा जी विराजमान हैं।”

धर्मराज के इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमान पर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराज ने उसका भी पूजन किया तथा सांत्वनापूर्वक वार्तालाप किया। यह देख के मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैंने धर्मराज से पूछाः “इन्होंने ऐसा कौन सा कर्म किया है जिससे आप इतने अधिक संतुष्ट हुए हैं ?”

धर्मराज ने कहाः “पृथ्वी पर वैदिश नाम का विख्यात नगर है। वहाँ धरापाल नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्होंने भगवान का मंदिर बनवाया। उस नगर में जितने लोग रहते थे उन सबको वहाँ आमंत्रित किया। वह सुंदर, शांत स्थल लोगों से ठसाठस भर  गया। तब राजा ने पहले भगवद्भक्ति, सुमिरन, ध्यान आदि सत्कार्यों में रत रहने वाले ब्राह्मणों, महात्माओं का पूजन किया, फिर इतिहास, पुराण, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, एक ज्ञाननिष्ठ द्विजश्रेष्ठ महापुरुष की विशेष रूप से पूजा की। सत्शास्त्रों का भी पूजन करके राजा ने विनयपूर्वक कहाः “महात्मा ! धर्म-श्रवण करने की इच्छा से चारों वर्णों का समुदाय यहाँ एकत्र हुआ है अतः आप सत्संग-श्रवण कराकर हम सभी को कृतार्थ कीजिये। भगवन् ! हालाँकि सत्संग-दान अनमोल है, उसका ऋण किसी भी प्रकार चुकाया नहीं जा सकता, फिर भी मैं अपनी कृतज्ञता का भाव प्रकट करने हेतु ये स्वर्णमुद्राएँ आपके चरणों में अर्पित करता हूँ, आप कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिये और एक  वर्ष तक प्रतिदिन हम सबको सत्संग-लाभ प्राप्त कराइये।”

मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार राजा की प्रार्थना से वहाँ पुण्यमय सत्संग एवं भगवत्कथा-वार्ता का क्रम चालू हो गया। वर्ष बीतते-बीतते आयु क्षीण हो जाने के कारण राजा की मृत्यु की हो गयी। तब मैंने भगवान विष्णु ने भी इनके लिए द्युलोक से विमान भेजा था। ये जो दूसरे पुरुष यहाँ आये थे, इन्होंने सत्संग के द्वारा उत्तम धर्म का श्रवण किया था। सत्संग-श्रवण करने से श्रद्धावश इनके हृदय में परमात्मा की भक्ति का उदय हुआ। मुनिश्रेष्ठ ! फिर इन्होंने उन सत्संग करने वाले महापुरुष की परिक्रमा की और अहोभाव से भरकर उन्हें दान दिया। सत्संग-श्रवण तथा सुपात्र को दान देने से इन्हें इस प्रकार के फल की प्राप्ति हुई।”

देवर्षे ! जो मनीषी-पुरुष इस पुण्य-प्रसंग का माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनकी किसी जन्म में कभी दुर्गति नहीं होती।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 29 अंक 295

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