ब्रह्मज्ञानी साक्षात् ब्रह्म ही हैं

ब्रह्मज्ञानी साक्षात् ब्रह्म ही हैं


पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू का 54वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवसः 21 सितम्बर

मुंडकोपनिषद् (3.2.1) में आता हैः

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति

नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।

‘निश्चय ही जो कोई उस परम ब्रह्म-परमात्मा को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल में (अर्थात् संतानों में) कोई भी मनुष्य ब्रह्म को न जानने वाला नहीं होता।’

अर्थात् ब्रह्म ज्ञानी की संतानें एक न एक दिन अवश्य ही ब्रह्म को जान लेती हैं। आज्ञापालक शिष्य, भक्त उनकी संतानें हैं। भगवान शिवजी ने कहा हैः

मातृकुलं पितृकुलं गुरुरेव न संशयः।।

गुरुभक्तों के मातृकुल व पितृकुल ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु ही हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। जो शिष्य, गुरुपुत्र इस भगवद् वचन में दृढ़ निष्ठा रखते हैं एवं उपरोक्त नाता जितनी तत्परता से निभाते हैं, उतनी ही शीघ्र उनकी मुक्ति हो जाती है।

सदगुरु के उपदेश तथा उऩकी कृपा से ही सर्व संशयों की निवृत्ति एवं आत्मस्वरूप का बोध होता है। सद्गुरु खी शरण गये बिना जीवन की भ्रांति दूर नहीं होती। स्वामी शिवानंद जी कहते हैं- जीवन्मुक्त महापुरुष आध्यात्मिक शक्ति के भण्डार होते हैं। वे संसार की भिन्न-भिन्न दिशाओं में आध्यात्मिक शक्ति की धाराएँ अथवा लहरें भेजते रहते हैं। उनकी शरण में जाइये, आपके संशय स्वयं ही निवृत्त हो जायेंगे। आप उनकी उपस्थिति में एक विशेष प्रकार के आनंद और शांति का अनुभव करेंगे।”

गीता की विश्वप्रसिद्ध टीका ‘ज्ञानेश्वरी’ के रचयिता संत ज्ञानेश्वर महाराज स्थितप्रज्ञ पुरुष की महानता बताते हुए कहते हैं- “जो आत्मज्ञान से संतुष्ट और परमानंद से पुष्ट हो गये हों, उन्हीं को सच्चे स्थितप्रज्ञ जानो। वे अहंकार का मद दूर कर देते हैं, सब प्रकार की कामनाओं को त्याग देते हैं और स्वयं विश्वरूप होकर विश्व में विचरण करते हैं।”

अष्टावक्र गीता (4.5) में आता है कि ‘ब्रह्मा से तिनके तक चार प्रकार के प्राणियों (जरायुज, उद्भिज्ज, अंडज, स्वेदज) में एकमात्र तत्त्वज्ञ पुरुष की यह शक्ति है कि वह इच्छा और अनिच्छा – दोनों का त्याग कर सके।’

ज्ञानी में कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि नहीं रहता।

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान।

कभी-कभी किसी को प्रश्न हो सकता है कि ब्रह्म सदा अकर्ता है तो ऐसे ब्रह्मस्वरूप में स्थित होने के बाद ज्ञानी महापुरुष लोकहित के लिए ही सही, वृत्तियों को वस्तुओं में क्यों लगाते हैं ?

श्री उड़िया बाबा जी के समक्ष किसी ने शंका प्रकट करते हुए कहाः “ज्ञानी को तो निवृत्त ही रहना चाहिए….?”

बाबा ने कहाः “निवृत्त होना ज्ञानी का लक्षण नहीं है, यह तो शांत अंतःकरण का लक्षण है। ज्ञानी का लक्षण है प्रवृत्ति और निवृत्ति – दोनों में सम रहना।”

महापुरुषों को कर्म करना आवश्यक नहीं रहता। फिर भी प्रवृत्ति, निवृत्ति – दोनों में समता और मिथ्यात्व का अनुभव होने से लोकहित के लिए उनके द्वारा कर्म हो जाते हैं। गीता (3.22-23) में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- “हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।”

भगवान के अवतार तो नैमित्तक होते हैं। वे प्रत्येक युग में कभी-कभी आते हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानी अवतारी महापुरुष तो नित्य अवतार हैं तथा सदैव – हर क्षण, हर पल, हर युग में हर समय में लोक-मांगल्य के लिए किसी न किसी महापुरुष के रूप में धरती पर विद्यमान रहते हैं।

स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए जीवनभर लगा रहता है और जीवन्मुक्त महापुरुष सबके कल्याण के लिए जीवन न्योछावर कर देते हैं। वे विश्व कल्याण के लिए लगे रहते हैं इसीलिए शास्त्रों में उन्हें ‘सर्व-सुहर्द’ कहा गया है।

श्रीमद्भागवत (11.7.12) में भगवान कहते हैं-

सर्वभूतसुहृच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः।

पश्यन् मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः।।

‘जिन्होंने श्रृतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गये हैं, वे समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद होते हैं और उनकी वृत्तियाँ सर्वथा शांत रहती हैं। वे समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरूप – आत्मस्वरूप देखते हैं इसलिए उन्हें फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता।

आचार्य कोटि के जो ब्रह्मज्ञान महापुरुष होते हैं वे शांत, समाधिस्थ होकर सूक्ष्म सृष्टि के जीवों को लाभान्वित करते हैं। वे मौन रहकर आध्यात्मिक शक्तिपात द्वारा जिज्ञासुओं का उत्थान करते हैं। जो मौन की भाषा को नहीं समझ सकते, उनको वे महापुरुष वाणी द्वारा प्रवचन दे के उनके अंतरात्मा को जागृत करते हैं। सामान्य लोग भी उन्नत हो सकें इसलिए वे नृत्य, कीर्तन आदि करते हैं और सेवा-प्रवृत्तियों के निमित्त से उन तक पहुँच के भी उनको उन्नत करते हैं। जो जहाँ हैं उसे वहाँ से ऊँचा उठाते हैं इसलिए वे ‘सर्वसुहृद’ कहे जाते हैं।

भगवत्प्राप्त तत्त्ववेत्ता संत घाटवाले बाबा कहा करते थेः “संत भगवान से भी बड़े हैं। भगवान तो दुष्ट और सज्जन (गुण) दिखते हैं किंतु संत गुणातीत होते हैं, समता होती है उनकी दृष्टि में। गुरुवाणी में आता हैः

साध की महिमा बेद न जानहि।

संत की महानता वेद भी नहीं जानते।’ वेद भी तीन गुणों में हैं। भगवान भी कहते हैं-

त्रैगुण्यविषय वेदा…..

व्यावहारिक सत्ता में भगवान को सज्जन और दुर्जन दिखते हैं फिर भी पारमार्थिक सत्ता में भगवान गुणातीत तत्त्व हैं, जो संत का स्वरूप है।

राजस्थान से वैदिक ज्ञान की गंगा बहाने वाली तत्त्वज्ञानी सहजो बाई कहती हैं-

हरि ने कर्म भर्म भरमायौ (भ्रम में भ्रमित किया)।

गुरु ने आतम रूप लखायौ।।

फिर हरि बंधमुक्ति (ऐसी मुक्ति जिसमें सूक्ष्म माया का बंधनन लगा रहता है।) गति लाये।

गुरु ने सब ही भर्म मिटाये।।

लोग जब तीर्थ में जाते हैं तब पावन होते हैं लेकिन करूणासिंधु ब्रह्मज्ञानी महापुरुष स्वयं लोगों के पास जाकर ईश्वर की प्यास जगा के उन्हें पावन करते हैं। इसलिए ‘परम सुहृद’ कहे गये हैं। भगवान तो हम भजते हैं तब कृपा करते हैं लेकिन महापुरुष तो हम भजे नहीं तो भी कई बार अहैतुकी कृपा करते हुए हमारे पास पहुँच के कृपा करते हैं। भगवान भी जब परमा करूणावान होते हैं तब अपना भगवानपना भूल के (कर्मफल की तराजू छोड़कर) सद्गुरु का रूप धारण कर अर्जुन, उद्धव आदि को उपदेश देते हैं। इसलिए विष्णुसहस्रनाम में भगवान का एक नाम ‘गुरुः’ आया है।

यदि हम तत्त्वदृष्टि से देखें तो भगवान और गुरु एक हैं-

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

लेकिन व्यावहारिक तौर पर भी उनकी तुलना करें तो परम सत्य का प्रतिपादन करने वाले सत्यवक्ता संत कबीर जी ने अपनी लोकहितकारी अमृतवाणी में कहा हैः

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाये।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताये।।

तत्त्वदृष्टि से गुरु और भगवान एक हैं – ऐसा कहा गया है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से जब देखते हैं तो पहला प्रणाम गुरुदेव को है।

ब्रह्मवेत्ता संत सहजोबाई कहती हैं-

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ।

गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।

अनादि काल से चली आयी गुरु-शिष्य परम्परा में प्राचीन काल से गायी जाती रही निम्नलिखित वैदिक प्रार्थना भारत के घर-घर एवं विद्यालयों में आज भी तो गुँजती है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ब्रह्मा जी की नाईं हमारे चित्त में सुसंस्कारों की सृष्टि करने वाले गुरुदेव ! विष्णुजी की नाईं पालन करने वाले प्रभु ! आपने हमारे चित्त में सुसंस्कारों का पोषण किया। महेश्वर की नाईं हमारी कुवासनाओं, कुविचारों और रोगों को स्वाहा करने वाले प्रभु ! इतना ही नहीं, साक्षात् परब्रह्मस्वरूप और हमें भी उसमें जगाने वाले मेरे गुरुदेव ! तं नमामि गुरुं परम्। तं नमामि गुरुं परम्। तं नमामि हरिं परम्।

हे महापुरुषो ! आपने खून का पानी करके भी समाज को ब्रह्मरस से सींचने का जो साहस किया, जो प्रेरणा की, जो प्रसाद दिया आज उसी प्रसाद से समाज में थोड़ी नैतिकता दिखती है, थोड़ा स्वास्थ्य दिखता है, थोड़ी आध्यात्मिकता दिखती है और प्रभु को अवतरित करने का छुपा सामर्थ्य भी कभी न कभी प्रकट होता है। अपने दिल के देवता (अंतर्यामी परमात्मा) को पाने की क्षमता रखने वाले मनुष्य के परम सुहृद, परम हितैषी, अकारण दया करने वाले अयाचक महापुरुषो ! आपके चरणों में प्रणाम हो। जय हो देव, जय हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 2, 8,9 अंक 297

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