अहंकार ही दुखरूप

अहंकार ही दुखरूप


 

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ये जो कुछ दुःख है दुनिया में, जो कुछ परिश्रम करने के बाद भी परेशानियाँ हैं | सब कुछ पाने के बाद भी खालीपना है, खोखलापन है | सब कुछ पाने के बाद भी करना रह जाता है, बहुत कुछ जानने के बाद भी जानना रह जाता है | बहुत कुछ नाक रगड़ने के बा, ग्राहक को नाक रगड़ो, सेट को रगड़ो, पत्नी को रगड़ो, पतियों को रगड़ो, दुनिया भर की खुशामद करो, जीवन भर न जाने क्या-क्या पापड़ बेलो, फिर भी आदमी दुखों से छूटता नहीं | कुछ न दुःख, कुछ न कुछ चिंता, कुछ न कुछ परेशानियाँ, कुछ ना कुछ किसी से बदला लेना, किसी को दिन के तारे दिखाना, ये सब रह जाता है | सारी जिंदगी झक मार लेते हैं, फिर भी निश्चिंत जीवन, पूर्ण जीवन का अनुभव नहींं होता है | हम चाहते हैं निश्चिंत जीवन । चाहते हैं पूर्ण जीवन, पूर्ण सुख, लेकिन सब कुछ कर करा के भी अंत में | एक मनुष्य प्राणी है जो रोता हुआ जन्मता है, फरियाद करता हुआ जीता है और निराश होकर मर जाता है | कुछ न कुछ उसकी आशाएँ अधूरी रह जाती हैं | और अपने को न चाहते हुए भी लाचार, पराधीन, मोहताज मृत्यु की गोद में ढल जाता है | उसके पीछे क्या कारण है ? दुःख प्रकृति में नहीं है | दुःख परमात्मा में नहीं है | और दुःख हम चाहते नहीं हैं | फिर भी सब कुछ करते-कराते, मरते समय दुःख ही रह जाता है | जीवन में विदेश गये, दुबई गये, पैसे लाये, क्या-क्या किया | अरे टाल के बाल भी घिस गये, फिर भी दुःख नहीं मिटता | वह खोजना पड़ेगा के अब दुःख है किसको और मिटे कैसे ! दुःख आत्मा को नहीं है और दुःख जड़ को पता ही नहीं है | दुःख है शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंद, चिद् घन, चैतन्य, परमात्मा के चेतना से जो स्फुरणा हुआ, अपनी चेतना का ज्ञान नहीं और स्फुरणा बहिर्मुख हुआ | और बाहर की परिस्थितियों से जुड़कर अपने को मान बैठा, उसी का नाम है अहंकार | अहंकार  ि‍वमुढात्मा, ि‍व उपसर्ग है |  अहंकार से जो विमूढ़ हो गये, ठीक तरह से मुर्ख हो गये, कर्ताअहम इति मन्येत | जो कुछ क्रिया-कलाप हो रहा है, सूरज अपनी जगह पर है, फिर भी उसके अस्तित्व मात्र से सूर्य में कमल खिलता है | पक्षी चहचाहने लगते हैं | वातावरण में जीवनी शक्ति का प्रादुर्भाव और आकाश की आकाशगंगाएँ बहने लगती हैं अपने-अपने माहौल-वातावरण में | सूर्य अपनी जगह पर है फिर भी पृथ्वी के ऊपर, लाखों-करोड़ों माईल दूर होते हुए भी असर पड़ती है | ऐसे ही आत्मदेव अपनी जगह पर है और ये हो रहा है प्रकृति में | आँख में, नाक में, कान में, रक्त वाहिनियों में कर्म हो रहा है | लेकिन बेवकूफी से आँखें देखती है, बोलते हैं मैं देखता हूँ | कान सुनते बोले मैं सुनता हूँ | जीभ खाती-चखती है बोले मैं चखता हूँ | मन सोचता है, बोले मैं सोचता हूँ | बुद्धि निर्णय करती है, बोले मेरा निर्णय है | मैं अग्रवाल हूँ, मैं पंजाबी हूँ, मैं गुजराती हूँ | खोजो, के जहाँ से मैं उठता है वहाँ न अग्रवाल मिलेगा, ना पंजाबी मिलेगा, ना सिंधी मिलेगा | इस मैं में मसला भर दिया | मैं फलाने का पति हूँ, फलाने की पत्नी हूँ | मेरा फलाना मकान है, फलाना एड्रेस है | ये बस ऐसे कम्प्‍युटर में प्रोग्राम सेव करते गये, ऐसे अहम में ये भरते गये | और फिर जब जरूरत पड़े तो फिर निकलता भी है | जितना-जितना इस खोपड़े में, कम्पुटर में सेव किया – हाँ तमे बोल्‍या  था ना ५ वर्ष पहला, तमारा नाम पश्‍या काका  ??? अरे नहीं पश्‍यो भई, अबे काको थयो, हाँ-हाँ माफ़ करना | तो ये सब भरा किस में हैं ? चैतन्य ज्यों का त्यों है, जड़ को पता नहीं, तो चैतन्य और जड़ के बीच जो स्पंदन है, संकल्प-विकल्प आत्मा को हुआ तो मन हो गया | निर्णय आत्मा को हुआ तो बुद्धि हो गया | चिंतनात्‍मक स्‍फुरणा  हुआ तो चित हो गया | अहमात्मक हुआ तो इसी अहम से – अज्ञाने न आवृतं ज्ञानम ते न मोह्यंती जन्तवा | गीता में आता है | अज्ञान से असली ज्ञान ढक गया, और फिर मोहित हो जाते हैं | और मोह सारे व्याधियों का मूल है, सारे जन्म-मरण का मूल है | सारे दुखों का मूल है | सब कुछ कर-कराते हुए भी ये अहंकार जो है ना विमूढ़ता से आदमी को दुखी करता रहता है | तो अहंकार को नाश करने का यत्न करो | इसीलिए भक्ति मार्ग वाले भगवान के आगे दंडवत करते हैं | गुरु भक्त गुरु के आगे झुकते हैं | गणपति वाले गणेश की मूर्ति बनाकर झुकते हैं | ये सब अहँकार को विलय करने के लिए | सूर्य के आगे सूर्य नमस्कार करके झुकते हैं | माता-पिता के आगे झुकते हैं | ये अहँकार को विसर्जित करने के लिए धार्मिक उपासना और कर्म-काण्ड है | लेकिन अहँकार झुकते-झुकते अंदर बन जाता है के मैं देखो माता को प्रणाम करता हूँ, पिता को प्रणाम करता हूँ | नमाज अदा करता हूँ, भगवान के आगे दंडवत करता हूँ | तो फिर अंदर बन जाता है | जेल में जाने का भी अहँकार हो जाता है | नया कैदी आया, ऐ – कितनी सजा हुई है ? बोले ६ महीने की | बोले हूँ वहीँ रहे, वहीँ, बरामदे में बिस्तर लगा | तुझे पता नहीं २० साल वाले हैं फलाने | तू सिखड़ है, क्या है, किसी का हाथ-पैर तोड़ा होगा | ६ महीने की सजा, कल का छोरा | वहीँ, वहीँ – तो अहँकार – जेल भोगने का भी अहंकार ले आता है | नन्हें बच्चे साईकल चलायेंगें तो देखेंगें कोई जान रहा है तो टनिन, टनिन, टा, टनिन, टनिन, – देख रहे हैं क्या खेल करता है | चवन्नी का चोकलेट देखना  ये सब अहँकार है | जबतक ये अहँकार शांत होता है तो बच्चा प्यारा लगता है | ज्यों अहँकार उभरा, जितना जितना अहँकार दृढ़ होता है उतना-उतना फिर वो फीका हो जाता है | बात करने में भी कोई अपना अहँकार दिखाता है तो उसकी बात रसहीन हो जाती है | महापुरुष और भाषण कोई करे, तो भाषण कोई करता है तो किसी विषय को समझाएगा, तो मैं समझा रहा हूँ, ये उसके अंदर में अहम आएगा | तो सामने वाले को शब्द मिलेंगें लेकिन इतना आदर नहीं होगा | और जिसका अहम नहीं है और सामने वाले का मंगल हो तो कैसी भी टूटी-फूटी भाषा में शबरी बोलेगी, मीरा बोलेगी, रहिदासजी बोलेंगें, नानकजी बोलेंगें, लीलाशाहजी बोलेंगें, कोई भी महापुरुष बोलेंगें तो बहुत प्यारा लगेगा, रसमय लगेगा | क्योंकि सीधी वाणी है – अहँकार हट गया – अहँकार विलय हो गया | तो अहँकार को मिटाना है | जब भी दुःख होता है तो समझो अहँकार को है | चिंता होती है तो अहम को होता है | भय होता है तो अहम को होता है | कर्म बंधन होता है तो अहम को ही होता है | आत्मा को कर्म बंधन नहीं होता | कर्ताभाव से जब कर्म करते हैं तो बंधन होता है | नारायण, नारायण, नारायण, नारायण, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ…….राम राम राम राम राम हरि ॐ, ॐ ॐ | फौजी  हाथ उठाता है तो समर्पित होता है ऐसे ही हम हाथ उठायें तो मानो अहँकार विसर्जन हो, हम भगवान की शरण हैं | हरि ॐ , ॐ……. | दिन में एक-दो बार ऐसा करके, हम भगवान को समर्पित हैं | भगवान को समर्पित होकर अहँकार विलय करना ये भक्ति मार्ग है | ध्यान-भजन करके अहंकार को भगवान में शांत करना ये योग मार्ग है | शिव भक्त बोलेगा शिवजी की पूजा के बिना आनंद नहीं आयेगा शिवजी की पूजा करते-करते थोडा अहम विसर्जित होता है तो बड़ा आनंद आता है | वैष्णव विष्णुजी की पूजा के बाद वो आनंद का एहसास करते हैं | अहँकार थोडा विलय होता है | माता-पिता का भक्त माता-पिता की सेवा करके थोडा अच्छा महसूस करता है | गुरु का भक्त, प्रातःकाल उठिके  रघुनाथा, मात-पिता-गुर नावही माथा | दोनों भाई पग चम्पी करत हैं | कौन कि  राम और लक्ष्मण | अहँकार विसर्जित होता है | राम-लक्ष्मण-जानकी जय बोलो हनुमान की | जहाँ अहँकार विसर्जित होता है वहाँ परमात्म स्वभाव जागृत हो जाता है | तो कुल-मिलाकर अहँकार को मिटाना है | अहँकार में ही द्वेष है, बदला लेने की भावना, लांछन, भय | सब मसाला अहँकार में ही रहता है | इसीलिए अहँकार को मिटाओ तो सब मिट जायेगा | बोले मन नहीं लगता है भगवान में, अरे अपने मैं को लगाओ तो अपने-आप मन लगेगा | जैसे मैं-मैं-मैं बोलते हो, वो मैं कौन हूँ ? ऐसा खोजने से भी वो मैं रूपी अहँकार विलय हो जायेगा | जैसे रस्सी दिख रही है, उसको खोजो, साँप दिख रहा है तो उसको खोजो तो साँप गायब हो जायेगा, रस्सी मिलेगी | ऐसे ही अहम को खोजोगे तो अहम गायब हो जायेगा, परमात्म शांति मिलेगी | आरती – ॐ जय जगदीश हरे, ……….. | …. अहंकार का क्‍या लागे….  तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागत मेरा || जो ध्यावे फल पावे दुःख बिनशे मन का | उस जगदीश्वर को, उस जगत का इश जो चैतन्य परमात्म, ओ उसका चिंतन करने से दुःख बिनशे मन का | सुख सम्म्पति घर आवे, पाप मिटे तन का | उस परमात्मा का चिंतन दुखों को हरने वाला है | चिंतन, भगवान का चिंतन अहँकार की परत को हटाकर गहराई में ले जाता है | इसीलिए भगवान का ध्यान, भगवान की प्रीति…… |

तो कई प्रकार के धर्म, मजहब, पंथ हैं | मुसलमान कहेगा बांग पुकारेंगें, अल्लाह की बंदगी करेंगें | उसको आनंद आएगा, थोडा अहँकार सजदा करने से थोडा शायद उसको अच्छा लगे | शैव शिवजी को प्रार्थना करते हुए – उसको- अहँकार थोडा – अच्छा लगता है | गणपति का पूजा वाला भी, अनजाने में थोडा अहँकार विलय होता है ऐसे ही गुरु भक्त मुक्तानंद स्वामी हो गये | बोले शैव को शिव के पूजन से जो आनंद आता है, वैष्णव को विष्णु के पूजन और ध्यान से | शाक्त को शंकर से, सौर्य को सूर्य भगवान से, गाणपत्‍य को गणपति जी से ऐसे ही मुक्तानंद को अपने गुरुदेव के चिंतन से, ध्यान से, वो ही सच्चिदानंद का सुख मिलता है | तो सच्चिदानंद तो एक है, लेकिन जिसके प्रति तुम्हारा सद्भाव उसके प्रति वो अहँकार की परते हट जाती हैं फायदा होता है | गुरूभक्‍त एकलव्य को हो गया चमत्कारिक फायदा |ध्रुव को हो गया नारदजी से फायदा | गदाधर को हो गया फायदा तोतापुरी गुरु से | नरेंद्र को हो गया फायदा रामकृष्ण से | जिसका जिसके प्रति आस्था होगी, प्रीति होगी और सामने वाला जितना ऊँचा होगा, उतना ही हमारा अहँकार विलय करने में उनकी मदद मिलती है | बड़ा आनंद आता है | मूर्ति में तो भावना करनी पड़ती है भगवान हैं, लेकिन गुरु तो सामने दिखते हैं और उनके अंत:करण का भगवान प्रकट हुआ | तो मैं मेरे गुरूजी को देखते ही आनंदित हो जाता और ज्ञान भी मिलता | इसीलिए बोलते गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा | ब्रह्मा जैसे सृष्टि करते हैं वैसे ही सबका सिंचन करते हैं | विष्णु की नाईं पालन करते हैं सद्भाव का | शिवजी की नाई हमारे अहँकार का संहार करते हैं | गुरु साक्षात पर-ब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नमः || अहँकार को विसर्जित करना है  | अहँकार कई तरीकों से बनता है ऐसे ही विसर्जित भी कई तरीकों से होता है | अौर मैं अहँकार को विसर्जित करूं तो फिर मैं तो बना रहा | वहीं तो अहँकार है | महाराज बोलता है मेरा अहँकार ले लो, मेरा अहँकार ले लो, वो भी विचित्र बात लगती है | कोई आकर बोले मेरा अहँकार ले लो, मेरा अहँकार मार दो, तो भी बात फ़ालतू लगती है | बड़ा सुक्ष्म  है, ज्यों हटाओ त्यों गहरा घुसे, ना हटाओ तो परेशान करे | हटाओ तो गहरा घुसे, ऐसा है ये, इसीलिए गुरु का सान्निध्य चाहिए युक्ति से | काँटे को नहीं निकालो तो मुसीबत करे और थोड़ा सा हिलाओ तो मुसीबत करे | तो क्या करें  ? ……पोटिस बाँधो थोड़ी …. जरा सूजे …. फिर यूं दबोचो तो फटाक निकल जाए ये ऐसा है | बड़ी अटपटी चाल है इस अहँकार को विसर्जित करने में बड़ी अटपटी चाल है | यों तो दंडवत करने वाले करते हैं मंदिरों में | वृंदावन में जाओ तो दंडू, पूरा दंडवत भी नहीं बोलेंगें, दंडू, महाराज दंडू, और दंडवत करते भी हैं | और सरल भी होते हैं लोग, दंडवत करने वाले | अथवा देवी उपासना करते हैं, सरल भी बनते हैं थोडे । कुछ लोग तो मैं सरल हूँ, इस बात का भी अहँकार घुस जाता है | मैं सच बोलता हूँ इस प्रकार कभी अहँकार घुस जाता है |

अरे तुमको क्या बताऊं मैं डीसा में था ना तो साधन-भजन करके लगता था के देखो भई, अपन लोकों को बापू की आज्ञा से सत्संग सुनाते, लेकिन कोई चीज-वस्तु लाता है तो अपन लेते नहीं, बाँट देते हैं | अभी भी अपन घर का खाते हैं | ओ, मैंने कहा, ओऐ-हाेये, घर का खाते हैं, ये भी एक अहँकार है | कान पकड़ा लगाई तपाक | जो कुछ अँगूठी-वंगुठी थी, सामान था, वो वहाँ बेच-बाच के भंडारा कर दिया | हो गये फ्री, अब क्या खाओगे ! भिक्षा माँगने गये | भिक्षा माँगने गये तो जरा जाने में पहले दिन तो बहुत शर्म आवे, संकोच होवे | ११, १२, १ बजा, २ बजे, मैं बोला अब भूख लगी है चलो भिक्षा मांगें | किसी माई के द्वार गये, देखा के रोटी, गर्मा-गर्म फुल्का उतर रहा है | उसको पता नहीं के हम सिंधी जानते हैं | वो सिंधी बाई थी, सिंधी | नारायण हरि | वो बाई ने सुनाई हट्टा-कट्टा टमाटे जैसा लाल, कमाने में जोर आता है | पड़ोस से आटा माँग के आई हूँ, पहला फुल्का देख के खड़ा हो गया | आँखे डाल दी मुये ने, चल, चल, चल | ऐसा सुनाया माई ने लगा के देख अब दुःख किसको होता है ? ऐ… हे… दुःख अहम को होता है | अपमान अहम का होता है, आत्मा का होता है कि  शरीर का होता है | फिर आगे गया तो कोई माई जानकार थी | अरे, अरे ! लीलाशाह बापू का साधक है | दूसरे दिन गये तो कॉलोनी में कोई खीर बना के रखा है, कोई माल पुए, पुड़ी, क्या-क्या | झाँक रहे हैं बस, जैसे कोई दिख गया और सब तैयार हो गये | बाबा इधर-इधर | बाबा माफ़ करो | वो भर दिया करमंडल | वो रास्ते में भिखारी दिखे तो बाँटते-बाँटते अपने हिस्से का लेके, फिर देखा के ये भी झंझट भर गया, छोड़ो | इतने में तो मेरे गुरूजी को लोगों ने समाचार भेजे के साईं आपका साधक है, हम आपके शिष्य हैं | हमारा गुरुभाई रोटी के लिए कालोनी में भीख माँगे, हमारी  इज्ज़त का सवाल है, शरम आती है हमको | हम रोज एक टिफिन भेज देंगें | किसी के घर से भी अथवा तो भिक्षा लेनी है तो कभी किसी के घर से तैयार टिफिन जाएगा | साईं ने उत्तर दिया कि तुम छोड़ो, वो होशियार है और और होशियार बनेगा | उसको जो करता है ठीक है | ये बात फिर मेरे को भक्तों ने बताई, मैंने कहा हश ! अंदर से अहँकार मिटाने के लिए जो करवाता है, भगवान ही है | फिर निकलते कभी-कभी रात को देर से जब जंगल की तरफ निकल जाते के देखें के क्या होता है | हे दारु की भट्टी चले, वो दारु की भट्टी वाला, ऐ बाबा, ऐसा करके गालियाँ बोले | बोले इधर आ, फिर धारिया रखे | धारिया तो लकड़ी पे घुमाओ तो लकड़ी कट जाए, गर्दन क्या होती है ? बोले खेंचुं, ऐसे बड़ी-बड़ी गालीयाँ सुनाये | बोला तेरी मर्जी पूर्ण हो तो उसका धारिया गिर गया । पैरों पड़े | लेकिन उस समय ऐसा नहीं लगा के मैं इतना बड़ा हो गया | मेरे पैरों गिरता है, ऐसा नहीं लगा |  अहँकार हो तो लगे ना | तो ऐसा नहीं लगा ऐसा भी नहीं | भगवान की शांति बनी रही | अगर अहँकार होता तो डर जाते | सफल होते तो अहँकार आता | लेकिन भगवान के ऊपर छोड़कर चल पडे | कभी-कभी मोचियों की बस्ती में चले जाते | शुद्धि-अशुद्धि का, भई ये गंदा है, ऐसा है, वैसा है सब | सुख-दुःख में सम रहते हैं कि नहीं | ऐसा-ऐसा क्या-क्या प्रयोग करते | लेकिन अब पता चला के वो सब करने की जरूरत ही नहीं थी | नये-नये सिखड़ होते हैं ना तो इधर से जाओ, उधर से जाओ, इधर, बस गुरु वशिष्ठ पढ़े और शांत हो गये | मैं कौन हूँ ? जब भी दुःख-सुख आये तो उसको देखें | जब दिखता है तो चैतन्य देखता है | और जो ि‍दखता है, ि‍दखता है माया है | दुःख-सुख अहँकार में होता है | इसको भी जो जानता है, उसकी स्मृति आ जाती है एकदम काम सरल हो जाता है | कुछ लोग पुरानी बातें याद करके दुखी होते रहते हैं | ये अहँकार है | पति ने कुछ कह दिया, पत्नी ने कुछ कह दिया | माता-पिता ने कभी कुछ कह दिया तो पुराना बात ये ऐसा, ये ऐसा, मेरे को तो बड़ा दुःख होता है | जो बीते हुए का दुःख करते हैं वो बहुत-बहुत अपना घाटा करते हैं | बीते हुए को याद करके, मेरा तो बड़ा अपमान हुआ, मेरे को बडी चोट लगी, मेरे को ऐसा लगा, दुखी होते रहते हैं | तो जबभी दुःख आये तो समझ लेना कि अपनी मान्यता, अहँकार ने कोई मान्यता पकड़ी है उसको चोट लगी है | आत्मा में तो दुःख है नहीं | जड़ में भी दुःख नहीं, चेतन में भी दुःख नहीं, तो दुःख कहाँ है ? अहम में है | जबभी दुःख आये या राग-द्वेष होता है तो अहम में ही होता है | ये टांटिया खेंच कार्यक्रम किसमें होता है ? आत्मा में होता है क्या ? अब बधु जे थाये छे आत्मा में होता है ? नहीं | जड़ में होता है, नहीं | तो दुःख प्रकृति में नहीं है, दुःख आत्मा में नहीं है | तो दुःख है अक्स में जिसको बोलते हैं चिदाभास | चिदाभास कैसा, जैसे सूर्य में अँधेरा नहीं, और यहाँ भी अँधेरा नहीं है  | यहाँ कोई पानी की थाली पड़ी है, अथवा आईना पड़ा है तो सूर्य का प्रतिबिंब पड़ा  और प्रतिबिंब से दीवार पर उसका अक्स पड़ा, रिफ्लेक्स पड़ा उसको बोलते हैं चिदाभास | ऐसे ही अंत:करण है, चैतन्य है और उसका अक्स पड़ा बुद्धिवृति पर | ये नाड़ियाँ सूक्ष्म हैं, बुद्धिवृति, तो जैसे भाले की नोक पे चमक हो किसी चीज की | ऐसे ही बुद्धि की वृति में जो अक्स है चैतन्य का उसको बोलते हैं चिदाभास | जैसे इतनी सारी बैटरी है, बल्ब इतना है, कितना है उसका प्रकाश | ऐसे ही बुद्धि वृति पर जो अक्स होता है, उसको चिदाभास बोलते हैं | वो वृति व्याप्ति, एक होती है वृतिव्याप्ति, दूसरा होता है फलव्याप | वृति घटाकार होगी तब घड़ा दिखेगा | अभी ये केबिनाकार वृति बनी, तब केबिन दिखेगी  | केबिन दिखते ही केबिनाकार वृति बन गयी | तो वृति के साथ-साथ चिदाभास चैतन्य है | जैसे बैटरी मारी, कोई चीज दिखी, तो ये प्रकाश है ना | ऐसे ही अपनी वृति में, वृति के अग्र भाग में, जैसे बैटरी के आगे के भाग में प्रकाश होता है | ऐसे ही वृति के अग्रभाग में चैतन्य का चिदाभास, चैतन्य का सत्ता | तो चैतन्य तो भरपूर है लेकिन वृति होती है ना उसके अग्र भाग में उसका अक्स पड़ा | जैसे सूर्य तो सब जगह है लेकिन जहाँ आईना ले जाते हो, तो प्रतिबिंब इधर-उधर घूमता रहता है, अक्स | ऐसे ही वृति कान के तरफ गयी तो सुना, नहीं तो नहीं सुनेगा | वृत्ति किसी की तरफ मन में गयी तो सुना नहीं तो फिर नहीं सुना | तो जहाँ वृत्ति व्‍याप्ति  वहाँ फल व्‍याप्ति होती है | जहाँ-जहाँ वृति व्‍याप्ति होती है वहाँ हूं तो भूली गयो मैं सांभण्‍यों नहीं बरोबर । अरे के सूं करे ध्‍यान राख रे | ध्‍यान राख मने वृत्ति में फल व्‍याप्ति । ऐसा ज्ञान तुम १० साल किताब अपने आप पढ़ते रहो, तो इतना नहीं समझ में आएगा | इसीलिए बोलते हैं ज्ञानदाता गुरु का बड़ा उपकार मानना चाहिए | उनसे गद्दारी करने वाले को बहुत नुकसान होता है | बहुत जन्मों तक नीच योनियों में भटकना पड़ता है | ज्ञानदाता गुरु का जितना उपकार मानो इतना कम है | मैं मेरे गुरुदेव का जितना उपकार मानूं उतना कम है | ये मैं मेरे गुरुदेव के चरणों में बैठकर ही मैं सिखा | किताब पढ़कर नहीं सिखा हूँ ये वृति व्याप्ति है, थल व्याप्ति है, चिदाभास है, अक्स है | तो ये हाँ, दो  प्रकार का अज्ञान होता है इस चैतन्य को  – एक तो होता है – शुरू, शुरू में पढ़ा था, आवरण – अपने आत्मा को ना जानना ये आवरण और दूसरा होता है विक्षेप | शास्त्र से तो जान लिया, परम चैतन्य है, आत्मा है, ये तो जान लिया, फिर भी दुःख नहीं मिटा | तो विक्षेप है – ऊपर से जान लिया वास्तविक में अनुभव नहीं हुआ | तो असत्वापादक आवरण, दो प्रकार के आवरण होते हैं | एक तो ईश्वर के अस्तित्व का पता नहीं | सत्संग सुना तो मान लिया ईश्वर है, सत है, चेतन है, ये मान लिया | असत्वापादक आवरण हट गया, नासमझी हट गयी ईश्वर के विषय में | फिर अभी अनुभव नहीं हुआ | तो अभानापादक आवरण है, मतलब भान नहीं हुआ | मानते तो हैं लेकिन अभी भान नहीं हुआ | तो असत्वापादक आवरण तो शास्त्र ज्ञान से हट जाता है, सत्संग में | अभानापादक आवरण हटाने के लिए थोडा सूक्ष्‍म श्रवण, मनन, नित्याभ्यासन, वेदांत का रास्ता | भक्ति भाव, सेवा, ये उपासना का रंग – निष्काम कर्मयोग – ये कर्मयोग का रास्ता है |

तो लेकिन जो भी करे तत्परता से करे असत्वापादक आवरण तो हट गया, अभानापादक आवरण मिटाने के लिए प्यास जगेगी, भूख जगेगी | अभी भूख है तभी बैठे हैं | राजे महाराजे ये ऐसी बात समझ लेते थे के राज छोड़कर गुरुओं के द्वार पर झाड़ू-बुहारी करते थे | हमने भी बर्तन मांजे, बुहारियां की, ये ऊँची चीज पाने के लिए | है तो साथ में लेकिन उसका भान गुरु कृपा के बिना नहीं हो सकता |

 

धार्मिक तो सब लोग हैं, कोई अल्लाह को मानता है तो वो भी तो धार्मिक हैं बेचारे | ऐसा थोड़े कि  मुसलमान नास्तिक हैं, ऐसा नहीं है | वो भी धार्मिक हैं, आस्तिक हैं | कोई कृष्णजी को माने, कोई रामजी को माने, कोई शिवजी को माने, कोई किसी को माने लेकिन अभानापादक आवरण हट जाए ऐसा कोई सद्गुरु का प्यारा ही जानता है | और कोई कहींं सद्गुरु मिलता है और भूख होती है तब हटता है | सद्गुरु का प्यारा तो हो गया और सद्गुरु भी मिल गया, लेकिन अभी अपना अज्ञान अपने को अभी दुःख नहीं देता है | जहाँ हैं ठीक हैं, चलो दिन बीत रहे हैं तो फिर अभानापादक आवरण नहीं हटेगा | ये सत्संग बार-बार सुनने से पता चलेगा कि अभानापादक आवरण हटना चाहिए, तब हटेगा |

तो मुक्तानंद ने लिखा शैव का सचिदानंद, शैव का आनंद शिव, शिव की पूजा और शिव की भक्ति, वैष्णव का आनंद विष्णु की पूजा और विष्णु की भक्ति | सौर्यवंशियों का आनंद सूर्य की पूजा और सूर्य की भक्ति | गाणपत्‍येां का आनंद गणपति की पूजा और गणपति की भक्ति | ऐसे ही मुक्तानंद का आनंद, हूँ, मुक्तानंद का ईश्वर है नित्यानंद | जैसे शैवों का ईश्वर शिव, वैष्णव का ईश्वर विष्णु, गाणपत्‍येां  का भगवान गणपति ऐसे ही मुक्तानंद का गुरु भगवान है नित्यानंद | मेरा तो शिव ही नित्यानंद, गणपति ही नित्यानंद, मेरे गुरु ही मेरे उपास्य देव हैं | मुक्तानंद की बड़ी ऊँची स्थिति हो गयी | नित्यानंद तो साक्षात् ब्रह्म्वेता संत थे | उनके लिए भी लोगों ने जो कुछ कुप्रचार करना था करते थे | पिछले २००० वर्षों से जभी संत-महात्मा हुए तो उनका डट के कुप्रचार हुआ | उसके पहले थोडा बहुत होता था | फिर भी देखो संस्कृति की रक्षा करने वाले संत होते ही रहते हैं | कुप्रचार होता है फिर भी दूसरे संत भी,  साधक भी संतत्व की तरफ चलते रहते हैं | असत्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण तो ये अहम में हैं | ये आवरण हटे तो अहम हट जायेगा, अहम हटा तो आवरण हट जायेगा | बोले मन नहीं लगता, मन नहीं लगता, खुद कहींं लगे, खुद तो लगे हैं संसार में, मन लगाये भगवान में | कैसे लगेगा ? खुद ही लगे भगवान में | और खुद ही भगवान में लगेगा तो खुद  गायब होता जायेगा | भगवान में लगता जायेगा तो खोता जायेगा | ऐसा नहींं के भगवान में लगे तो अपने कुछ बन जाये, नहीं, अपना मैं मिटता जायेगा, भगवान प्रकट होते जायेंगें | ऐसे नहीं हाथ-पैर वाला भगवान अंदर प्रकट होता है, नहीं | भगवान का सतस्वभाव, भगवान का चेतन स्वभाव, भगवान का आनंद स्वभाव… वो प्रकट होता जायेगा | भगवान थे, भगवान हैं और भगवान रहेंगें | शरीर पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | दुःख पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | सुख पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | लेकिन इसको जानने वाला पहले था, अभी है, बाद में रहेगा | तो भगवान ही ठोस हैं | लेकिन नासमझी से असत्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण से संसार पहले भी दीखता है, अभी भी है, बाद में रहेगा | ऐसा लगता है लेकिन भगवान क्या पता हैं के नहीं | भगवान ही तीनों काल में हैं लेकिन ये आवरण के कारण लगता है के भगवान कभी कहीं मिलेंगें | कभी मिलेंगें, कहीं पर होंगें | और हम तो हैं, जगत अभी है, पहले था, बाद में रहेगा | नहीं, भगवान ही पहले थे, अभी है, बाद में रहेंगें | जगत पहले नहीं था, शरीर पहले नहीं था, भगवान थे | ये शरीर पहले नहीं था, लेकिन मैं जहाँ से उठता है वो पहले था | ये शरीर मर जाने के बाद भी मैं जहाँ से उठता है वो चेतन रहेगा | तो वास्तव में भगवान ही थे, भगवान ही हैं और भगवान ही रहेंगें | क्योंि‍क असत्वापादक और अभानापादक आवरण की ऐसा लीला है के लगता है के भगवान कहीं दूर हैं | कभी मिलेंगें तो मिलेंगें | भगवान हैं के नहीं ऐसा भी अहँकार बना देता है | कुछ लोग तो ऐसा बोल देते हैं के भगवान की भक्ति की क्या जरूरत है ? अरे ! मनुष्य की माँग का नाम है भगवान | मनुष्य की माँग क्या है ? मैं सदा सुखी रहूँ | सहज में सुखी रहूँ और कभी दुखी ना होउं  | तो जो सदा है, सहज है और निर्दुख है उसी का नाम भगवान है | भगवान की माँग, मनुष्य की माँग ही भगवान है | ये समझ ले के मैं एयर कंडीशन चाहता हूँ, ये झूठी बात है, पत्नी चाहता हूँ झूठी बात है | पत्नी भी सुख के लिए चाहते हैं, एयर कंडीशन भी सुख के लिए चाहते हैं, पति भी सुख के लिए चाहते हैं | और वो सुख नित्य रहे | तो पत्नी का सुख, एयर कंडीशन का सुख नित्य नहीं रहता | जो नित्य है वो तो भगवान ही है | और वो सुख स्वरूप भी  है, चेतन स्वरूप भी है, आनंद स्वरूप भी है और सदा अपने साथ है | पति-पत्नी का शरीर या उनकी अनुकूलता सदा साथ में नहीं रहेगी | लेकिन वो सत, चित, आनंद, परमेश्वर स्वभाव सदा साथ में है | तो उसकी जागृति करना | उसके ऊपर परते गिरी हैं | मैं फलाना हूँ, ये मिल जाये तो सुखी, ये हो जाये तो सुखी, उसमें वो मिट जाते हैं | जैसे पानी के बल से, पानी के बल से ही उस पर काई जमती है, सेवार | और उसमें जो जंतु होते हैं उन में भी पानी का अस्तित्व होता है | और वो काई पे ही घूमते रहते हैं और पानी के मूल का पता नहीं | हालांकि काई में भी पानी है, उनके शरीर में भी पानी है, और काई बनी है पानी पे | तो सब पानी ही पानी है | फिर भी पानी के अस्तित्व को नहीं जानते | ऐसे ही हमारी ये माया रूपी काई है | और उस पर ये जीवात्मा रूपी जंतु है और परमात्मा रूपी जल है | तो माया में भी परमात्मा की चेतना है, पृथ्वी में भी परमात्मा की चेतना है तभी तो पेड़-पौधे उभरते हैं | जड़ में परमात्म चेतना  है तभी तो स्वाद है | अग्नि में, चंद्रमा में परमात्म चेतना  है तभी तो उनका ताप और औषधि पुष्ट करता है | तो भगवान हैं, और भगवान में प्रकृति है और प्रकृति में भी भगवान हैं | और प्रकृति से पैदा हुए उनमें भी भगवान हैं | बोलते हैं वासुदेव सर्वम इति, स: महात्मा सुदुर्लभ | ऐसे ही वासुदेव है सब, सब में बसा है इसी का नाम वासुदेव | चतुर्भुजी नारायण अपने को वासुदेव स्वरूप में जानते हैं इसीलिए वो भगवान वासुदेव हैं | लेकिन केवल चतुर्भुजी वासुदेव नहीं हैं | वो वासुदेव तत्व उनका वासुदेव है | बहुत ऊँची अनुभूति है | शांत | साढे आठ पौने नौ बज जाते हैं और इतने सारे लोग आश्चर्य है | यहाँ भी बाहर बैठे हैं | वहां भी, हॉल के सामने भी बाहर बैठे हैं | हॉल के दाई और भी लोग बाहर बैठे हैं | अब पौने नौ बज गये | और जगह हो रहा है क्या सत्संग आज का | कितने राज्यों में हो रहा है ? कहाँ-कहाँ हो रहा है ? ये सत्संग बड़ा सारगर्भित है | कहाँ-कहाँ हो रहा है ? इस सत्संग को आत्मसात कर लो | अहँकार ही दुखदाई है | अहँकार ही जन्म-मरण में ले जाता है | अहँकार में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिंता, भय, शोक, सारा झंझट उसी में है | इसीलिए अहँकार को नष्ट करो, ऐसे भगवान वशिष्ठजी अपने प्यारे सतशिष्य, परम योग्य सतशिष्य श्री रामचंद्रजी को कहते हैं | अब रामचंद्रजी को जो ब्रह्मज्ञान मिल रहा है, हम लोग रामचंद्रजी नहीं हैं, फिर भी हमको वो ब्रह्मज्ञान मिल रहा है तो हमारा कितना बड़ा भाग्य है | कितनी बड़ी उन्नति हो रही है | साधो, साधो… | हम भगवान राम नहीं हैं लेकिन भगवान राम को जो दिव्य ज्ञान मिल रहा है वो ही हमको मिल रहा है | हमारे कर्मों की बराबरी कौन कर सकता है | हमारे भाग्य की सरहाना हम क्या करें, कितनी करें | हे रामजी इस अहँकार को ही मिटाओ और रामजी ने तो गुरु के वचन जानकर अहँकार को तो विलय कर दिया तभी तो भगवान राम | श्री रामचंद्र कृपालु भजन मन, हरण भव भय दारुणम | राम, राम, राम | किसी को पुरानी बातें याद आती हो – देखो मेरे से भाई ने ऐसा व्यवहार किया, पत्नी ने ऐसा किया, पति ने ऐसा किया, दुःख की गाँठ बंध गयी हो, तो उस दुःख को मिटाने के लिए कोशिश करोगे तो और मजबूत होगा | भूतकाल की बातें याद आती हैं, दुःख ही दुःख है, मैं भूलने की करती हूँ | मन को कहती हूँ  मुआ भूल लेकिन नहीं भूलता है | जितना मुए को समझाती हूँ उतना ही मुआ नहीं भूलता है | तो कैसे भूलेगा | समझाने वाला मैं है तो भूलेगा कैसे ? इधर मत देखना तो देखेगा | ये मत पढ़ना, तो पढ़ेगा | इनकार भी तो आमन्त्रण देगा ना | भूलने की मत करो, याद भी मत करो | तो क्या करो ? ब्रह्माजी के पास नारदजी गये  के लोग दुखी हैं, भूतकाल की बातें याद करके दुखी हैं | राग-द्वेष में दुखी हैं | सब कुछ छोड़कर लोग जाकर तीर्थ में बैठे और वहाँ के पवित्र वातावरण में जरा सुख-शांति मिले तो वहाँ तीर्थों में भी ढोंगी, पाखंडी लोग भी हैं | और इधर पैसा रखो अथवा पकोड़े खा लो, ये खा लो, चटोरापन भी है | मनुष्य जन्म पाकर भी परमात्मा शांति नहीं है | लोग उससे दूर हैं | पिताजी उनके दुःख को देखकर मैं बड़ा दुखी हूँ | ये संत हृदय है, दुसरे का दुःख मिटाने के लिए द्रवीभूत होता है | तो भगवान ब्रह्माजी अपने सपूत नारदजी का वचन सुनकर द्रवीभूत हो गये | और ब्रह्माजी ने तीन अंजली पानी लिया, ध्यानस्त हो गये | अब ब्रह्माजी को तो अहम कहाँ है, सीधे ब्रह्म में लीन हो गये | ब्रह्माजी के लिए तो घर की खेती थी ना | मैं ब्रह्माजी हूँ और ध्यान करता हूँ ऐसा नहीं होता उनको | जैसे तुम लोग ध्यान करने बैठते हो तो ध्यान करने वाला रहता है | ऐसे ही ब्रह्माजी नहीं रहते हैं के मैं ध्यान कर रहा हूँ | मेरे गुरूजी जब ध्यान कर रहे थे तो ऐसा थोड़े ही सोचते हैं के मैं ध्यान कर रहा हूँ, लीलाशाहजी हूँ | ऐसा नहीं होता, वो तो सीधे निसंकल्‍प, चुप | ब्रह्माजी भी निसंकल्‍प , परमात्मा में शांत हो गये | तो वहां से दिव्य ज्ञान आता है, मधुमय दृष्टि बरसाई | पुत्र ये कलयुग के दोषों से तरने का उपदेश सुन लो | जो उपदेश दिया वो कलितरणोंपनिषद बन गयी | कलियुग से तारने वाली उपनिषद बन गयी | तो आम आदमी को क्या करना चाहिए | बोले कलयुग के दोषों को हरने के लिए हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | अब निवाई गौशाला जयपुर वाले भी सुन रहे हैं सत्संग, और सुरत आश्रम के लाले सुन रहे हैं सत्संग | भोपाल के भक्त और भोपाल के साधक सुन रहे हैं सत्संग | लेकिन भोपाल के साधकों का सौभाग्य है कि भोपाल का संचालक कृष्णानी साधू स्वभाव का है | साधू है, साधू | कृष्णानी उनको बोलना, वो उनकी मजाक उड़ाना है | उनको कृष्णानी बोलना उनको गाली देना है | उनको दादा, बाबा बोलना ये भी | वे तो कृष्णानंद हैं | इतने पक्के, निष्ठावान संचालक हैं और ईमानदार के उनको कृष्णानी बोलना समझो उनको हम नहीं पहचानते | ये भोपाल के संचालक कृष्णानंद सुन लें, कृष्णानी नहीं | कृष्णानी मर गये और कृष्णानंद प्रकट हुए हैं | फिर मेरठ वाले भी सुन रहे हैं | टाल-बाल वाले जो भी हैं | बम्बई वाले सुन रहे हैं, दिल्ली वाले, समझी गयो, समझी गयो, दिल्ली के दुलारे | हरि के प्यारे दिल्ली आश्रमों में सुन रहे हैं | ग्वालियर आश्रम में सुन रहे हैं | देवास वाले सुन रहे हैं | और आैरंगावाद सतूर-सतुराई करो, फिर अहमदनगर सुन रहे हैं | आगरा वाले, भावनगर, बरोड़ा वाले भी सुन रहे हैं | मेघजी भाई संचालक भी सुनते होंगें उनके साथ | पूना के प्यारे भी सुन रहे हैं और नागपुर के नारायण भी सुन रहे हैं और जयपुर के जुपिटर भी सुन रहे हैं | हांगकांग वाले भी सुन रहे हैं | अमेरिका में शिकागो वाले भी सुन रहे हैं तो मैं आज सोचा के देर हो गयी है, के थोडा काम था, आज काम पे नहीं जाऊं तो चला लेंगें | उधर वो प्रोजेक्टर पर सुनते होंगें | मैं सोचा नहीं जाऊं फिर लगा के चलो जाके आये | ये तो अच्छा हुआ के मैं आया | तो इतने देशों में, परदेश में लोगों को सत्संग मिल गया | साधो, साधो, साधो, साधो | तो ये जो भी सुनते हैं चाहे अमेरिका वाले सुन रहे हैं, चाहे हिंदुस्तान वाले सुन रहे हैं चाहे हांगकांग वाले | सचमुच, आप सचमुच कितने भाग्यशाली हो उसको तोलने वाली तराजू ब्रह्माजी की बनी नहीं | और बन भी जाए तो टूट जाएगी | इतना पूण्य लाभ होता है वो तोल नहीं सकते | साधो, साधो | मैं जानता हूँ के हांगकांग वाले, भोपाल वाले, कृष्णानंद महाराज, अब मैं कृष्णानंद जी बोलूँगा | प्रमोशन हो गया भोपाल के कृष्णानंद का | नहीं हुआ ! कृष्णानंद के पूण्य, कृष्णानी के पूण्य से कृष्णानी के बच्चे इतने ऊँचे पद पे पहुँचे | कृष्णानी के ही पूण्य प्रभाव से, नहीं तो, संभव ही नहीं है, संभव ही नहीं है | सांईं के घर तक पहुँचना संभव ही नहीं है | लेकिन कृष्णानी के पूण्य ने परिवार को चमका दिया | वफादार शिष्य, सच्चा, वफादार सतशिष्य | ऐसे कई हैं माई के लाल, एक-एक के नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है | सब अपनी-अपनी जगह पर, जितना जो वफादार उतना उसका असत्वापादक आवरण गायब, अभानापादक आवरण काफी कम हो जायेगा और अपने आप में तृप्त रहेगा | कृष्णानी ने कभी नहीं कहा मेरे को छुट्टी दो | मैं इधर जाऊं घुमने को, इधर जाऊं यात्रा करने को | ऊँ-हूँ, बस लगे तो लगे, अपने आप में ही तृप्त | ऐसी बात है | जिनको गुरु में दृढ़ श्रद्धा होती है उनको देश-परदेश इधर-उधर जाकर सुख लेने की जरूरत नहीं पड़ती | वो तो जो सेवा कार्य, अभी बिहार में और कोई संस्थाएं नहीं पहुँची हैं  लेकिन हमारी समिति वालों ने शुरू कर दिया है | कार्य चालू हो गया | भोजन बनता है, और लंगर चलता है | जो आये खाए लेकिन सब्जी-वब्जी मिलती नीहीं बेचारों को | थोडा बहुत आलू-वालू डाल के खिचड़ी-विचडी बनाके, मैंने कहा जीरा-वीरा डाल के थोड़ा बढ़िया बना के खिलाओ | फलानी जगह चालू है भंडारा, लंगर, फलानी जगह चालू है | दूसरा सामन भी भेज रहे हैं | दवाइयों की लिस्ट भी बनी हैं, वो ट्रेन में जायेगी दवाई | मोबाइल वैन भी जाने को हमने बोल दिया है, जाए | तो सेवा हो रही है तो अच्छी बात है | हम चाहते हैं के हम भी चले जाएँ बिहार | लेकिन जाउँगा तो लोग फिर आगे-पीछे | देखता हूँ कैसा जमता है | बिहारी लोगों को भी वहाँ सत्संग मिलता रहे ऐसा प्रोजेक्टर-व्रोजेक्टर बोल देना चालू करें और उनको सांत्वना दें | बर्तन-वर्तन भी खरीदे जा रहे हैं, कपड़े, बर्तन ये-वो सब | नारायण, नारायण, नारायण, नारायण…… |

कुल-मिलाकर अहँकार को नष्ट करो | और ज्यों नष्ट करोगे त्यों लड़ेगा | ज्यों बंदर को, लो बेटा ये मंत्र करो, लेकिन बंदर को याद मत करना | बंदर याद ना आये तो याद ही आएगा | हद हो गयी, बंदर जाता ही नहीं, आँखों से ओझल ही नहीं होता | रात भर यूँ आँखे, करवट ले तो भी बंदर दिखे | सुबह गया गुरूजी को बोला, गुरूजी ये क्या क्या आपने कह दिया ये मंत्र देता हूँ | मंत्र जपना और बंदर को याद मत करना | अब तो बंदर ही बंदर हो गया है | मंत्र तो गौण हो गया है, बंदर ही ि‍दखता हैए हरामजादा  | गुरूजी ये कैसे बंदर दे दिया ? बोले बस, बंदर को याद नहीं करना ये मैंने दिया तो आया बंदर | तो हम जो नहीं चाहते वही हो जायेगा फिर | तो चाहने से भी होता है, ना चाहने से भी होता है | आप कुछ मिटाना चाहते हो तो भी गहरा होते हो क्योंकि आप सत्ताधीश है | तो क्या उपाय है, उपेक्षा | आप बैठे हैं, ये विचार आये, तो ये विचार नहीं आये, तो भी आयेंगें | और ये विचार आयें ऐसे करते रहोगे तो भी विघ्न होगा | इस विचारों को महत्व ही नहीं दो | सब शांति, विचार आये, गये | उसको जानने वाला चैतन्य प्रभु मेरा, मैं प्रभु का | ॐ आनंद, ॐ शांति, फिर दीर्घ प्रणव, फिर चुप | मंत्र जाप के बाद, जो भी अनुष्ठान करती हैं बच्चियाँ, महिला आश्रम में, बच्चे इधर | तो कभी-कभी श्‍वांस को देखे | अभी ये अहँकार में आया | ये अहँकार है के नहीं, इसको जो जानता है वो कौन है | तो ऐसे करके शांत हो जाओगे तो अहँकार की परतें ढीली हो जाएँगी | ईश्वर में आ जाओगे, अनजाने में ही | अये होये होये… साधो, साधो | ब्रह्माजी के पास तराजू नहीं बनी अभी कितना पूण्य हुआ | हुआ है ? पूण्य होता है ? ज्ञान बढ़ रहा है ? भक्ति बढ़ रही है ?

हाँजी – ठीक है |

 

ये तीन होते-होते रसोड़े में | ये  एक… दो… तीन में तो रसोड़े में | एक.. दो.. अढ़ाई, दौड़ो-दौड़ो-दौड़ो | जा ख्ख्म-खखैया खा-खा-खा | 

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