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सनातन संस्कृति के पर्वों-उत्सवों का मुख्य उद्देश्य – पूज्य बापू जी


भारतीय संस्कृति के उत्सवों में 4 बातें आती हैं-

हमारे शरीर की तन्दुरुस्ती की रक्षा हो।

हमारे मन में उदारता हो।

हमारा सामाजिक सद्व्यवहार और आपकी सौहार्द बढ़े।  हमारे मन का किसी से बेमेल हो गया हो तो त्यौहारों के द्वारा एक दूसरे के नजदीक आ जायें, आपस में मिलें ताकि चार दिन की जिंदगी में एक-दूसरे से द्वेष न रहे। फिर होली खेलने की पिचकारी के बहाने या दीवाली की मिठाइयों के बहाने अथवा उत्तरायण के लड्डू देने-लेने के बहाने या और किसी पर्व के बहाने हम अपने मन कि विषमता मिटायें।

हम अपने भीतर के आनंद को जगायें। हर उत्सव में ज्ञान, भक्ति का वर्धन, वस्तुओं का सामाजीकरण, हृदय का एक दूसरे से मिलन और शरीर की तन्दुरुस्ती के साथ-साथ जीव का मूल लक्ष्य है अपने भीतर के आनंद को जगाना। तो ऐसे उत्सवों का आयोजन ऋषियों, महापुरुषों ने किया। भारतीय संस्कृति अभी भी जीवित है, इसका एक मुख्य कारण है कि इसमें इतने सारे उत्सवों की बड़ी सुन्दर व्यवस्था है।

अगर ठीक ढंग से सुख, प्रसन्नता और आनंद मिलता है तो जीव उन्नत होता है, नहीं तो गलत ढंग से सुख और आनंद की तरफ जाता है और अपना विनाश कर लेता है।

निर्विकारी प्रेम, प्रसन्नता, आनंद इंसान की जरूरत है क्योंकि उसकी उत्पत्ति आनंद से हुई है। आनंदस्वरूप परमात्मा से ही तुम्हारा संकल्प फुरा और जीने की इच्छा हुई तब नाम ‘जीव’ पड़ा। तुमने निर्णय किया तभी उस फुरने का नाम ‘बुद्धि’ पड़ा। तुमने संकल्प-विकल्प किया तब उसी फुरने का नाम ‘मन’ पड़ा और इन्द्रियों के द्वारा तुमने पदार्थों को पकड़ने तथा भोग के सुखी होने की इच्छा की, अपने को कर्ता-भोक्ता मान के सरकने वाली चीजों को सत्य मानकर उलझे तो नाम ‘संसारी’ पड़ा।

इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है। कमबख्त खुदा होकर भी बंदा नजर आता है।

तुम शुद्ध-बुद्ध चैतन्य से स्फुरित होकर जीवभाव में आये, फिर बुद्धिभाव में आये, फिर मनःभाव में आये, इन्द्रिय भाव में आये फिर संसार की चीजों में आये तब हो गये संसारी !

अब उन संसारी जीवों को फिर मूल शिव (परमात्मा) की तरफ ले जाने के लिए सूक्ष्मता से विचार करके उत्सवों और सत्संगों का आयोजन अगर कहीं किया गया है तो वह इस सनातन संस्कृति में किया गया है।

तो जीव को शिवत्व में जगाने में एक मुख्य सहयोगी हैं अपनी संस्कृति के उत्सव और निमित्त बनते हैं भारत के ब्रह्मवेत्ता, आत्मज्ञानी, निर्दोष नारायण में जगे हुए, आत्मसाक्षात्कार किये हुए महापुरुष और उनके द्वारा रचित भारत के सद्ग्रंथ। ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष इस संस्कृति को जीवित रखने में मुख्य कारण हैं और छोटे-मोटे बहुत कारण हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 10 अंक 300

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सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है


योगी अरविन्द जी को षड्यंत्र के तहत वर्षभर जेल में रखा गया। जेल के एकांतवास में उन्हें  भगवान के दर्शन हुए और भगवत्प्रेरणा से सनातन धर्म से सम्बंधित कई रहस्यों की अनुभूति हुई। जेल से रिहा होने के बाद 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा (प. बंगाल) में हुई एक सभा में उस अनुभूति को उन्होंने देशवासियों के सामने रखाः

जेल के एकांतवास में दिन प्रतिदिन भगवान ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिन्दू धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया। पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे। मेरा लालन-पालन इंग्लैंड में विदेशी भावों और सर्वथा विदेशी वातावरण में हुआ था। एक समय मैं हिन्दू धर्म की बहुत सी बातों को मात्र कल्पना समझता था, यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न, भ्रम या माया है परंतु अब दिन-प्रतिदिन मैंने हिन्दू धर्म के सत्य को अपने मन में, अपने प्राणों में और अपने शरीर में अनुभव किया। मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगीं जिनके बारे में भौतिक विज्ञान कोई व्याख्या नहीं दे सकता। जब मैं पहले पहल भगवान के पास (शरण) गया तो पूरी तरह भक्तिभाव के साथ नहीं गया था।

मैं भगवान की ओर बढ़ा तो मुझे उन पर जीवंत श्रद्धा न थी। उस समय मैं नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान हैं भी। मैं उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था, फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर, हिन्दू धर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया। मुझे लगा कि वेदांत पर आधारित इस धर्म में कोई परम बलशाली सत्य अवश्य है। मैंने यह जानने का संकल्प किया कि ‘मेरी बात सच्ची है या नहीं ?’ तो मैंने भगवान से प्रार्थना कीः ‘हे भगवान ! यदि तुम हो तो तुम मेरे हृदय की हर बात जानते हो। मैं नहीं जानता कि कौन-सा काम करूँ और कैसे करूँ ! मुझे एक संदेश दो।’

मुझे संदेश आया (भगवद वाणी सुनाई दी)। वह इस प्रकार थाः ‘इस एक वर्ष के एकांतवास में तुम्हें वह चीज दिखायी गयी है जिसके बारे में तुम्हें संदेह था, वह है हिन्दू धर्म का सत्य। यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है। तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी, जो संदेह था, उसका उत्तर दे दिया गया है क्योंकि मैंने अंदर और बाहर स्थूल और सूक्ष्म – सभी प्रमाण दे दिये हैं और उनसे तुम्हें संतोष हो गया है।

जब तुम बाहर निकलो तो सदा अपनी (सनातन हिन्दू धर्म की) जाति को यही वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के लिए उठ रहे हैं, वे अपने लिए नहींह बल्कि संसार के लिए उठ रहे हैं। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा। धर्म के लिए और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व  है। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 9 अंक 300

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संत संग से सधते हैं सब योग-पूज्य बापू जी


सत्पुरुषों का सान्निध्य बड़े भाग्य से मिलता है। कद्र करें न, तो तर जायें। कद्र तो करते हैं लेकिन फिर महापुरुषों से मनचाहा कराना चाहते हैं। मनचाहा नहीं कराना चाहिए, उनके अनुभव में, मार्गदर्शन में स्वयं चलने को तैयार होना चाहिए। मन तो अपने कोई कई जन्मों से भटका रहा है। उसके अनुसार हो तब सुखी होना-इसमें तो कुत्ता भी राज़ी हो जाता है, इसमें क्या बड़ी बात है ! सात साल (डीसा निवास के दौरान) कैसा-कैसा हमारे मन के विपरीत हुआ तब भी हम डटे रहे। ….तो मन से पार होना है न !

संतों के संग से कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग – तीनों योग हो जाते हैं। संतों के चरणों में रहने से सेवा मिल जायेगी… कर्मयोग हो गया, संतों के प्रति सद्भाव होगा… भक्तियोग हो गया और संतों के पास रहेंगे तो सत्संग स्वाभाविक, मुफ्त में मिल जाता है…. ज्ञानयोग हो गया।

साचा संतोने1 वंदन प्रेमथी रे2 …।

3 तो जगमां4 चालता5 छे भगवान।।

  1. संत को 2. प्रेम से 3. ये 4. जग में 5. चलते फिरते

भगवान का साकार रूप संत ही होते हैं। निराकार ब्रह्म तो नित्य विद्यमान है लेकिन उसे देखना हो तो वह संतों के रूप में होता है।

श्री योगवासिष्ठ में वसिष्ठ जी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जो संतजनों का संग करता है, सत्शास्त्र और ब्रह्मविद्या को बारम्बार विचारता है, उसकी बुद्धि संतजनों के संग से बढ़ती जाती है। जैसे शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला दिन-प्रतिदिन बढ़ती है, वैसे ही उसकी बुद्धि बढ़ती है और विषयों से उपरत होती है।

संतों के वचनों का निषेध करना मुक्तिफल का नाश करने वाला और अहंतारूपी पिशाच को उपजाने वाला है। इसलिए संतों की शरण में जाओ और अहंता को दूर करो।”

संतों की बात काटना, उनमें दोष देखना, उनके संकेत को अन्यथा लेना मुक्तिफल और पुण्यों का नाश कर देता है और उनके वचनों का आदर सदगति देने वाला है। इसलिए ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण जाओ, अहंता दूर करो। देह में अहं है और वस्तुओं में मम (मेरा पन) है। अहंता दूर हुई तो ममता हट जायेगी।

मैं अरु मोर तोर की माया।

शरीर को मैं और चीज वस्तुओं को मेरा मानता है…. असली मैं से दूर हो गया। असली मैं की तरफ आना है तो थोड़ा समय एकांत में जा के असली मैं में चले गये। एक बार असली मैं को जान लिया तो फिर नकली मैं का व्यवहार चलेगा, कोई फर्क नहीं पड़ता। संत संग करते-करते पहले की हल्की बुद्धि हटती है, दिव्य बुद्धि बनती जाती है। जैसे लौकिक विद्या से अनजान विद्यार्थी पढ़ाई करते-करते स्नातक हो जाता है, ऐसे ही अध्यात्म-विद्या में भी है।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा….. पहले व्यक्ति आत्मवेत्ता महापुरुषों से वेदांत ज्ञान सुनता है, उसका विचार करता है फिर ध्यान करता है, सत्कर्म करता है। धीरे-धीरे वह ज्ञान अनुभव में आता है तो विज्ञान (आत्मानुभव) बन जाता है और फिर आत्मतृप्ति होने लगती है। हर लाख लोगों में एक पुरुष भी आत्मतृप्त हो जाय तो संसार 5 मिनट में स्वर्ग हो जाय। जो दिव्य संस्कार लाख-दो लाख में नहीं मिलते है, करोड़ों में नहीं मिलते हैं, वे दिव्य संस्कार देते हैं आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष। जो लोग ऐसे महापुरुषों से वह ज्ञान पाते हैं उनके कुटुम्ब का, खानदान का तथा वातावरण व समाज का कितना भला होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 25 अंक 300

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