तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि
तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः।
यस्यानुषङिगण इमे भुवनाधिपत्य-
भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।।
‘हे मन ! अंतरहित, जरा-मरण आदि रहित, सर्वोत्कृष्ट, सर्वव्याप होने से सर्वत्र भासमान उस ब्रह्म का ही चिंतन किया कर। इन व्यर्थ के संदेहजनक विचारों से क्या लाभ ? ब्रह्मविचारशून्य हृदयवालों को ही ये राज्य और स्वर्ग आदि भोग इष्ट लगते है। ब्रह्म में नित्य प्रीति रखने वाले को ये भोग तुच्छ ही लगते हैं।’ (वैराग्य शतकः69)
पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता है कि “हम लोगों का जीवन ऐसा है कि सपने सोने नहीं देते और व्यर्थ विचार आत्मा में जगने नहीं देते। लोग व्यर्थ के विचारों में उलझ कर दिन खपा देते हैं और सपनों के किले बाँध के रात बिगाड़ लेते हैं।
ऐ मन ! आशा तृष्णा को तू छोड़। आशा करनी है तो एक अपने अन्तर्यामी चैतन्यस्वरूप की कर, दूसरी आशाएँ करके अपने को बाँध मत। तेरी आज की आशाएँ कल का भविष्य हो जायेंगी। तेरी आज की वासनाएँ कल का प्रारब्ध बन जायेंगी और फिर तू वहाँ फँसेगा। आज तक जो तूने देखा, भोगा, खाया उससे तेरा कोई भला नहीं हुआ और आज के बाद भी इनकी आशा करके भविष्य को बिगाड़ मत। अगर आशा नहीं छूटती है तो यह आशा कर कि ‘मुझे आत्मपद की प्राप्ति कब होगी ? मैं जीते जी अपनी अमरता का साक्षात्कार कब करूँगा ?’ इस प्रकार का चिंतन करके हे मानव ! तू आशारहित हो और अपने अंतरात्मा में गोता मार।
आशा एक आत्माराम की, और आश से हो निराश।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 23 अंक 301
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