एक महात्मा सत्संग में कहा करते थे कि महात्मा सुलभ भी हैं और दुर्लभ भी। सज्जनों, श्रद्धालुओं के लिए महात्मा सुलभ हैं और दुर्जनों के लिए वे दुर्लभ हो जाते हैं। क्योंकि दुर्जन लोग महात्मा को देखकर भी अपनी दुष्ट वृत्ति से उनमें दोष ढूँढेंगे, उनमें अश्रद्धा हो ऐसा तर्क-वितर्क करेंगे। दुष्ट वृत्ति, आलोचना वृत्ति, नकारात्मक वृत्ति वाले ऐसे लोगों के लिए महात्मा दुर्लभ हो जाते हैं, उनको महात्मा दिखेंगे ही नहीं।
संत कबीर जी के विरोधियों को कबीर जी महात्मा नहीं दिखते थे, महात्मा बुद्ध के निंदकों को बुद्ध महात्मा नहीं दिखते थे, नानक जी की आलोचना करने वाले अभागों को गुरु नानक देव महात्मा नहीं दिखते थे। कितना विरोध हुआ नानक जी का और उनको 2-2 बार जेल में डलवा दिया मूर्खों ने। जिन्होंने नानक जी को जेल में डलवाया वे मूर्ख तो कितनी पीढ़ियों तक नरकों में सड़े होंगे हमें पता नहीं लेकिन नानक जी तो अभी भी लोगों के हृदय में हैं, मुक्तात्मा हैं। और मुक्तात्मा का तुम क्या बिगाड़ सकते हो ? नानक जी का शरीर जेल में रहा लेकिन नानक जी तो ‘हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।’ उसी में स्थित थे। ऐसे ही कबीर जी की निंदा करने वालों ने उनका क्या बिगाड़ा ? निंदकों ने अपना अंतःकरण तपाया, पुण्य नाश किया, अपने को नरकों में ले गये !
सज्जन अगर दुर्जन वृत्ति रखता है तो उसके लिए भी महात्मा दुर्लभ हो जाते हैं। मान लो, अभी तो किसी के लिए महात्मा, गुरु जी सुलभ हैं लेकिन उसने अपने गुरु जी में दोष देखा तो वह हो गया दुर्जन ! उसके लिए गुरु जी का महात्मापना दुर्लभ हो गया, अब दोष दिखेंगे।
श्रद्धा है, सज्जनता है तो महात्मा सुलभ हैं लेकिन जिसकी श्रद्धा में कोई पापकर्मच आड़े आता है, कोई खान-पान आड़े आता है या गुरु-आज्ञा, गुरु-संकेत को ठुकराकर अपनी मनमानी करने की जिसे नीच आदत है उसके लिए गुरु जी का महात्मापन दुर्लभ हो जायेगा। अथवा किसी निंदक का कचरा उसके कान में पड़ गया तो वे ही गुरु जी अथवा जो भी संत है, जो सुलभ थे उसके लिए, वे दुर्लभ हो जायेंगे। उसके पास होते हुए भी उसे उनमें महात्मापन नहीं दिखेगा।
घाटवाले बाबा के आगे एक प्राध्यापक ने लम्बा-चौड़ा भाषण किया कि “महात्मा ऐसे होने चाहिए, ऐसे होने चाहिए…. उनको ऐसे रहना चाहिए, ऐसा करना चाहिए।” आदि-आदि और बोलाः “ऐसे महात्मा आजकल हैं ही नहीं।”
घाटवाले बाबा ने कहाः “ठीक है आजकल महात्मा नहीं मिलते, महात्मा ऐसा होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए…. तू जानता है तो फिर प्राध्यापक ! अब तू हो जा वैसा बढ़िया महात्मा। देश को ऐसे महात्मा की जरूरत है तो तू बनकर दिखा दे।”
वह भाग गया। महात्मा तो उस समय भी थे मगर उसको दिख नहीं रहे थे। अगर तुम सच्चे भक्त हो, तुम्हारे अंदर भक्ति का, सच्चाई का कुछ अंश है तो तुम्हारे अंदर राग-द्वेष नहीं रहेगा। व्यक्ति के द्वारा निंदा होती है द्वेष से, द्वेष के बिना निंदा नहीं हो सकती। अगर तुममें कोई सच्चाई है तो तुम निंदा नहीं कर सकते।
कुत्ता जिस घर का खाता है उस घर के लोगों को काटता नहीं, उनके खिलाफ भौंकता नहीं। तुम तो मनुष्य हो ! कुत्ता पागल हो जाता है तो घर छोड़कर चला जायेगा लेकिन उस घर के लोगों को नहीं काटेगा। अगर किसी में द्वेष है या द्वेषियों का संग है अथवा पापकर्म का जोर आया तो उसकी शांति चली जायेगी। महात्मा को देखकर डर लगेगा, नजदीक नहीं आ सकेगा। अपना पाप ही अपने को तबाह करता है। अतः पाप वासना, निगुरों व पापियों के प्रभाव से अपने को बचाओ। जिसका पाप, उसी का बाप ! सज्जन तो महात्मा को देखकर पुलकित हो जायेंगे और दुर्जन उनको देख के पचते रहेंगे।
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।। (श्री रामचरित. सुं.कां- 43.2)
महर्षि वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! विचारवान, श्रद्धावान के लिए संसार-सागर तरना गाय के खुर की नाईं है और जिनमें विचार और विवेक नहीं है उनके लिए गोपद (गाय के खुर के निशानवाला भूभाग) भी बड़ा सागर है, उनके लिए संसार तरना बड़ा कठिन है।’
दुर्मति के लिए संसार तरना दुर्लभ है और सन्मति (सत्यस्वरूप ईश्वर के ज्ञानवाली मति) के लिए संसार तरना सुलभ है। इसीलिए सन्मति के लिए सत्यस्वरूप ईश्वर की प्रीति करो, ईश्वर को आर्तभाव से पुकारो, प्रार्थना करोः ‘हे भगवान ! सन्मति दे।’ सन्मति हुई तो महाराज ! एकनाथ महाराज ने गधे में से और संत नामदेव जी ने कुत्ते में से भगवान को प्रकट कर दिया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 305
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