अपने अनुभव का आदर करें। आपके अंदर सत्यस्वरूप अंतर्यामी चैतन्य जगमगा रहा है। अपने उस सद्ज्ञानस्वरूप के अनुभव की निर्मल आँख से सच्चाई को जानें। धर्म, संस्कृति व समाज के हित में पूरा जीवन लगाने वाले करूणासिंधु संतों-महापुरुषों के प्रति किसी अन्य की मान्यता या दृष्टि के आधार पर कोई धारणा न बनायें। अपना जीवन कीमती है, उसे मात्र किसी की मान्यता के आधार पर व्यर्थ करना बुद्धिमानी नहीं है।
अफवाहों में न उलझें। भ्रामक खबरों व उनको फैलाने वाले माध्यमों से बचें। आश्रम से संबंधित किसी भई तथ्य की जानकारी हेतु अहमदाबाद आश्रम से सम्पर्क करें।
आसपास के साधकों, संस्कृतिप्रेमियों से मिल के एकता बढ़ायें। आपस में चर्चा करें व समूह बनायें। साधकों के लिए हर सप्ताह सामूहिक संध्या, बैठक करना, सेवा-साधना हेतु उत्साहवर्धक सत्संग चलाना, सुप्रचार सेवा-संबंधी विचार-विमर्श करना विशेष हितकारी है।
संस्कृतिरक्षक प्राणायाम करें। (पढ़ें ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ 4 या देखें https://goo.gl/V65PEi )
साधक पूज्य बापू जी की शीघ्र रिहाई हेतु प्रतिदिन ‘पवन तनय बल पवन समाना। बुधि विवेक विग्यान निधाना।।’ मंत्र की 2 माला व ‘ॐॐॐ बापू जल्दी बाहर आयें’ मंत्र की एक माला अवश्य करें।
जप, त्राटक, ध्यान आदि जो भी साधना तथा सेवा करें, पूज्य गुरुदेव की शीघ्र ससम्मान रिहाई के संकल्प के साथ करें।
घर-घर तक ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, ऋषि दर्शन आदि पहुँचाने, बाल संस्कार केन्द्र चलाने, युवा सेवा संघ एवं महिला उत्थान मंडल की संस्कार सभाएँ चलाने आदि की सेवा में तत्परता से लगे रहें। याद रखें वे हमारे प्यारे गुरुदेव द्वारा हमें दी गयी मंगलमय धरोहरें हैं, जिन्हें हमें भली प्रकार सँजोये रखना है एवं और भी बढ़ाना है।
साधक अकेले, 2-2 या 4-4 का समूह बनाकर ‘साधक सम्पर्क अभियान’ चलायें। अपने आस-पास पड़ोस एवं क्षेत्र के साधकों से मिलने जायें और बापू जी का संदेश उन्हें सुनायें। उनकी साधना में प्रीति एवं गुरुदेव के दैवी सेवाकार्य में सहभागिता का उत्साह बढ़े ऐसी चर्चा, ऐसा वार्तालाप उनके साथ करें। पूज्य बापू जी के विश्व-मांगल्य के कार्यों को सुसम्पन करने के लिए सुसंवादिता अत्यंत आवश्यक है।
सप्ताह में 1-2 दिन जैसे – गुरुवार, रविवार को तथा पर्व त्यौहारों पर अपने नजदीकी आश्रम में जाने का निश्चय करें व उसका दृढ़ता से पालन करें। आश्रम के नजदीक रहने वाले साधक अगर प्रतिदिन आश्रम जा सकें तो प्रयत्नपूर्वक जायें, वहाँ के पवित्र वातावरण में साधन-भजन करें तथा गौ-सेवा व आश्रम द्वारा संचालित अन्य दैवी सेवाकार्यों का लाभ लें।
समाज के जिन लोगों को अपने महापुरुषों व धर्मबंधुओं के सर्वहितकारी कार्यों में सहभागी होना सम्भव नहीं हो, वे लोग उन्हें अपने शुभ संकल्पों से पोषित कर मानसिक सेवा का लाभ अवश्य ले सकते हैं, यह उन्हें बतायें। यह उन्हें कुछ-न-कुछ पुण्य प्रदान कर ही देगा।
इतना भी न कर सकें तो महापुरुषों एवं उनके सेवाभावी शिष्यों की निंदा करके अपने स्वास्थ्य, आयु, आनंद, शांति व सौभाग्य का तो नाश न करें। अपने पूर्वकृत पुण्यों की रक्षा करना यह भी एक प्रकार की सेवा ही मानी जा सकती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 14 अंक 305
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