सच्चे संत जाति, धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि दायरों से परे होते हैं। ऐसे करुणावान संत ही अज्ञान-निद्रा में सोये हुए समाज के बीच आकर लोगों में भगवद्भक्ति, भगवद्ज्ञान, निष्काम कर्म की प्रेरणा जगा के समाज को सही मार्ग दिखाते हैं, जिस पर चल के हर वर्ग के लोग आध्यात्मिकता की ऊँचाईयों को छूने के साथ-साथ अपना सर्वांगीण विकास सहज में ही कर लेते हैं। सभी में भगवद्-दर्शन करने की प्रेरणा देने वाले ऐसे संतों के द्वारा ही धार्मिक अहिष्णुता, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, राग-द्वेष आदि अनेक दोष दूर होकर समाज का व्यापक हित होता है।
ऐसे संतों का जहाँ भी अवतरण हुआ है वहाँ भारतीय संस्कृति के वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार होकर समाज में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।
जब समाज में कई विकृतियाँ फैलने लगीं तब आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने अपने शिष्यों के साथ भारत के कोने-कोने में घूम-घूमकर सनातन धर्म व अद्वैत ज्ञान का प्रचार किया।
यवनों के आक्रमण से जब सम्पूर्ण हिन्दू समाज त्रस्त था तब योगी गोरखनाथ जी व नाथ-परम्परा के योगियों ने समाज में धर्मनिष्ठा व अध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया।
राजस्थान में राजर्षि संत पीपा जी ने काशी के स्वामी रामानंद जी से दीक्षा ले के प्रजा को धर्म-मार्ग पर लगाया तो भक्तिमती मीराबाई ने गुरु रैदास जी का शिष्त्व स्वीकार कर सारे राजस्थान और गुजरात में भगवद्भक्ति की गंगा बहायी।
तमिलनाडू के आलवारों (वैष्णव भक्त), नायनारों (शैव भक्त) तथा संत तिरुवल्लुवर जैसे संतों से बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित हुए। 11वीं-12वीं शताब्दी में श्री रामानुजाचार्यजी ने ‘वेदांत भक्ति’ का भारतभर में प्रचार किया। आँध्र प्रदेश के संत वेमना के उपदेशों का समाज पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा।
गुजरात के संत नरसिंह मेहता जी, संत प्रीतमदास जी आदि ने भी प्रभुभक्ति का प्रचार किया और समाज को सही दिशा दी।
संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस तथा अन्य कई ग्रंथों की प्रचलित भाषा में रचना करके सामान्य जनों को आदर्श जीवन जीने की रीति बतायी और उनके जीवन को भक्ति रस से सराबोर कर दिया।
महाराष्ट्र के संतजन – ज्ञानेश्वरजी, नामदेव जी, एकनाथ जी, तुकाराम जी, चोखामेला, राँका, बाँका, जनाबाई, नरहरि जी आदि ने और वारकरी सम्प्रदाय के अन्य संतों ने जब घूम-घूम के भगवन्नाम-संकीर्तन के माध्यम से समाज को जगाना शुरु किया तो लाखों लोग उनके अनुयायी बन भगवद्भक्ति के रास्ते चल पड़े।
सम्पूर्ण महाराष्ट्र संकीर्तन क्रांति में उल्लसित होने लगा। समर्थ रामदास जी के शिष्य शिवाजी महाराज ने विधर्मी आक्रांताओं से पीड़ित समाज में प्राण फूँककर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की।
पंजाब के संत गुरुनानक देव जी से गुरु गोविन्दसिंह जी तक दस गुरुओं की परम्परा द्वारा पंजाब एवं देश के अन्य भागों के भी लोग लाभान्वित हुए। गुरु हरगोविन्दसिंह, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविन्दसिंह और उनके शिष्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर देशवासियों की धर्मांतरण से रक्षा की।
कर्नाटक के श्री अल्लमप्रभुजी, अक्का महादेवी जी, श्री मध्वाचार्य जी तथा संत पुरंदरदास जी, कनकदास जी आदि ने ज्ञान व भक्ति के माध्यम से समाज की आध्यात्मिक उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। स्वामी विद्यारण्यजी ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करके हिन्दू संस्कृति व धर्मशास्त्रों की यवनों से रक्षा की।
ओड़िशा की ‘वैष्णव-पंचसखा परम्परा’ के भक्तों एवं भक्त भीम भोई, दासिया बाउरी, रघु केवट आदि ने लोगों के भक्तिभाव को पुष्ट किया। बलरामदास जी के ‘रामायण’, शारलादास जी के ‘महाभारत’ व जगन्नाथदास जी के ‘भागवत’ ओड़िशावासियों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।
बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों के साथ सम्पूर्ण देश में संकीर्तन यात्राओं द्वारा भगवन्नाम का प्रचार किया। उन यात्राओं में मुसलमान भी शामिल होते थे। आक्रांताओं द्वारा नष्ट व लुप्त हुए कई तीर्थस्थलों को गौरांग व उनके शिष्यों ने पुनः खोज निकाला। रामकृष्ण परमंहस जी के सत्शिष्य स्वामी विवेकानंद जी ने विदेशों में भी वेदांत का प्रचार किया और स्वदेश में जवानों को राष्ट्रभक्ति के संदेशों के माध्यम से अंग्रेज शासन से स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए प्रेरित किया।
असम में श्रीमंत शंकरदेव जी, श्री माधवदेव जी आदि ने धार्मिक-सामाजिक उत्थान में अहम भूमिका निभायी।
संत उड़िया बाबा जी, स्वामी अखंडानंद जी, आनंदमयी माँ, हरि बाबा जी, रमण महर्षि, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी शिवानंद सरस्वती आदि संतों ने भारतीय संस्कृति का अध्यात्म-ज्ञान सरल भाषा में समाज तक पहुँचाया।
काशी के स्वामी रामानंद जी ने हर वर्ग के लोगों में आध्यात्मिक प्रसाद बाँटा। उस समय का सूत्र हो गयाः ‘जाति पांति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’ उनके शिष्य संत कबीर जी, रैदास जी, धन्ना जी आदि अनेक संतों ने लोगों में परमात्मप्राप्ति का अलख जगाया।
इस परम्परा के दादूपंथी संतों ने अपने गुरु की वाणियों के साथ पूर्व के संतों की वाणियों का भी संरक्षण किया, जिनसे बड़ी संख्या में जनता लाभान्वित हुई। संत दादू दयाल जी की परम्परा के संत निश्चलदास जी ने ‘विचारसागर’ ग्रंथ की रचना कर वेदांत का गूढ़ ज्ञान लोगों को प्राकृत भाषा में सुलभ करा दिया।
इसी संत-परम्परा में स्वामी केशवानंद जी महाराज के सत्शिष्य भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी ने समाज में वेदांत-ज्ञान, भक्ति व कर्मयोग का प्रचार किया एवं बाल, युवा, नर-नारी – सभी को संयम-सदाचार की शिक्षा देकर उनका आत्मोत्थान किया। आपने भारत के अलावा विदेशों में भी सत्संगों द्वारा लोगों में सामाजिक, धार्मिक व आध्यात्मिक जागृति की।
समाज की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने वाली इस दिव्य ज्योति को जागृत रखने के लिए पूज्यपाद स्वामी लीलाशाह जी के सत्शिष्य संत श्री आशाराम जी बापू गाँव-गाँव, नगरों-महानगरों में घूम-घूमकर कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग के साथ कुंडलिनी योग आदि का समन्वय करते हुए जीवन को सुखी स्वस्थ व सम्मानित बनाने वाला सत्संग एवं ध्यान का प्रसाद बाँटने लगे। वर्तमान में भी देश-विदेश के करोड़ों लोग आपके मार्गदर्शन में परम ध्येय ईश्वरप्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
आपने समाज के पिछड़े, अभावग्रस्त लोगों को भोजन, भजन, कीर्तन, सत्संग लाभ एवं जीवनोपयोगी वस्तुएँ व आर्थिक सहायता देकर उन्हें स्वधर्म के प्रति निष्ठावान बनाया व धर्मांतरण से बचाया। कत्लखाने भेजी जा रही हजारों गायों की रक्षा की और उनके लिए गौशालाएँ बनवायीं।
पूज्य श्री ने खान-पान, पहनावा, जन्मदिवस मनाने, बच्चों का नामकरण करने तथा पर्वों को मनाने की पद्धतियों में आयी विकृतियों से समाज को सावधान किया तथा इन सबके हितकारी तौर-तरीके बताकर उनके पीछे छुपे आध्यात्मिक रहस्यों को भी समझाया। आपने संयम-सदाचार प्रेरक ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ चलाया तथा मातृ-पितृ पूजन दिवस (14 फरवरी) व तुलसी पूजन दिवस (25 दिसम्बर) जैसे संस्कृतिरक्षक पर्वों का शुभारम्भ किया।
जब-जब संतों व संस्कृति पर कोई आँच आयी तब-तब पूज्य बापू जी ने मजबूत ढाल बनकर उसका सामना किया। काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती पर जब झूठा आरोप लगा तब आप दिल्ली में धरना देने के लिए पहुँच गये। इसी प्रकार सत्य साँईं बाबा, कृपालु जी महाराज, साध्वी प्रज्ञा, रामदेव बाबा, आचार्य बालकृष्ण आदि के खिलाफ जब कीचड़ उछाला गया तब भी आपने उसके खिलाफ आवाज उठायी। आपकी प्रेरणा से समय-समय पर प्रेरणा सभाएँ, संत सम्मेलन आदि आयोजित किये जाते रहे हैं। आपने भारत को विश्वगुरु पद पर देखने के लिए अपना पूरा जीवन लगाया है।
आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक तथा अन्य सभी दृष्टियों से समाज का उत्थान हमारे संतों-महापुरुषों के द्वारा ही हुआ है। संतों ने ही परस्परं भावयन्तु – एक दूसरे को उन्नत करने का भाव तथा मानव को महामना बनाने वाला धर्म, संस्कृति के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित किया। समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2018, पृष्ठ संख्या 2,7,8 अंक 305
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