जीवनपथ को कल्याणमय बनाने के लिए

जीवनपथ को कल्याणमय बनाने के लिए


ऋग्वेद (मंडल 5, सूक्त 51, मंत्र 15) में आता हैः

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविद। पुनर्ददताघ्नता जानता सङ्गमेमहि।।

हम लोग सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याणमय, मंगलमय मार्गों पर चलें। ‘ददता’ अर्थात् लोगों को कुछ-न-कुछ हितकर देते हुए, बाँटते हुए चलें। ‘अघ्नता’ अर्थात् किसी का अहित न करते हुए, तन-मन-वचन से किसी को पीड़ा न पहुँचाते हुए चलें। ‘जानता’ अर्थात् जानते हुए चलें, गुरुज्ञान का – वेदांत ज्ञान का आश्रय लेते हुए चलें। दूसरों को समझते हुए चलें, अपने स्वरूप को समझते हुए आगे बढ़ें। हमेशा सजग रहें। ‘संङ्गमेमहि’ अर्थात् सबके साथ मिल के चलें, सबको साथ ले के चलें।

हम ‘सत्’ हैं अतः न मौत से डरें न डरायें, जियें और जीने में सहयोग दें। हम ‘चित्’ यानी चैतन्य हैं अतः न अज्ञानी बनें न बनायें, ज्ञान-सम्पन्न बनें और बनायें। और हमारा स्वरूप है ‘आनंद’ अतः हम दूसरों को दुःखी न करें और स्वयं दुःखी न हों, सुखी करें और  सुखी रहें।

वेद भगवान स्नेहभरा, हितभरा संदेश देते हैं- ‘सङ्गमेमहि….. हम मिलते हुए चलें। एक स्वर में बोलें। मतभेद नहीं पैदा करें। जहाँ तक हमारा मत दूसरों के मत के साथ मिल सकता हो वहाँ तक मिलाकर रखें और जब मतभेद हो जचायें तब जैसे आपको स्वतंत्र मत रखने का अधिकार है वैसे ही दूसरे को भी अपना स्वतंत्र मत रखने का अधिकार है। ऐसे में आप अपने मत के अनुसार चलो और दूसरों को उनके मत के अनुसार चलने दो। सब हमारे ही मत के अनुसार चलें यह विचारधारा बहुत तुच्छ, हलकी और गंदी है। यदि आपको कभी किसी में दोष दिखे तो उस दोष को आप जरा पचाने की क्षमता रखो और उसका हो सके उतना मंगल चाहो, करो।

हमारे हृदय में सबके प्रति निर्मल प्रेम हो। हम सभी की जानकारी लें और सँभाल रखें। हमारे द्वारा सबकी सेवा हो, हित हो और हम सबसे मिलते हुए आगे बढ़ते चलें। हम मंगलमय पथ पर नयी उमंग व कुशलता के साथ प्रसन्नचित्त होकर चलें और दूसरों को भी प्रसन्नता देते हुए चलें। जब हम स्वयं प्रसन्न रहेंगे तब दूसरों को भी प्रसन्नता दे सकेंगे और यदि हम स्वयं उदास, दुःखी या सुस्त रहेंगे तो दूसरों को प्रसन्नता कहाँ से देंगे ? अतः हमें हर परिस्थिति में सम और प्रसन्न रहना चाहिए।

वेद भगवान का उपरोक्त मंत्र सफलता-प्राप्ति हेतु भगवत्प्रसादस्वरूप है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 306

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