जन्माष्टमी पर स्वयं भगवान के श्रीमुख से उनके स्वरूप-अमृत का पान
एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका से वृंदावन पधारे। उस समय उनकी वियोग-व्यथा से संतप्त गोपियों की विचित्र दशा हो गयी। प्रिय-संयोगजन्य स्नेहसागर की उन्मुक्त तरंगों में उनके मन और प्राण डूब गये। गोपीश्वरी राधिका जी मूर्च्छित हो गयीं और साँस लेना भी बंद हो गया।
गोपियाँ चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगीं- “श्री कृष्ण ! तुमने यह क्या किया ? हमारी राधिका को मार डाला ! तुम्हारा मंगल हो, तुम शीघ्र ही हमारी राधिका को जीवित भी कर दो।”
उनकी ऐसी आतुरता देखकर भगवान ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से राधा जी में जीवन का संचार कर दिया। राधादेवी रोती-रोती उठ बैठीं। गोपियों ने उन्हें गोद में लेकर बहुत कुछ समझाया-बुझाया परंतु उनका कलेजा न थमा।
अंत में श्रीकृष्ण जी ने ढाढ़स बँधाते हुए कहाः “राधे ! मैं तुमसे परम श्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन करता हूँ, जिसके श्रवण मात्र से मूर्ख मनुष्य भी पंडित हो जाता है।
राधे ! कार्य और कारण के रूप में मैं ही अलग-अलग प्रकाशित हो रहा हूँ। मैं सभी का एकमात्र आत्मा हूँ और अपने स्वरूप में प्रकाशमय हूँ। ब्रह्म से लेकर तृणपर्यंत समस्त प्राणियों में मैं ही व्यक्त हो रहा हूँ। मैं ही धर्मस्वरूप, धर्ममार्ग-प्रवर्तक ऋषिवर नर और नारायण हूँ। मैं ही सिद्धिदायक सिद्धेश्वर मुनिवर कपिल हूँ। सुंदरी ! इस प्रकार मैं नाना रूपों से विविध व्यक्तियों के रूप में विराजमान हूँ। द्वारका में चतुर्भुजरूप से रुक्मिणी का पति हूँ और क्षीरसागर में शयन करने वाला मैं ही सत्यभामा के शुभ गृह में वास करता हूँ। अन्यान्य रानियों के महलों में भी मैं अलग-अलग शरीर धारण कर रहता हूँ। मैं ही अर्जुन के सारथीरूप से ऋषिवर नारायण हूँ।
जैसे तुम गोलोक में राधिका देवी हो, उसी तरह गोकुल में भी हो। तुम ही वैकुंठ में महालक्ष्मी और सरस्वती होकर विराजमान हो। तुम ही द्वारका में महालक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई सती रुक्मिणी हो और अपने कलारूप से पाँचों पांडवों की प्रिया द्रौपदी हुई हो तथा तुम ही मिथिला में सीता के रूप में प्रकट हुई थीं और तुम्हें रावण हर ले गया था। अधिक क्या कहूँ !
जिस प्रकार अपनी छाया और कलाओं के द्वारा तुम नाना रूपों से प्रकट हुई हो, उसी प्रकार अपने अंश और कलाओं से मैं भी विविध रूपों से प्रकट हुआ हूँ। वास्तव में तो मैं प्रकृति से परे सर्वत्र परिपूर्ण साक्षात् परमात्मा हूँ। सती ! मैंने तुमको यह सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य सुना दिया।”
भगवान के ये गूढ़ रहस्य-वचन सुनकर राधा जी और गोपियों का क्षोभ दूर हो गया। उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का भान हो गया और उन्होंने चित्त में प्रसन्न होकर भगवान के चरणकमलों में प्रणाम किया।
पूज्य बापू जी कहते हैं- “अनेक रूपों में बसे हुए वे एक-के-एक सच्चिदानंद परमात्मा ही मेरे आत्मा हैं – ऐसा ज्ञान जिसे हो जाता है उसका जीवन सफल हो जाता है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 308
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