एक होता है निर्विशेष शाश्वत ज्ञान और दूसरा होता है सापेक्ष, सविशेष ज्ञान। सापेक्ष, सविशेष ज्ञान में तो अदल-बदल होती रहती है लेकिन निरपेक्ष ज्ञान, शाश्वत ज्ञान ज्यों का त्यों है। उस ज्ञान की मृत्यु नहीं होती, जन्म नहीं होता। वही ज्ञान ब्रह्म है। वही ज्ञान परमात्मा का परमात्मा है, ईश्वरों का ईश्वर है। उसी ज्ञानस्वरूप ईश्वर में कई ईश्वर पैदा हुए, कई वर्षों तक रहे और फिर उनका बाहर का सविशेष ऐश्वर्य लीन हो गया और वे निर्विशेष ऐश्वर्य में एकाकार हो गये अर्थात् ब्रह्मलीन हुए।
तो बोलेः ‘बापू जी ! सविशेष और निर्विशेष क्या होता है ?’
जैसे – मान लो की सूर्य की किरणें चारों तरफ फैली हैं, सूर्य का प्रकाश सब जगह व्याप रहा है। अब दूसरा समझो कि आईने के द्वारा भी इधर-उधर प्रकाश प्रतिबिम्बित हो रहा है। तो जो आईने के द्वारा प्रकाश प्रतिबिम्बित हो रहा है वह सविशेष है और जो ऐसे ही सामान्य रूप से सूर्य का प्रकाश फैला है वह निर्विशेष मान लें। अथवा तो आकाश निर्वेशेष है लेकिन उस आकाश में आपने मकान बनाया तो वह मठाकाश हो गया, घड़ा बनाया तो घटाकाश हो गया, मेघ में आकाश आया तो मेघाकाश हो गया… तो ये मेघाकाश, घटाकाश, मठाकाश सविशेष हैं लेकिन आकाश तो निर्विशेष है, ऐसे ही परब्रह्म-परमात्मसत्ता ज्ञान, निर्विशेष ज्ञान ब्रह्म है और सविशेष ज्ञान माया है, फुरना है। निष्फुर ब्रह्म है और फुरना जगत है, माया है। तो बोलेः ‘निष्फुर अगर ब्रह्म है तो फिर इस खम्भे को तो कभी फुरना नहीं होता, यह भी ब्रह्म हुआ ?’ हाँ, इस लोहे के खम्भे को तो फुरना नहीं होता, मकान को फुरना नहीं होता। हाँ, ये ब्रह्म तो हैं लेकिन घन सुषुप्ति में हैं, जड़ अवस्था में हैं। इनको पता ही नहीं कि हम निर्विशेष हैं या सविशेष हैं। समय पाकर यह खम्भा गलेगा, मिट्टी के कण बनेंगे, फिर घास बनेगा, फिर वह दूध बनेगा, दूध से रज-वीर्य बनेगा-जीव बनेंगे और फिर वे अपने शुद्ध ज्ञान में जगेगे, तब पता चलेगा इनको। पेड़-पौधों को थोड़ा पता भी होता है, हलका सा सुख-दुःख का एहसास भी होता है तो उनमें थोड़ा सविशेष फुरना हुआ। खम्भे आदि जड़ पदार्थों में निर्विशेष नहीं, ब्रह्म की घन सुषुप्ति अवस्था है।
4 अवस्थाएँ हैं ब्रह्म की। ये जो पत्थर, पहाड़ हैं, वे सच्चिदानंद ज्ञान की घन सुषुप्ति हैं, गहरी सुषुप्ति हैं। ये जो पेड़-पौधे हैं, वह ब्रह्म की क्षीण सुषुप्ति है, जैसे आप सो रहे हैं और आपका किसी ने बाल नोच लिया या आपको मच्छर ने काटा तो पता चला न चला बस ‘उँ….’ करके भूल गये तो यह गहरी नींद (सुषुप्ति) नहीं है अपितु क्षीण सुषुप्ति है। ऐसे ही पेड़ पौधे क्षीण सुषुप्ति में जीते हैं और मनुष्य, देवता, यक्ष, गन्धर्व आदि स्वप्नावस्था में जीते हैं, उस शुद्ध ज्ञान में सपना देख रहे हैं। ‘मैं गंधर्व हूँ, मैं किन्नर हूँ, मैं माई हूँ, मैं भाई हूँ…’ यह आप सब स्वप्नावस्था में जी रहे हैं। शुद्ध ज्ञान स्वप्न में जी रहा है कि मैं माई हूँ, मैं बबलू हूँ…. मैं ऐसा बनूँगा…’ यह सपना है।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।। (श्री रामचरित.अर.कां. 38 ख 3)
तो हरि भजन का मतलब है उस शुद्ध ज्ञान में टिकना। यही (शुद्ध ज्ञान) सत्य है, बाकी सब सपना है। हरि भजन का मतल यह नहीं कि सारा दिन करताल ले के ‘हरि ॐ हरि….’ भजन करना। नहीं, हरि भजन का यहाँ तात्त्विक अर्थ लगाना होगा। आरम्भवाला भले मंजीरे ले के बजाये लेकिन धीरे-धीरे सत्यज्ञान में टिकना ही हरि-भजन का आखिरी फल है। (भजन करने वाला जब तक सत्यज्ञान में नहीं जगेगा तब तक स्वप्न में भी भजन करता है। फिर भी भजन के द्वारा वह सत्यज्ञान में जगेगा इसलिए भजन को भी सत्य कहा है।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 11, 16 अंक 308
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