भगवान गीता (2.52) में कहते हैं-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।
जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी (अज्ञानरूपी) दलदल से भली प्रकार पार हो जायेगी तब तुम सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से उपराम हो जाओगे और परम पद में ठहर जाओगे।
दलदल में पहले आदमी का पैर धँस जाता है फिर घुटने, जाँघें, नाभि, फिर छाती, फिर पूरा शरीर धँस जाता है। ऐसे ही संसार की दलदल में आदमी धँसता है- ‘थोड़ा सा यह कर लूँ, यह देख लूँ, थोड़ा सा यह खा लूँ, यह सुन लूँ….।’ प्रारम्भ में बीड़ी पीने वाला जरा सी फूँक मारता है, फिर व्यसन में पूरा बँधता है। शराब पीने वाला पहले जरा सा घूँट पीता है, फिर पूरा शराबी हो जाता है। ऐसे ही ममता के बंधनवाले ममता में फँस जाते हैं। ‘जरा शरीर का ख्याल करें, जरा कुटुम्बियों का ख्याल करें….।’ जरा-जरा करते-करते बुद्धि संसार के ख्यालों से भर जाती है। जिस बुद्धि में परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, परमात्मशांति भरनी चाहिए, उस बुद्धि में संसार का कचरा भरा हुआ है। सोते हैं तो भी संसार याद आता है, चलते हैं तो भी संसार याद आता है, जीते हैं तो संसार याद आता है और मरते हैं तो भी संसार ही याद आता है।
सुना हुआ है स्वर्ग और नरक के बारे में, सुना हुआ है भगवान के बारे में। यदि बुद्धि में से मोह हट जाय तो स्वर्ग आदि का मोह नहीं होगा, सुने हुए भोग्य पदार्थों का मोह नहीं होगा। मोह की निवृत्ति होने पर बुद्धि परमात्मा के सिवाय किसी में भी नहीं ठहरेगी। परमात्मा के सिवाय कहीं भी बुद्धि ठहरती है तो समझ लेना कि अज्ञान जारी है। अहमदाबादवाला कहता है कि ‘मुंबई में सुख है।’ मुंबई वाला कहता है कि कोलकाता में सुख है।’ कोलकाता वाला कहता है कि ‘काश्मीर में सुख है।’ काश्मीर वाला कहता है कि ‘शादी में सुख है।’ शादी वाला कहता है कि ‘बाल बच्चों में सुख है।’ बाल बच्चों वाला कहता है कि ‘निवृत्ति में सुख है।’ निवृत्तिवाला कहता है कि ‘प्रवृत्ति में सुख है।’ मोह से भरी हुई बुद्धि अनेक रंग बदलती है। अनेक रंग बदलने के साथ अनेक-अनेक जन्मों में भी ले जाती है।
जब तक बुद्धि में मोह (अज्ञान) का प्रभाव है तब तक जीव बंधन और दुःखों का शिकार बनता है। जितने अंश में मोह प्रगाढ़ है उतने अंश में वह दुःखद योनियों में और दुःखद अवस्थाओं में भ्रमित होकर दुःख भोगता है।
संत तुलसीदास जी ने कहा हैः
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
मोह सब व्याधियों का मूल है। उसी से (जन्म-मरण आदि रूपी महादुःख के) अनेक शूल उत्पन्न होते हैं।
उस सच्चिदानंद परब्रह्म-परमात्मा के अनुभव के बिना मोह जाता नहीं और मोह गये बिना अनुभव होता नहीं। (मोह का अर्थात् अज्ञान का नाश और परमात्मा का अनुभव होना – दोनों एक ही बात है। और ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की सेवा, सत्संग व सान्निध्य से, उनकी कृपा से अज्ञआनरूपी आवरण का नाश होता है अर्थात् परमात्मानुभव होता है।) जो देखे, सुने, भोगे हैं उन विषयों, व्यक्तियों, प्राणियों व पदार्थों का आपने आज तक जो कुछ अनुभव किया उसका आकर्षण और जिनेक बारे में आपने केवल सुन के एहसास किया कि ‘स्वर्ग ऐसा होता है… योग करने से ऋद्धि-सिद्धि मिलती है और ऋद्धि-सिद्धि के सामर्थ्य ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं….’ अगर बुद्धि का मोह ठीक से दूर हो गया तो बाकी सब सुख-भोगों से तो क्या, योग की ऋद्धि-सिद्धि से आपको उपरामता आ जायेगी।
योग का सामर्थ्य तो अदभुत है लेकिन बुद्धि का मोह अगर पूर्ण निवृत्त हो गया तो फिर ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग, यह-वह कुछ नहीं… उससे भी पार हो जाओगे। जैसे निर्धन धनवान होने को लालायित होता है, अयोगी योगी होने को लालायित होता है लेकिन योगियों की भी अवस्थाएँ होती हैं, धनवानों की भी अवस्थाएँ होती हैं…. ये सब अवस्थाएँ हैं। ये अवस्थाएँ तब तक आकर्षित करती हैं जब तक बुद्धि में मोह है। बुद्धि का मोह भली प्रकार गलित हो गया तो किसी भी अवस्था में आपको आकर्षण नहीं रहेगा, आप ऐसे परम पद को पायेंगे। ब्रह्मा-विष्णु-महेश और आप एक हो जायेंगे। आप और ब्रह्मांड दो नहीं बचेंगे, एक हो जायेंगे। यह बहुत ऊँची स्थिति है।
तो अब इस मोह की चद्दर को हटाने का प्रयास करो। आत्मशक्ति की अग्नि सबके भीतर छुपी है लेकिन अविद्या और वासना की राख से ढकी है। उस राख को हटाओगे तो आत्मबल की अग्नि प्रतीत होगी, ब्रह्मविद्या की ज्योति जगमगा उठेगी, जिससे सारे कर्म उसी समय भस्मीभूत हो जायेंगे।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरुते तथा।।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।’ (गीता 4.37)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 309
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