भर्तृहरि जी महाराज वैराग्य शतक के 73वें श्लोक में कहते हैं कि “ढली अवस्था वाले बूढ़े पुरुष को अहो ! बड़ा कष्ट होता है। वृद्धावस्था में शरीर सिकुड़ गया, झुक गया, चाल धीमी पड़ गयी है और दाँतों की पंक्ति टूटकर गिर गयी। इस अवस्था में नेत्रज्योति नष्ट हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है और मुख लार छोड़ने लगता है, बंधु-बांधव उसकी बात का आदर नहीं करते, बात नहीं सुनते तथा पत्नी सेवा नहीं करती। बूढ़े मनुष्य का पुत्र भी अमित्र के समान व्यवहार करता है।”
वृद्धावस्था आते ही मनुष्य की शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है। शरीर के विविध अंग शिथिल हो जाते हैं, इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करने में निर्बल हो जाती हैं, शरीर टेढ़ा हो जाता है और नाना प्रकार के रोगों से घिर जाता है। इस प्रकार बहुत कष्ट सहते हुए व्यक्ति अपनी शेष आयु पूरी करता है।
श्री योगवासिष्ठ महारामायण में आता हैः ‘जैसे तुषाररूपी वज्र कमलों को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है, जैसे आँधी शरद ऋतु की ओस को (पत्तों के सिरों पर लटक रहे जलकणों को) नष्ट कर देती है और जैसे नदी तट के वृक्ष को उखाड़ देती है, वैसे ही वृद्धावस्था शरीर को नष्ट कर डालती है। जो वृद्धावस्था को प्राप्त होकर भी बना रहता है उस दुष्ट जीवन के दुराग्रह से (दुरभिलाषा से) क्या प्रयोजन है अर्थात् कुछ भी नहीं, वह व्यर्थ ही है क्योंकि वृद्धावस्था इस पृथ्वी में मनुष्यों की सम्पूर्ण एषणाओं (प्रबल इच्छाओं) का तिरस्कार कर देती है। अर्थात् वृद्धावस्था के आने पर कोई भी पुरुष अपनी किसी इच्छा को पूर्ण नहीं कर सकता इसलिए दुःखप्रद दुष्ट जीवन की दुराग्रहपूर्वक इच्छा करना निष्फल ही है।’
पूज्य बापू जी की विवेक-वैराग्यप्रद अमृतवाणी में आता हैः “हे मानव ! बाल सफेद हो जायें उसके पहले तू चल पड़। सिर कमजोर हो जाय, बुद्धि कमजोर हो जाय, चित्त दुर्बल हो जाये उसके पहले तू यात्रा कर ले। कुटुम्बी तेरा मजाक उड़ाने लगें, युवान-युवतियाँ तेरे से मुँह मोड़ने लगें, उसके पहले तू यात्रा कर। विश्व को जहाँ से सारी सत्ता, सामर्थ्य, चेतना मिल रही है उस चैतन्यस्वरूप अपने स्वभाव में स्थित होना, अपनी महिमा को पहचानना। अपना खजाना छोड़कर दर-दर की ठोकरें मत खाना। तू संसार से निराश हो के मर जाय और तेरी मृत देह को श्मशान पहुँचाया जाय उसके पहले तू अपने अंतरात्मा राम में पहुँचने का प्रयत्न कर भैया !”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 310
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