18वीं शताब्दी की बात है । दक्षिण भारत में मदुरै शहर के एक ब्राह्मण परिवार में सोमनाथ योगी के घर में एक बालक का जन्म हुआ । नाम रखा गया शिवरामकृष्ण । उसे बाल्यकाल से ही भक्ति का रंग लग गया । माता-पिता ने उसे वेदांत-अध्ययन हेतु तिरुविसनल्लूरू के गुरुकुल में भेजा । 15 साल की उम्र में ही वह तर्क, व्याकरण, श्रुति, स्मृति, संगीत, साहित्य – समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया ।
एक दिन शिवरामकृष्ण अध्ययन पूरा करके अपने घर आया । उसन दिन माँ कुछ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था में लगी थीं इसलिए शिवरामकृष्ण को दो घंटे तक भोजन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी ।
उन्होंने मन ही मन सोचा कि ‘गृहस्थ जीवन अत्यंत झंझटों से भरा है । अभी मेरे वैवाहिक जीवन का प्रारम्भ भी नहीं हुआ है और मुझे दो घंटे तक भूखा रहना पड़ा । यह तो गृहस्थ जीवन के दुःखों का श्रीगणेशमात्र है । इतने से ही मुझे वैवाहिक जीवन के भावी दुःखों का आभास मिल गया है ।’
यदि व्यक्ति का जीवन संयमी व विवेक-प्रधान तथा हृदय शुद्ध होता है तो छोटी सी बात या कोई साधाराण घटना भी उसके हृदय को लग जाती है और वह उन्नत जीवन की ओर तीव्रता से बढ़ जाता है ।
शिवरामकृष्ण के हृदय में वैराग्य जाग उठा । संसार से बड़ी उपरामता हुई । माँ की ममता, कुटुम्बी-संबधियों के झूठे दिलासे – सबको ठुकराकर जन्म-मरण के दुःखों से पार पहुँचाने वाले सदगुरु की खोज में वह निकल पड़ा ।
घूमते-घामते कांचीपुरम पहुँचा और परमशिवेन्द्र सरस्वतीजी से संन्यास की दीक्षा ली । गुरु ने नाम रखा सदाशिव ब्रह्मेन्द सरस्वती ।
गुरु आज्ञा मानी बने महान
गुरु के मार्गदर्शन में सदाशिव ब्रह्मेन्द्र साधना करने लगे । गुरुमंत्र-जप के प्रभाव से बुद्धि की सूक्ष्मता बढ़कर वह अत्यंत कुशाग्र हो गयीं । योग के क्षेत्र में भी वे बहुत आगे बढ़ गये । बोलने और पांडित्य में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता था । परमशिवेन्द्रजी के दर्शन हेतु देश-विदेश के विद्वान आते थे । सदाशिव ब्रह्मेन्द्र उनके साथ वाद-विवाद करते और उनको पराजित कर देते थे ।
शिष्य कहीं वाहवाही, मान-प्रतिष्ठा की दलदल में न फँस जाय, भविष्य में उसका पतन न हो इसलिए सदगुरु अऩेक युक्तियों द्वारा शिष्य को सावधान करते हैं ।
सदाशिव ब्रह्मेन्द्र जी द्वारा विद्वानों से वाद विवाद करने की बात का जब उनके गुरु जी को पता चला तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और बड़े प्रेम से कहाः “सदाशिव ! तुम मौन रहने का नियम कब लोगे ?”
“गुरुदेव ! अभी से ।”
उसके बाद उन्होंने मौन-व्रत ले लिया और पूरा जीवन उसका पालन किया । धन्य है ऐसा समर्पण !
गुरु की चाह में शिष्य ने अपनी चाह मिला दी । विद्वता, शास्त्रार्थ की योग्यता को एक तरफ रख के मौन-व्रत ले लिया और आजीवन उसका पालन किया । गरु-आज्ञा-पालन व समर्पण ने उन्हें गुरुकृपा का अधिकारी बना दिया और वे सिद्धयोगी संत सदाशिव ब्रह्मेन्द्र के नाम से सुविख्यात हुए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 10, अंक 313
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