रतनचंद नाम के एक सेठ महात्मा बुद्ध के पास दर्शन करने आये । वे साथ में बहुत सारी सामग्री उपहारस्वरूप लाये । वहाँ उपस्थित जनसमूह एक बार तो ‘वाह-वाह !’ कर उठा । सेठ का सीना तो गर्व से तना जा रहा था । बुद्ध के साथ वार्तालाप प्रारम्भ हुआ तो सेठ जी ने बतायाः “इस नगर के अधिसंख्य चिकित्सालयों, विद्यालयों और अनाथालयों का निर्माण मैंने ही करवाया है । आप जिस चबूतरे पर बैठे हैं वह भी मैंने ही बनवाया है ।” आदि-आदि । कई दान सेठ जी ने गिनवा दिये । जब उन्होंने जाने की आज्ञा माँगी तो बुद्ध बोलेः “जो कुछ साथ लाये थे, सब यहाँ छोडकर जाओ ।”
सेठ चकित होकर बोलेः “भंते ! मैंने तो सब कुछ आपके समक्ष अर्पित कर दिया है ।”
“नहीं, तुम जिस अहंकार के साथ आये थे, उसी के साथ वापस जा रहे हो । ये सांसारिक वस्तुएँ मेरे किसी काम की नहीं । अपना अहं यहाँ त्यागकर जाओ, वही मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार होगा ।”
सेठ जी को एहसास हुआ कि ‘वास्तव में, संत के चरणों में आकर भी मैंने सौदा ही किया है । कुछ नाशवान उपहार की सामग्री अर्पण करने के बदले में अपने अहंकार का खूब सारा पोषण किया है । संत के दर पर आकर सिर का भार हलका किया जाता है, में तो भार बढ़ा के बोझिल हो के जा रहा हूँ ।’ वे महात्मा के चरणों में नतमस्तक हो गये । भीतर भरा हुआ सारा अहंकार का भार आँसू बनकर बह गया । सेठ को अनुभव हुआ कि अहं का समर्पण ही मुख्य समर्पण है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 25 अंक 313
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