ब्रह्मज्ञानी गुरु की युक्ति दिलाती दोषों से मुक्ति-पूज्य बापू जी

ब्रह्मज्ञानी गुरु की युक्ति दिलाती दोषों से मुक्ति-पूज्य बापू जी


एक आत्मारामी महात्मा थे । घूमते-घामते गये एक राजा के पास । उसने आवभगत की । महात्मा बोलेः “क्या चाहिए बेटा ?”

राजाः “पड़ोसी राजा को देखकर मुझे खूब परेशानी होती है । वह तो बूढ़ा हो गया है पर उसका लड़का जवान है । अब वह राजगद्दी पर बैठेगा । महाराज ! मेरे को उसका सिर ला के दीजिये ।”

आत्मारामी महापुरुष तो मिलते हैं लेकिन सबकी अपनी-अपनी पसंदगी है । एक व्यक्ति को कुछ रुचता है, दूसरे को कुछ रुचता है लेकिन गुरु लोग उसमें संयोग कर देते हैं बढ़िया ।

राजा की गलती तो थी, ईर्ष्या कर रहा था लेकिन फिर भी राजा के कल्याण के लिए महात्मा ने कहाः “बस ! पड़ोसी राजा के बेटे का सिर ही चाहिए ? हम अभी ला देते हैं ।”

महात्मा पहुँच गये पड़ोसी राजा के पास ।

राजा ने खड़े हो के अहोभाव से स्वागत-सत्कार किया कि ब्रह्मवेत्ता महापुरुष पधारे हैं ! बोलेः “महाराज ! क्या सेवा करें ? क्या चाहिए ?” संसारी लोग समझते हैं कि महाराज आये तो कुछ लेने को आये । यह नहीं पता कि महाराज कुछ दे भी सकते हैं और ऐसा देते हैं कि सब खजाने भर जाते हैं !

महात्मा ने कहाः “तुम्हारे बेटे का सिर चाहिए इसलिए आया हूँ ।”

राजा ने बेटे को बुलाया, बोलेः “महाराज लो ! अकेला सिर क्या काम आयेगा, पूरा ही ले जाइये ।”

महाराजः “फिर तो और बढ़िया !”

महात्मा पहले वाले राजा के पास पहुँचे, बोले “राजन् ! मैं सिर क्या, धड़ भी ले आया हूँ ।” वह राजा बड़ा खुश हुआ ।

महात्मा ने पूछाः “तेरे को भी कोई बेटा है कि नहीं ?”

बोलाः “महाराज ! बेटी है एक ।”

“जरा बुलाओ उसको ।”

राजा ने बेटी को बुलवाया ।

महात्माः “दोनों पास में खड़े रहे तो !”

बोलेः “राजन् ! जोड़ी कैसी जँचती है, कितने सुंदर लगते हैं ! इनका विवाह करा दो ।”

ईर्ष्या-द्वेष ऐसी आग है जो अपनी योग्यता नष्ट कर देती है । ईर्ष्या करने वाला अपना ही विनाश करता है । आपस में लड़कर अपने समय-शक्ति क्षीण न करें । यह वृत्तियों का खिलवाड़ है । किसी के प्रति जो ईर्ष्या है वह सदा नहीं रहती । जो द्वेष है वह सदा नहीं रहता । राग भी सदा नहीं रहता । वृत्तियाँ बदलती रहती हैं ।

ईर्ष्या द्वेष से व्यक्ति की शक्ति क्षीण होती है और ‘वासुदेव सर्वम्’ के भाव से, सभी भूत-प्राणियों से प्रेमभरा व्यवहार करने से शक्ति का विकास होता है । इसलिए ईर्ष्या-द्वेष से बचें व औरों को भी बचायें एवं आपस में सब संगठित रहकर संस्कृति की सेवा में सजग रहें ।

अपने समय-शक्ति का उपयोग परोपकार और अंतरात्मा-परमात्मा की स्मृति करके भक्ति, योग व शांति के रस को परम रस परमात्मा के रस को पा के मुक्त होने के लिए करें । इसीलिए मनुष्य जीवन मिला  । यह समझ मिलती है महापुरुषों के सत्संग से ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 6 अंक 314

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