वे ज्ञान से वंचित रह जाते हैं

वे ज्ञान से वंचित रह जाते हैं


भगवान से प्रेम भी हो और मान भी रहे – ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं । ज्ञान भी रहे व मान भी, यह भी सम्भव नहीं । संत तुलसी दास जी ने ज्ञान का स्वरूप बतलाया हैः ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं ।

ज्ञान वह है जिसमें एक भी मान नहीं है । मान का अर्थ है अभिमान । जाति का अभिमान, कुल, रूप, बल, विद्या, पद का अभिमान, स्वजनों का अभिमान, यश, जप-तप, ध्यान-ज्ञान का अभिमान और निरभिमानता का अभिमान – अनेक प्रकार का अभिमान होता है । इनमें से कोई भी अभिमान जहाँ नहीं है, वहाँ आत्मज्ञान है ।

उड़िया बाबा जी के पास काशी के एक विद्वान आये । बोलेः “मैं आपसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करने आया हूँ ।” बाबा ने कहाः “आप तो अद्वैत वेदांत के विद्वान हो । शास्त्रीय ग्रंथ आपने पढ़े हैं और पढ़ाते हैं । आपको मैं क्या बताऊँगा, आप ही मुझे कुछ सुनाओ ।

पंडित जी ने सुनाना प्रारम्भ किया और अपना  प्रवचन सुना कर चले गये । आये थे ज्ञान पाने किंतु विद्या के अभिमान के जगते ही ज्ञान से वंचित हो गये । पुस्तकों के अध्ययन से सूचनाएँ एकत्र होती है, आत्मानुभवी महापुरुष से ही आत्मानुभव प्राप्त होता है । वही दुःखनाशक ज्ञान है, मुक्तिदायी ज्ञान है ।

ज्ञान की धारा निम्नगामिनी होती है । जो नीचे बैठता है, नम्रतापूर्वक मस्तक झुकाकर श्रवण करता है उसके प्रति गुरु के हृदय से रस की धारा प्रवाहित होती है । जल जैसे नीचे की ओर प्रवाहित होता है, ज्ञान भी वैसे ही विनम्र को मिलता है । अहं सजाकर ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 9 अंक 314

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