मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिभवति तादृशी ।।
स्कन्द पुराण, प्रभास खंडः 278.39
मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध और गुरु में जैसी भावना होती है वैसा ही फल मिलता है ।
संत नामदेव जी के पूर्व जीवन की एक कहानी है । युवक नामदेव का मन विठ्ठल में लगा तो उसके पिता को डर लगा कि ‘यह लड़का भगत बन जायेगा, साधु बन जायेगा तो फिर कैसे गुजारा होगा ?’ बाप ने थोड़ा टोका और धंधा करने, रोजी-रोटी कमाने के लिए बाध्य किया । एक दिन पिताश्री ने नामदेव को कुछ पैसे देकर कपड़ा खरीदवाया और कपड़े का गठ्ठर दे के दूसरे बेचने वालों के साथ बाजार में भेजा ।
नामदेव बाजार में अपना गठ्ठर रख के कपड़े के नमूने खोलकर बैठा लेकिन अब उसकी पिछले जन्म की की हुई सात्त्विक भक्ति उसे बार-बार अँतर्मुख करती है । नामदेव आँखें मूँदकर ‘विठ्ठल-विठ्ठल ‘ करते हुए सात्त्विक सुख में मग्न है । शाम हुई, और लोगों का कपड़ा तो बिका लेकिन नामदेव वही गठ्ठर वापस उठाकर आ रहा है । सोचा कि पिता जी डाँटेंगेः ‘कुछ धंधा नहीं किया…’ अब क्या होगा ? घर लौट रहा था तो उसे खेत में एक वृक्ष के नीचे पड़े हुए सुंदर-सुहावने, गोलमटोल ठाकुर जी जैसे दिखे । उसका हृदय पसीजा, देखा कि ठंड में ठिठुर रहे हैं भगवान !
निर्दोष, भोले-हृदय नामदेव ने अपनी गठरी खोली और उन गोलमटोल ठाकुर जी को कपड़ा लपेट दिया और बोलता हैः “अच्छा, तुम ठिठुर रहे थे, अब तो तुमको आराम मिल गया ? अब मेरे पैसे दो, नहीं तो मेरे पिता दामा सेठ मेरे को डाँटेंगे ।”
अब पत्थर की मूर्ति पैसे कहाँ से लाती ? नामदेव गिड़गिड़ाया, आखिर कहा कि “अच्छा, अभी नहीं हैं तो अगले सप्ताह मैं आऊँगा न बाजार में, तब पैसे तैयार रखना ।”
पिता ने पूछाः “कितने का बिका कपड़ा ?”
बोलाः “कपड़ा तो बिक गया पर पैसे नहीं आये । पैसे अगले सप्ताह मिलेंगे ।” पिता ने इंतजार किया कि अगले सप्ताह बेटा पैसा लायेगा ।
नामदेव अगले सप्ताह आता है मूर्ति का पास, कहता हैः “लाओ पैसा, लाओ पैसा ।” अब मूर्ति पैसा कहाँ से दे !
आखिर पिता को क्या बतायें ?… उठायी वह गोलमटोल प्रतिमा और पिता के पास आकर कहाः “ये ठंड में ठिठुर रहे थे तो इनको कपड़ा दिया था । कपड़ा भी गायब कर दिया और पैसे भी नहीं देते ।”
पिता ने नामदेव को डाँटते हुए उस पत्थर को पटक दिया । नामदेव घबराया कि ‘विठ्ठलदेव ! तुमको भी चोट लगी है और मेरे पिता जी मुझे भी मारेंगे !’ अंतरात्मा ने आवाज दी कि ‘नामदेव ! घबरा मत, तेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा । तू मेरा है, मैं तेरा हूँ ।’
देखते ही देखते वह पत्थर सोने का हो गया । पिता जी दंग रह गये, नगर में बिजली की तरह यह बात फैल गयी ।
जिसके खेत से वह पत्थर उठा के लाये थे व जमींदार आकर बोलाः “यह तो मेरे खेत का पत्थर था । वही सोना बना है तो यह मेरा है ।”
नामदेव ने कहाः “तुम्हारा है तो ले जाओ पर तुम्हारे इस भगवान ने मेरे कपड़े पहने थे, तुम मेरे कपड़ों के पैसे चुकाओ । मेरे पिता को मैं बोलता हूँ, तुम्हें सोने के भगवान दे देंगे ।”
जमींदार से पैसे दिलवा दिये पिता को और जमींदार वह सुवर्ण के भगवान ले गया और घर पहुँचा तो देखा कि सोने की जगह पत्थर ! ‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।’ करने में, न करने में और अन्यथा करने में भगवान समर्थ हैं – इस बात को याद रखना चाहिए ।
वह जमींदार वापस आकर बोलाः “तुम्हारे सोने के भगवान पत्थर के बन गये !”
बोलेः “अब हम क्या करें ?”
“लो यह पत्थर, रखो पास ।” वह पत्थर समझकर फेंक के चला गया लेकिन नामदेव जी को पत्थऱ में छुपा हुआ अपना प्रियतम दिखता था । नामदेव की दृष्टि में जड़-चेतन में परमेश्वर है । संत नामदेव जी के मंदिर में आज भी भक्त लोग उनके उस ठाकुर जी को पूजते हैं ।
हम मूर्ति में श्रद्धा करते हैं तो उसमें से भगवान प्रकट हो जाते हैं तो जिनके दिल में भगवान प्रकट हुए हैं उन विद्यमान महापुरुषों में यदि दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो हमारे तरने में कोई शंका ही नहीं । शरीरों में श्रद्धा कर-करके तो खप जायेंगे । सारा संसार इसी में खपा जा रहा है । अतएव शरीर जिससे दिखते हैं, उस आत्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा का अनुभव कराने वाले सद्गुरु में श्रद्धा हो जाय तो बेड़ा पार हो जाय ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 314
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