भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज प्राकट्य दिवसः 28 मार्च 2019
किसी जिज्ञासु ने साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज से निवेदन कियाः “स्वामी जी ! ईश्वर का दर्शन कैसे हो सकेगा ?”
स्वामी जी ने कहाः “ईश्वर का दर्शन करने से पहले मुझे यह बताओ कि तुम कौन हो ? क्या होंठ हो, कान हो, मांस हो, दाँत हो या प्राण हो ? आखिर तुम कौन हो ? तुम्हें अपने बारे में ही जानकारी नहीं है तो फिर ईश्वर का दर्शन कैसा ?
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।
जब तक अपने-आपको नहीं जाना तब तक मन से भ्रम नहीं जायेगा, राग-द्वेष का पर्दा नहीं हटेगा और जब तक यह नहीं होगा तब तक ईश्वर के वास्तविक सर्वव्यापक स्वरूप का दर्शन यानी परमात्मा-अनुभव कतई नहीं हो सकेगा ।
अबके बिछड़े कब मिलेंगे, जाय पड़ेंगे दूर ।
दुनिया के दूसरे कायों की कितनी फिक्र करते हो – ‘पिता जी नाराज होंगे… भाई, 7 बज गये हैं, स्कूल जाने में देरी हो रही है, जल्दी जाऊँ… बैंक बंद न हो जाय, जल्दी चलो… फिल्म शुरू न हो जाय… रेल न छूट जाय…. खाने का समय हो गया है….’ आप इन कार्यों को आवश्यक मानते हो परंतु इन सबसे मुख्य कार्य है स्वयं को पहचानना । जब हम स्वयं को को पहचानेंगे तब यह मालूम होगा कि हम हड्डियों, मांस के पुतले नहीं हैं तथा यह जो सामान हमें मिला है वह हमारा नहीं है । हम सब मुसाफिर हैं, हम सबके साक्षी सत्-चित्-आनंदस्वरूप, न बुझने वाली ज्योति हैं । हम सब स्वयं को ऐसा समझेंगे तब फिर और दर्शन कैसा ? फिर तो शाह साहब ने कहा हैः प्रियतम मैं खुद ही हूँ, प्रेमिका होने में सहस्रों कष्ट थे अर्थात् मैं स्वयं आत्मा-ब्रह्म था, खुद को जीव मानने के कारण मुझे इतने कष्ट झेलने पड़े ।
खुदी मिटी तब सुख भय मन तन भए अरोग ।
नानक द्रिसटी आइआ उसतति करनै जोगु ।।
‘जब अहं-भावना दूर हुई तब सच्चा सुख, आत्मिक आनंद मिला, जिसके प्रभाव से तन मन स्वस्थ हो गये और उस परमात्मा का अनुभव हुआ, जो सचमुच गुण-स्तुति का अधिकारी है ।’
रूहल कहते हैं कि ‘अपने-आपमें बैठकर जब खुद को देखा तब देखा कि न तो कोई स्थान है, न लोग हैं और न हम ही हैं । हम जिनको खोज रहे थे वे तो हम स्वयं ही हैं । प्रियतम से एकत्व के बाद द्वैत दूर हो गया ।’
यह शरीर जिस भूमि पर पैदा हुआ है उस भूमि को हम अपना वतन समझ बैठे हैं । यह कितनी बड़ी भूल है । हमारा असली वतन तो वह है जो हमसे बिछड़ न सके । जो हमसे बिछड़ जायेगा वह हमारा वतन कैसे हुआ ?
हम यहाँ इसलिए आयें हैं कि भलाई के कार्य करें, बुरे कार्यों से दूर रहें, इन्द्रियों के गुलाम न बनें, बुद्धि से काम लें, अंतर को प्रकाशमान करें । हम यहाँ स्वयं करें । हम यहाँ स्वयं को पहचानने के लिए आये हैं ।
अगर कोई कहे कि हम यदि शरीर नहीं हैं तो भला क्या हैं ? क्या अज्ञन हैं ? अज्ञान को भी किसी जानकारी द्वारा जाना जा सकता है । (जब हम कहते हैं, ‘मैं इस बात को नहीं जानता’ तो हमें अज्ञान का भी ज्ञान है ।) तो फिर क्या हम शून्य हैं ? शून्य को भी किसी शक्ति के द्वारा पहचाना जा सकता है ।
गुरुमुखदास ने अपने बेटे जयराम को कहाः “बेटे ! कमरे से सारा सामान निकाल कर कमरा खाली कर दो ।”
जयराम ने कमरा एकदम खाली करके पिता से कहाः “पिता जी ! मैंने कमरा खाली कर दिया है, भीतर कुछ नहीं है ।”
जयराम कमरे में ही खड़ा था । पिता ने बाहर से कुंडी लगा दी । तब जयराम ने चिल्लाकर कहाः “पिता जी ! यह क्या कर रहे हो ?”
“बेटे ! तुमने ही तो कहा था कि कमरे में कुछ भी नहीं है ।”
“पिता जी ! मैं तो हूँ ।”
ठीक इसी प्रकार दूसरा कुछ नहीं है, एक तुम ही सबके साक्षी भीतर विराजमान हो । तुम ही ज्योतिस्वरूप हो ।
अपना रूप पछान, समझ मन दर्शन एही ।
आत्मा अपनी जान है ।
उपाधि1 के कारण कहा जाता है कि यह कमरा है, यह हॉल है, यह रसोई है आदि । एक ही स्थान को भिन्न-भिन्न नाम देकर भिन्न-भिन्न समझ बैठे हैं । वास्तव में सब एक पृथ्वी ही है । दीवारें आदि यदि ख्याल में न लायें तो फिर सिर्फ एक ब्रह्मांड ही ब्रह्मांड दिखाई देगा ।
काहे रे बन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोहि संगी समाई ।।
हे भाई ! परमात्म को खोजने के लिए तू जंगलों में क्यों जाता है ? वह सर्व निवासी, सदा निर्लेप परमात्मा अंतर्यामीरूप से अभी तेरे संग है, तुझी में ओतप्रोत समाया हुआ है ।
1 उपाधि माने वह आरोपित वस्तु जो मूल वस्तु को छुपाकर उसको और की और या किसी विशेष रूप में दिखा दे । जैसे – आकाश असीम और निराकार है परंतु घट और मठ की उपाधियों से सीमित और भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 315
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