एक बार श्री रमण महर्षि जी के एक शिष्य ने उनसे पूछाः “भगवन् ! मैं किताबें पढ़ना चाहता हूँ ताकि मुक्ति का मार्गदर्शन मिल सके, पर मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ, मैं क्या करूँ ? मुझे मुक्ति कैसे मिल सकती है ?”
महर्षि जी ने कहाः “तुम अनपढ़ हो इससे क्या फर्क पड़ता है ? तुम आत्मा को जानो यही काफी है । ये किताबें क्या सिखाती हैं ? तुम अपने-आपको देखो, और फिर मुझे । यह तो ऐसे ही है जैसे तुमसे कहना कि “दर्पण में अपने-आपको देखो ।’ दर्पण में वही दिखेगा जो होगा । यदि मुँह धोकर देखोगे तो चेहरा साफ दिखेगा, नहीं तो दर्पण कहेगा, ‘मुँह गंदा है, यहाँ धूल है, वहाँ गंदा है, धोकर आओ ।’ किताब भी ऐसा ही कुछ करती है । यदि आत्मज्ञान के बाद पुस्तक पढ़ोगे तो सब आसानी से समझ में आयेगा । यदि आत्मज्ञान से पहले पढ़ोगे तो (सही मार्गदर्शन में भी) त्रुटियाँ दिखेंगी । पुस्तक भी यही कहती है, पहले अपने-आपको पहचानो फिर मुझे पढ़ो । पहले खुद को पहचानो । इस किताबी ज्ञान की तुम इतनी चिंता क्यों करते हो ?”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 316
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