‘मुझमें अहंकार नहीं’ यह जानना ही अहंकार है

‘मुझमें अहंकार नहीं’ यह जानना ही अहंकार है


महर्षि पराशर मैत्रेय को कहते हैं- “हे मैत्रेय ! सर्व अनर्थों को देने वाला जो देह आदि का अहंकार है, उसको जब तू जलायेगा (बाधित अर्थात् मिथात्व निश्चय करेगा) तब शेष जो पद रहेगा उसमें मन-वाणी का मार्ग नहीं, जो मैं वर्णन करूँ और तू सुने । परंतु देह को जलाने से सुख होता नहीं । देह को जलाने से सुख हो तो सती को भी सुख होना चाहिए, जो होता नहीं क्योंकि आवागमन से छूटने का नाम सुख है । इसलिए तुझे भी जन्म-मरणादि के मूल अहंकार को जलाने से ही सुख होगा ।”

मैत्रेयः “अहंकार मुझ चैतन्यस्वरूप को है नहीं और बिना हुए (अस्तित्व में आये) वस्तु को त्यागना लज्जा का काम है । जब अहंकार मुझमें है नहीं तब क्या त्यागूँ और क्या ग्रहण करूँ ? जैसे – आकाश को भूत-भौतिक पदार्थों का ग्रहण-त्याग नहीं बनता । हे गुरो ! जैसे मलस्पर्श बिना मल को दूर करने का उपाय करना मूर्खता है । ग्रहण-त्याग से रहित, यत्न बिना ही निर्विकल्प-निर्विकार मुझ चैतन्य में स्वतः ही अहंकार का अत्यंताभाव है । लाखों तरह के अहंकार और कोटि कोटि तरह के संकल्प व निश्चय, हजारों तरह के चिंतन व शोक, मोह आदि, हजारों तरह के खान-पान और शयन आदि तथा अनेक प्रकार के चक्षु आदि इन्द्रियों के रूप-दर्शनादि व्यवहार…. सारांश में, मन आदि धर्मी और उन अनात्मा मनादि के संकल्पादि धर्म मुझ अवाड्मनसगोचर (मन और वाणी की पहुँच से दूर) चैतन्य पूर्ण आकाश में बिजली-मेघादिवत् हजारों बार होकर मिट जाते हैं और उत्पन्न होते हैं परंतु मुझ चैतन्य आकाश का रोममात्र भी छेदन नहीं होता । जैसे भूताकाश में मेघ, बिजली, वर्षा, अंधकार, प्रकाश, सूर्य, चाँद, तारामंडल, स्वर्ग, नरक, मलिन और शुद्ध पदार्थ इत्यादि अनेक पदार्थ होते हैं और पुनः मिट जाते हैं पर आकाश ज्यों-का-त्यों है, जैसे समुद्र में तरंगे, बुदबुदे, फेन उत्पन्न हो के मिट जाते हैं परंतु समुद्र ज्यों-का-त्यों है, वैसे ही मुझ चैतन्य-समुद्र में अनंत ब्रह्मांडरूपी तरंगे उत्पन्न होकर मिट जाती है परंत मैं चैतन्य ज्यों-का-त्यों हूँ ।”

पराशर जीः “हे मैत्रेय ! बड़ा आश्चर्य है ! अहंकार बिना व अंतःकरण बिना ‘मुझ निर्विकल्प चैतन्य में अहंकार है नहीं  और जगतरूप तरंग होने-मिटने से हानि-लाभ का मुझमें अभाव है ।’ यह वृत्तांत तुझ निर्विकल्प चैतन्य को कैसे मालूम हुआ है !

हे मैत्रेय ! ‘मुझ चैतन्य में अहंकार नहीं’ यह जानना ही अहंकार है । इसी से कहता हूँ कि तू अवाडमनसगोचर निजस्वरूप के बारे में इस जाननारूप अन-होते अहंकार का त्याग कर तो सुखी होगा ।”

मैत्रेयः “मैं सुखी नहीं होता क्योंकि सुखी होना-न-होना भी अहंकार ही है ।”

पराशर जीः “यही समझ संतों की है परंतु तूने तो निर्विकल्प को सविकल्प जाना है और सविकल्प को निर्विकल्प जाना है । हे मैत्रेय ! तू सम्यदर्शी1 हो संत पदवी पायेगा ।”

1 प्रतिबिम्बों की तरह नष्ट हो रहे पदार्थों में दर्पण-सदृश यानी प्रतिबिम्बों के नष्ट होने पर भी दर्पण की नाईं साक्षीस्वरूप से स्थित अविनाशी आत्मा को जो देखता है, वह सम्यदर्शी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 10 अंक 316

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