भावार्थ रामायण में आता है कि महर्षि वसिष्ठ जी द्वारा राम जी को आत्मज्ञान का उपदेश मिला और वे आत्मानंद में मग्न हो गये । तत्पश्चात् अद्वैत आनंद-प्रदाता सद्गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए श्रीराम जी कहते हैं- “हे गुरुदेव ! आपके कृपा-प्रसाद से मैं न कोई विधि अर्थात् शास्त्र-संगत व्यवहार देखता (मानता) हूँ, न कोई निषेध अर्थात् शास्त्र के प्रतिकूल समझता हूँ (मैं विधि-निषेध का विचार नहीं कर रहा हूँ)। फिर भी आपकी आज्ञा ही नित्य कार्यान्वित करने योग्य है ।
हे सज्जनो ! आत्मज्ञान से तथा आत्मज्ञानी गुरु से बढ़कर कुछ भी नहीं है । हे महामुनि वसिष्ठ जी ! आपके आदेश का पालन करना ही मेरे लिए प्रताप की बात है । मैं उसके अतिरिक्त किसी बात को विधि या निषेध के रूप में न मन में मानता हूँ, न आँखों से देखता हूँ । हे स्वामी ! आपके कथन का (गुरु आज्ञा का ) सामर्थ्य ऐसा है कि उसके सामने मेरे लिए कर्म, कार्य तथा कर्तव्य का कोई विचार बिल्कुल शेष नहीं रहा है (अर्थात् आपकी आज्ञा ही मेरे लिए सब कुछ है) इसलिए आपका कथन मेरे लिए सब प्रकार से अनुल्लंघ्य है (उसे किसी भी प्रकार से टाला नहीं जा सकता) । आपका जैसा भी आदेश हो वह मेरे लिए प्रयत्नपूर्वक, अति विश्वास के साथ, सब प्रकार से करने योग्य है । शिष्य अपने सद्गुरुदेव के आदेश का प्राणों के निकल जाने की स्थिति में भी बिल्कुल उल्लंघन न करे । गुरु के आदेश का परिपालन करना ही वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों, पुराणों में शिष्य का मुख्य लक्षण बताया गया है । जिस व्यवहार द्वारा गुरु के आदेश का पालन किया जाता है वही व्यवहार विधियुक्त है । गुरु के आदेश का उल्लंघन करना ही घोर महापाप है । महापाप के लिए (शास्त्रों में) प्रायश्चित की व्यवस्था निर्धारित है परंतु गुरु के आदेश की अवज्ञा करना पूर्णरूप से वज्रपाप है (जिसका किसी भी प्रायश्चित्त से दोष निवारण नहीं होता) । जिसके अँगूठे पर (अर्थात् जिसके हाथों किये हुए) महापाप है, उसके उन पापों के करोडों गुना अधिक पाप गुरु की अवज्ञा करने पर होते हैं । गुरु की अवज्ञा करना वज्रपाप है जो कोटि-कोटि पापों के बराबर होता है । गुरु की अवज्ञा शिष्य के धर्म तथा कर्तव्य-कर्म का नाश कर देती है । उससे उसे स्पष्ट, ठोस हानि पहुँचती है । इसलिए सारभूत यह बात है कि आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा लाभ है । बिना आत्मज्ञान के चौदह विद्याएँ तथा चौंसठ कलाएँ दुःखस्वरूप हो जाती है, वे सब विकृत, हीन हो जाती है । आत्मज्ञान (की प्राप्ति) में सुख का समारोह सा होता है । आत्मज्ञान समस्त सिद्धान्तों की चरम सीमा है, आत्मविद्या ही मुख्य ज्ञान है । जो अन्य चौदह विद्याएँ विख्यात हैं वे सब अविद्याएँ ही हैं । उस आत्मज्ञान का सद्गुरु से बड़ा ज्ञाता कोई नहीं है । किसी देवता में भी सद्गुरु से अधिक बढ़ाई (श्रेष्ठता) नहीं है । समस्त गुणों से परे स्थित मुख्य सद्गुरु ही हैं, वे ही वंदनीय हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी सद्गुरु के सेवक हैं । तीनों लोकों में सद्गुरु से बड़ा, अधिक योग्य कोई भी नहीं है ।”
इस प्रकार कहते-कहते राम जी का गुरुप्रेम उमड़ पड़ा, उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से गुरुदेव वसिष्ठ जी के चरणों का सिर टिकाकर वंदन किया । वसिष्ठ जी ने उनका आलिंगन किया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 11 अंक 318
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