विवेक जागृति

विवेक जागृति


प्रमादो हि मृत्युः

पूज्य बापू जी

मैं नियति की बात बताता हूँ। आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरी वैद्य को फोड़ा निकला। दवाई इलाज की उनको क्या कमी, उन्होंने खूब किये लेकिन ढाई-तीन साल तक वह फोड़ा ठीक नहीं हुआ, नासूर हो गया। जब वे सब उपचार करके थक गये तो उन्होंने छोड़ दिया कि होगा वही जो राम रूचि राखा।

एक दिन वे दोपहर के समय अपनी झोंपड़ी के प्रांगण में लेटे थे। उस समय शायद बसंत का मौसम था। ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। वे शांत थे। उन्होंने देखा कि एक बूटी, एक पौधा कुछ बोल रहा है।

उन्हों लोगों के द्वारा सुंदर-सुंदर ग्रंथ बने हैं, सुंदर-सुंदर आविष्कार हुए हैं जो मौन को उपलब्ध हुए हैं या थोड़ा बहुत एकांत को उपलब्ध हुए हैं, बहिर्मुख व्यक्तियों के द्वारा नहीं हुए हैं। विज्ञानी भी वे ही सफल होते हैं जो मौन रखते हैं, कम बोलते हैं और जब किसी विषय को जाँचना चाहते हैं उस समय भूल जाते हैं कि मैं कौन हूँ, पत्नी कहाँ है, परिवार का क्या है ? मेरा-तेरा जब वे भूल जाते हैं, अनजाने में एकाग्रता की छोटी-मोटी गहराई में पहुँचते हैं तभी वे आविष्कार कर पाते हैं लाला !

सूक्ष्म जगत की बात को समझना है तो आपकी वृत्ति सूक्ष्म चाहिए। मैं बताया करता हूँ कि ‘टी.वी. और रेडियो की तरंगों को देखना हो तो उस प्रकार का यंत्र चाहिए।’ अभी यहाँ टी.वी. और रेडियो की तरंगे हैं, उनमें गाने हैं, समाचार हैं, कई स्टेशन गूँजते हैं और सुनने के कान भी आपके पास हैं लेकिन फिर भी सुनायी नहीं पड़ते, दिखायी नहीं पड़ते क्योंकि आपके पास इस समय टी.वी., रेडियो नहीं है। ऐसे ही सूक्ष्म जगत में भी बहुत कुछ है, जब इस प्रकार का यंत्र अंदर क्रियान्वित हो जाता है तो आपको दिखता है, उनकी बातें सुनायी पड़ती हैं। आधा घंटा भी आप यदि निःसंकल्प दशा में प्रविष्ट होते हैं तो आपका सूक्ष्म लोकों के साथ संबंध हो जाता है, आप सूक्ष्म लोकों की गतिविधियों को जान सकते हैं, देवताओं की चर्चा को समझ सकते हैं, इंद्र की सभा किस समय विसर्जित होती है, संसद भवन में क्या-क्या चर्चा हुई – यह सब आप जान सकते हैं, और क्या-क्या होगा यह भी समझ सकते हैं। आपके अंदर इतनी क्षमता है ! बीज में पूरा वटवृक्ष छुपा हुआ है। बीज को यदि कोई कह दे कि ‘तू वटवृक्ष है’। तो इनकार करता है लेकिन संयोग आ जाये तो सचमुच वह है। जैसे मोर की चोंच, उसकी जिह्वा, उसकी आँख, उसके कान, पंख और पैर सब उसके अंडे में छुपे हैं, ऐसे ही सारा ब्रह्माण्ड आपके पिंड में छुपा है। संयोग आये तो विकसित हो जाये, कोई बड़ी बात नहीं। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। विश्व की यात्रा करनी हो तो आप भीतर की यात्रा कर लो। दुनिया को जानना है तो आप अपने को जान लो। ईश्वर को पाना है तो आप अपने को पा लो फटाफट।

जड़ी-बूटी धन्वंतरी वैद्य से कुछ बात कर रही थी। बूटी ने कहा कि ‘आपने इतना-इतना कष्ट सहा है। मैं तो आपके प्रांगण में उगी हूँ। मेरी कोई कद्र नहीं, मेरी कोई गिनती नहीं। अब उठिये, जल्दी करिये, मेरा प्रयोग कीजिये।”

उन्होंने उस बूटी को तोड़ा, घोंटा और घाव पर लगाया, वे ठीक हो गये। बोलेः “अरे पगली ! जब तू जानती थी कि तेरे को लगाने से मैं ठीक हो जाऊँगा तो तू पहले क्यों नहीं बोली ? तीन साल पहले भी तो तू यहाँ थी ? इन पहाड़ी इलाकों में तो तेरा जंगल-ही-जंगल है।”

बूटी ने कहाः “धन्वंतरी जी ! उस समय आपका तरतीव्र प्रारब्ध था। अब मिटने को है तभी मैं बोली हूँ।

अवश्यंभावी नु भावानां प्रतिकारो भवेद् यदि।

जो अवश्यम्भावी है उसका प्रतिकार नहीं होता। आपका दुःख भोगना अवश्यम्भावी था इसलिए मैं नहीं बोली और अब वह अवश्यम्भावी हट गया है इसलिए मैं बोली हूँ। अब आप थोड़ा सा पुरुषार्थ करेंगे तो सफल हो जायेंगे।”

तो फोड़ा होना अवश्यम्भावी हो सकता है लेकिन अज्ञानी होना अवश्यम्भावी कभी नहीं हो सकता। आपका अज्ञानी होना अवश्यम्भावी नहीं है। आपका आलस्य है, आपका प्रमाद है, आपकी लापरवाही है, आप अपने साथ अन्याय करते हैं इसलिए माता के गर्भ में उलटा होकर लटकना पड़ता है, ऊँट होकर भटकना पड़ता है, गधा होकर बोझा उठाना पड़ता है, कुत्ता होकर भौंकना पड़ता है, मंजरी होकर वन में खिलना पड़ता है, पक्षी होकर चैं…. चैं…. करना पड़ता है, यह प्रमाद का फल है।

प्रमादौ हि मृत्यु आख्याम इति श्रुतौ।

‘प्रमाद ही मृत्यु है ऐसा श्रुति कहती है।’

आपका प्रमाद, आपकी लापरवाही, आपकी बेवकूफी आपको जन्म-मरण में ले जाती है वरना जन्म-मरण में ले जाने वाला कोई प्रारब्ध नहीं बैठा है, कोई ‘अवश्यम्भावी’ नहीं बैठा है। यह हम लोगों का अज्ञान है जो हम अपने को कर्ता मानकर संसार में सुख ढूँढते हैं और वासनाओं के पीछे दीन होते हैं इसीलिए जन्म-मरण होता है। यदि हम अपने घर लौटें तो-

हमें मार सके ये जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

बात तो यह है लेकिन समझ में आ जाये और हम लोग तैयार हो जायें, वे घड़ियाँ गुरु ढूँढ रहे हैं बस।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2009, अंक 2009, पृष्ठ संख्या 26,27

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *