जो वस्तु जैसी है उसको ठीक-ठीक वैसी ही जानने का नाम ‘ज्ञान’ है । अन्य वस्तु को जानना हो तो उसके लिए कान, त्वचा, नेत्र आदि करणों का उपयोग करना पड़ता है । आप देखेंगे कि विषय अनेक होते हैं परंतु उन्हें देखने के लिए प्रकाश एक होता है । अब तक आपने कितने रूप देखे हैं पर नेत्रेन्द्रिय वही की वही है । विषय अनित्य होते हैं, ज्ञान नित्य होता है । घट, पट आदि विषय के भेद से ज्ञान में भेद नहीं होता है ।
जिस आँख से आपने कल नीली-पीली साड़ी देखी थी, उसी से आज लाल, सफेद साड़ी देख रहे हो । साड़ी अलग-अलग हुई, नेत्र एक हुए । जिस ज्ञान से कान के द्वारा आप शब्द सुन रहे हो, उसी ज्ञान से नेत्र के द्वारा रूप देख रहे हो । नेत्र भी किसी के तेज होते हैं, किसी के सामान्य होते हैं तो किसी के मन्द होते हैं । सभी इन्द्रियों की यही दशा है । विषय के भेद से ज्ञान में भेद जान पड़ता है परंतु ज्ञान रहता एक ही है ।
यह ज्ञान क्या आपसे अलग रह सकता है ?
दूसरी वस्तु को जानने में और अपने को जानने में क्या अन्तर पड़ता है ? दूसरे को जानेंगे-वह अच्छा होगा, भला होगा, उपयोगी होगा तो उससे मिलने का, उसे पाने का मन होगा और बुरा होगा तो छोड़ने का मन होगा । इसका अभिप्राय यह है कि दूसरी वस्तु का ज्ञान पाने या छोड़ने के लिए होता है परंतु अपना ज्ञान पाने या छोड़ने के लिए नहीं होता । आत्मा नित्य प्राप्त है, इसको पाना नहीं है । आत्मा छोड़ा नहीं जा सकता । तब आत्मज्ञान केवल यथार्थ को प्रकाशित करता है । यथार्थ को प्रकाशित करना माने आत्मा के स्वरूप के संबंध में जो भ्रम है उसको मिटाना ।
जो वस्तु ज्ञात होकर भूतकाल में रह गयी है उसकी स्मृति होती है । जो वस्तु भविष्य में ज्ञान का विषय होने वाली है उसकी कल्पना होती है । अपना आत्मा न भूत हुआ न भविष्य होगा, वह इसी समय, यहीं अधिष्ठान चेतन के रूप में प्रकाश रहा है । उसमें स्मृति और कल्पना तक नहीं जुड़ती है । इसका अर्थ यह है कि एक ज्ञान संस्कार के रूप में रहकर स्मृति का हेतु बनता है और एक ज्ञान कल्पना में रह के प्रेरक बनता है परंतु अपने स्वरूप का ज्ञान न स्मृति का विषय है न कल्पना का । वह ज्यों का त्यों है । वहाँ ‘है’ और ‘ज्ञान’ अलग-अलग नहीं है ।
यह बात इतनी सीधी-सादी है कि ध्यान देने पर एक साधारण मनुष्य भी समझ सकता है । वह यह है कि ज्ञान किसी के बनाये बनता नहीं है । यदि किसी जीव ने या ईश्वर ने ज्ञान का निर्माण किया तो उस निर्माण के पहले क्या ज्ञान नहीं था ? ज्ञान का निर्माण भी तो ज्ञान से होगा । ज्ञान से ही ईश्वर ज्ञात होगा । ज्ञान से ही जीव ज्ञात होगा । ज्ञान से ही जगत ज्ञात होगा । बिना ज्ञान के कुछ सिद्ध ही नहीं हो सकता । भगवान का दर्शन होगा तो उसका ज्ञान होगा । भगवान की पहचान पहले से ही होगी । इसलिए ज्ञान जीव, ईश्वर, प्रकृति, भूत, चित्त, शून्य – किसी का भी बनाया हुआ नहीं है । ज्ञान स्वयं है और इसी से सब कुछ प्रतीत होता है । आप यह चिंतन करें कि इस ज्ञान से क्या आप अलग रह सकते हैं या यह ज्ञान क्या आपसे अलग रह सकता है ?
भ्रम के मिटने का सुख लीजिये
यह तो आपको ज्ञात ही है कि अपने माँ-बाप को भी आप बताने से और विश्वास से पहचानते हैं इसलिए ज्ञान के स्वरूप पर भी आपको किंचित् विश्वाक की और बताने की आवश्यकता पड़ेगी । हाँ, तो आप जो भी (वेदांत-ज्ञान) श्रवण कीजिये उसके पहले अनुकूल चिंतन कीजिये । अनुकूल चिंतन श्रद्धा से ही होता है ।
इस ज्ञान से मुझे क्या मिलेगा – यह आप देख नहीं सकते, जान नहीं सकते ! हाँ, इतना अवश्य जान सकते हैं कि इस ज्ञान से मेरी बुद्धि का कौन सा दोष दूर होता है, कौन सा भ्रम मिटता है । यदि आपका ज्ञान आपके जीवन का कोई मिटाता है तो वह आपके लिए उपयोगी है । जैसे यज्ञोपवीत संस्कार से अभक्ष्य भोजन निवृत्त होता है, विवाह से परस्त्री, परपुरुष संग निवृत्त होता है, वैसे ही बुद्धि में ज्यों-ज्यों सत्य के ज्ञान की निकटता आती है, त्यों-त्यों भ्रम दूर होता है । आप देखेंगे कि आपके श्रवण के साथ सुख का समावेश हो गया है ।
मिलने का सुख मत लीजिये, भ्रम के मिटने का सुख लीजिये । वही ज्ञान सत्य तक पहुँचा सकता है जो आपके जीवन की गलतियों और भ्रांतियों को मिटाने में समर्थ हो । आपकी (अपने स्वरूप की) एक-एक जानकारी एक-एक पर्दा फाड़ती जायेगी और आप उस महान तत्त्वज्ञान के निकट होते जायेंगे जो आपका अपना स्वरूप ही है । बुद्धि के संबंध से ही वह अंतर्यामी है । संबंध के बिना तो अपना स्वयं ही है ।
परंतु यह बात सद्गुरु से श्रवण किये बिना समझ में नहीं आ सकती । कितने बंधन हैं अपने जीवन में ! अहं के बंधन हैं, मन के बंधन हैं, पाप-पुण्य के बंधन हैं, राग-द्वेष के बंधन हैं सुख-दुःख के बंधन हैं, ज्ञान-अज्ञान के बंधन हैं – ये सब बंधन सद्गुरु से वेदांत-ज्ञान श्रवण करने पर टूटते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 23 अंक 318
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