गुरु का प्रसाद….

गुरु का प्रसाद….


जिज्ञासु ने कहा कि महात्मा जी गुरू से जो प्रसाद मिले, वह अगर अपने व्रत या दशा के विरुद्ध जाता हो तो उसे खाना चाहिए या नहीं । महात्मा जी ने कहा इसी बात को लेकर एक दिन बड़ी प्रश्नोत्तरी हो गई । एकादशी का दिन था, कोई सज्जन विद्वान पंडित हमारे गुरुदेव के पास गये और गुरुदेव ने उन्हें कुछ खाने को दे दिया प्रसाद रूप में । सबको बांटा गया तो उन्हें भी मिला, वे थे उपवासी वैष्णव ब्राह्मण ।

प्रसाद की अवहेलना करना बड़ा पाप माना जाता है फिर भी उन्हें संदेह हो गया । उन्होंने हमसे पूछा कि आज एकादशी है खाना या नहीं खाना, मैंने पूछा यह क्या है ? तो सज्जन ने कहा प्रसाद है । मैंने कहा कि गुरू ने जो प्रसाद दिया यदि उसमें प्रसादबुद्धि सच में है तो यह प्रसाद गुरू जैसा, ईश्वर जैसा परम पवित्र है इसे ग्रहण कर सकते हो । हां अन्न मत खाना, शिष्य को श्रद्धा, धैर्य और समझ के अनुरूप उसका उपयोग करना चाहिए ।

सर्वसाधारणतः उसकी अपनी भावना पर है, भावना के अनुसार प्रसाद अपना प्रभाव दिखलाता है । रामकृष्ण परमहंस के गले में कैंसर हुआ था, उनके आस-पास बहुत से शिष्य भी थे, सब कपड़े डाले हुये मुंह को ढके हुए थे, आंखें भी ढकी हुई थी, कहीं कोई जंतु अंदर ना घुस जाये ।

ऑपरेशन हो गया था उनके घाव का, निकाला हुआ सब द्रव्य एक कटोरे में रखा हुआ था, उन शिष्यों के भय और संशय को दूर कर विवेकानंद के मन में बड़ा क्षोभ और दुख हो गया ।

उन्होंने वह कटोरा उठाया और पूरा पी गये, विवेकानंद जी बोले तुम लोग डरो मत । तुम्हारे लिए यह रोग है और मेरे लिए यह गुरू का अमृत प्रसाद है और वह उनके लिए अमृत ही हुआ, रोग नहीं । अतंर्श्रृद्धा में एक महान शक्ति है, वह अमृत को जहर और जहर को अमृत भी बना सकती है । प्रसाद को प्रसाद ही समझना चाहिए, उसे अन्न आदि नहीं समझना चाहिए, उसको डॉक्टरी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए ।

अब इस विषय में थोड़ा विमर्श करेंगे, क्या दिया बाबा ने ? कि लड्डू दिया । इसमें क्या है, इसमें डालडा है जिससे चर्बी बढ़ती है बेसन भी बहुत भारी और वायुकारक है । शक्कर के मिलने से इसमें और भी भारी बन जाता है पचने के लिए पूरा कठिन है, अच्छा आदमी भी खाये तो पेचिश होगा ही फिर भी थोड़ा खा सकते हो । यह लड्डू विज्ञान किधर होना चाहिए कि बंबई के होटल में, गुरू के पास नहीं ।

दूसरी दृष्टि यह है कि बाबा ने क्या दिया ? प्रसाद दिया । उसके लिए प्रसाद महाप्रसाद के सिवाय और कुछ नहीं । उसमें फिर विज्ञान नहीं, महाविज्ञान नहीं अनुकूल हो या प्रतिकूल यह भी प्रश्न नहीं । यह प्रसाद तो ठीक है बाह्य है लेकिन जो गुरू अमृत प्रसाद देते हैं अपने श्रीवचनो के रूप में उसे तो रोज ग्रहण करना ही चाहिए । बाहर का प्रसाद तो आपके शरीर से मन तक फिर मन से आत्मा तक पहुंचेगा परन्तु गुरुवचनामृत प्रसाद तो सीधे आपके सुषुप्त आत्मा तक जाकर उसे झंकृत, उसे जागृत कर देगा, परन्तु लोग इस प्रसाद को तो यूहीं समझ कर इसे ग्रहण ही नहीं करते । अब तुम कहो महात्मा जी हम तो रोज सत्संग श्रवण करते ही हैं आपका । तो भैया इस प्रसादी को तुमने कितना खाया और कितना पचाया या यूहीं ले जाकर कहीं रख कर भूल गये । सच्ची गुरू की प्रसादी तो सेब, संतरे या मैंगो नहीं है, गुरू की प्रसादी जो पचा लिया वो तो प्रसाद बनाने वाला बन जायेगा । इसमें कोई शंका नहीं है परन्तु तुम्हे तो प्रसाद ग्रहण ही नहीं करना है ।

गुरुदेव का तो काम ही है प्रसाद देना और तुम्हारा काम ही है गुरुदेव का कुछ ना लेना । क्यूं जी, सत्य कहा ना ? अरे भाई मैं तो कहता हूं कि यदि यह गुरुप्रसादी थोड़ी सी भी अपने साथ ले जाओ तो कोई विकार तुम्हें लूट नहीं सकता । तो महात्मा जी कैसे पता चले कि हमने प्रसादी पचायी है या नहीं *महाप्रसादे गोविंदे नामनी ब्रह्माणी वैष्णवी स्वलप-पुन्यवताम राजन विश्वासो नैव जायते* ।

प्रसाद वह है जो सर्व दुखों का, सर्व अनिष्ठों का नाश करता है । गुरू की प्रसादी पचाने पर भगवान में रुचि बढ़ेगी और वह साधक सिद्घता की ओर अग्रसर होगा और गुरू की प्रसादी तख्त पर रख छोड़ने से बद्धता में ही घूमते रहोगे फिर उसका चित्त राग-द्वेष से उपर उठ ही नहीं सकता, छिद्रान्वेषण से उपर नहीं उठ सकता । दूसरों को देखकर अपने चित्त को मलिन करेगा, दूसरों में दोष दर्शन करेगा, इधर-उधर की गप ही करेगा तो समझो उसने अपने गुरू की प्रसादी का अनादर किया ।

दूसरों के गुण-दोष देखकर जो इंस्पेक्टर बन जाता है, दूसरों की उन्नति देखकर जो बंदर बन जाता है वो क्या पायेगा गुरू की प्रसादी को, ऐसे लोगों से तो हम बड़े ही कठोर होते हैं बाबा क्यूंकि यहां आकर भी कोई उन्नत ना हो, सेवा करके भी उन्नत ना हो तो कहीं और की तो आस ही क्या । अभी कुछ दिन पहले ही हमारे पास कोई आया दौड़ते हुए, कहने लगा महात्मा जी ! फलाना आपका बहुत पुराना चेला है और मैंने उसे ऐसे -2 करते देखा ।

मैंने कहा खुद देखा या सुना, महात्मा जी लोगों के द्वारा सुना । हमने तुरन्त उसे डांटते हुये कहा कि लोगों की इतनी ही फिक्र है कि कौन क्या कर रहा है किसमे क्या दोष है तो तू एक काम कर मैं इस व्यासगद्दी से उत्तर जाता हूं तू ही ऊपर बैठ जा । इतना सुनकर वो थोड़ा शर्मिंदा सा हुआ, मैंने कहा अब चुप हो जा और बैठकर जप कर ।

कुछ देर बाद पता चला कि फिर उसने वही बात दूसरे आश्रम में रहने वालों से भी कही । हम कहते हैं कि अरे भाई आप मेरे यहां दूसरों के दोषों का मुआयना करने आये हो क्या, जरा बता दो । यहां तो गुरू के पास रहकर अपने दोषों को मिटाना होता है परन्तु आप करते हैं इससे बिल्कुल विपरीत तो यह गुरू की प्रसादी का अनादर ही तो हुआ ।

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