सद्गुरु मे दृढ़ श्रध्दा आत्मा की उन्नति करती है, हृदय को शुद्ध करती है एवं आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। गुरू मे संपूर्ण श्रध्दा रखो और अपने आपको पूर्णतः गुरु की शरण मे ले जाओ। वे आपकी निगरानी करेंगे, इससे सब भय अवरोध एवं कष्ट पूर्णतः नष्ट होगे। आचार्य प्रमाण के रूप मे जो कहे उसमे अन्य कोई प्रमाण की परवाह किए बिना दृढ़ विश्वास रखना, उसका नाम है श्रद्धा गुरु के उपदेशो मे संपूर्ण श्रद्धा रखना। यह शिष्यो का सिद्धांत होना। मन मे बङी उथल पाथल थी, एक बोझिलता थी, मन मे थकान थी, भावनाएं डांवाडोल हो रही थी, यह एक शिष्य के मन का उत्पाद था, वह शिष्य थे छत्रपति शिवाजी।
मन का तुफान लिए शिवा अपने माझी के पास चल दिये, जैसे ही समर्थ गुरु रामदास जी के सान्निध्य मे पहुंचे,उन्हे अत्यधिक सक्रिय पाया। एक गजब सी गति अजब सी लय मे थे, समर्थ शिवाजी को देखते ही पूरे प्रवाह से बोलने लगे अरे शिवा अच्छा हुआ आज संयोग से तुझसे भेट हो गई वर्ना तो जब तु यहाँ आश्रम मे आता था मै कहीं बाहर भ्रमण पर गया होता था मै भी क्या करूं? गांव गांव, नगर नगर यात्रा करनी ही पङती है, कई आश्रमो मे जाना पड़ता है कई आश्रमों की स्थापना करनी पङती है, कहीं सत्य का उपदेश देना है, कहीं कुरीतियो का खंडन करना है। धर्म का प्रचार प्रसार बिल्कुल सहज कार्य नही। शिवा कई कई बार तो मै उकता सा जाता हूं।
प्रभु श्रीराम से झुंझलाकर कहता हूं यह दिन प्रतिदिन एक ही कार्य सत्य प्रसार मेरे ही से क्यो? परंतु तब मेरे प्रभु राम चुपके से कान मे कह देते है समर्थ तुझे इसी कार्य के लिए चुना गया है और इसका सामर्थ्य भी दिया गया है, शिवा के मस्तिष्क मे एक बङा सा प्रश्न चिन्ह आकार ले गया। शिवा सोचने लगा आज गुरूदेव कैसी बाते कर रहे हैं सत्य के प्रसार से इन्हे झुंझलाहट इन्हे उकताहट ये तो स्वयं रूप भगवान है विभु है, प्रभु हैं।
परंतु इसके पहले कि शिवा अपने मन की बात को स्वर देता, समर्थ की वाणी प्रवाह ले चुकी थी। वे कह रहे थे जानता है शिवा मै एक दिन एक किसान से मिला वो कह रहा था कि जमीन की जुताई करना उसमे बीज बोना, समय समय पर सिंचाई करना, फसल की कीड़ों से रक्षा करना फिर कटाई करना फिर बुआई करना मौसम दर मौसम यह एक तरह का काम करते मै उकता गया हूं। जी करता है सब छोङ छाङ कर मस्त हो जाऊँ, छुट्टी मनाऊं।
यह सुना तो मैने किसान से कहा अच्छा तो क्या शहंशाह बनने की इच्छा है तब आलीशान सिंहासन पर बैठकर शान से हुक्म जारी करना, उस किसान ने थोड़ा मनोमंथन किया और बोला उसमे भी झंझट कम थोड़े ना है महाराज। अब तो सिर्फ अपना और परिवार का भार सिर पर है, राजा बनकर तो पुरे राज्य का बोझा ढोना होगा। सुना है प्रजा पुत्र और पुत्रीयो के समान होती है भला कौन इतनी असंख्य औलादो को पाले? और उसमे भी तो हर सुबह राज गद्दी पर बैठना होगा। राज्य की समस्याए और मामले सुनने पड़ेंगे। उलझालू दलिलो को सुनकर न्याय देना पड़ेगा। बीच बीच मे नगर के दौरे पर भी जाना पड़ेगा। यह सब करना भी तो भीषण रूप से उबाऊ ही हो जाएगा।
सच मे शिवा वह किसान सीधे सरल ढंग से बङी पते की गहरी बात कह गया आखिर मे मैने उससे पूछा अच्छा तो किसान भाई फिर अपनी इस उबाऊ किसानगिरी से उबरने का क्या सोचा है आपने? किसान बोला महाराज सोचना क्या है जो काम नियती ने दिया है उसे ही ईमान से करूंगा। उसी मे ही मन लगाने की पूरी कोशिश करूंगा। समर्थ गुरु कहे जा रहे थे। शिवा चुपचाप सुन रहा था अब गुरुदेव ने प्रवाह पर थोड़ी रोक लगाई, शिवा को निहारते हुए बोले अरे मै तो अपनी ही राम कहानी सुनाये जा रहा हूं, शिवा तुझसे तो तेरी कुछ सुनी ही नही, बता कैसा है तू? तेरा चेहरा इतना निस्तेज इतना उदास क्यो है क्या हुआ तुझे?
शिवा विह्वल होकर श्री चरणो मे झुक गये। गुरुदेव को प्रणाम किया और फिर अति श्रद्धा से हाथ जोड़कर बोले क्या कहूं गुरूदेव? अब कुछ कहना सुनना शेष ही नही रहा। आपकी धारा प्रवाह राम कहानी ने मेरे मन की सारी गुत्थीया सुलझा डाली, जिस दुविधा की गांठ मैं लेकर आया था। उसे सहजता से आपने खोल दिया एक दिव्य और नटखट मुस्कान समर्थ के होठों पर खिल गयी। वे बोले क्यो? क्यो तेरी उलझन भी वही है जो मेरी और किसान की थी। उबाऊ जीवन क्या ऊब गया है तू ? यह सब करते करते शिवा तुरंत बोला हे गुरु राय। युद्ध ही युद्ध सोचता था आखिर कब तक? कब तक रणभेरियो और विस्फोटो के बीच सांस लेता रहूंगा? उकता गया था मैं। समर्थ ने कहा अहो मेरे पार्थ अब कुछ समझा या नही या फिर पूरे अट्ठारह अध्यायो की गीता सुनानी पड़ेगी।
शिवा ने कहा नही गुरूदेव आपके दो श्लोको मे ही ये गीता पूरी हो गई मै समझ गया चाहे अवतारी भगवान ही क्यो ना हो या एक आम इंसान या फिर एक शहंशाह सभी को अपने निर्धारित कर्तव्यो का पालन करना ही करना है। आपके रूप मे आये भगवान तक को भी कोई अवकाश नही मिलता। फिर मेरी क्या मिसाल। अच्छा यही होगा जैसे उस किसान भाई ने नसीहत दी कि आपने मुझे जिस सेवा के लिए चुना है उसे मै ईमानदारी से पूरा करूं। पूरे मनोयोग से उसमें स्वयं को समर्पित कर दूं।
प्रायः हम सभी साधको के जीवन की भी यही दुविधा होती है कि मन बदमाशी पर उतर आता है और सेवा से साधना से प्रमादी बन बैठता है परंतु इसके विपरीत महापुरुषो का अनोखा रूझान होता है अपने कर्तव्यो के प्रति। हम सभी साधको ने अपने प्रत्यक्ष जीवन मे यह अनुभव भी किया है कि हमारे पूज्य श्री अपने कर्तव्यो के प्रति कितने सजाग है कितने जागरूक है, एक एक साधक का ख्याल, एक एक साधक का ध्यान संपूर्ण जिम्मेदारी से रखते हैं फिर चाहे व परोक्ष रूप से या अपरोक्ष रूप से हम सभी साधको का जो मुख्य कर्तव्य है आत्मा उन्नति ईश्वर प्राप्ति इस महान कर्तव्य के लिए हमसे ज्यादा तङप हमारे को है। आत्म उन्नति हेतु जितनी सजगता हमारी होनी चाहिए कि क्या खाना, कब खाना, कैसे उठना, कैसे बैठना, कैसे सोना, कैसे बात करना जितनी सजगता हमारी होनी चाहिए उससे कई ज्यादा सजगता हमारे बापू को है हमारे लिए।
कैसी करूणा है ,कैसा प्रेम है हमारे गुरुदेव को हम सभी से और कैसी निष्ठा है हमारे बापू को अपने गुरुदेव मे। जो पूज्य पाद लीलाशाह जी महाराज ने भवसिंधु मे डूबते हुए जीवमात्र को उबारने का बीड़ा सौंपा हमारे बापू को उसे बापूजी आज भी पूर्ण निष्ठा से निभा रहे हैं और दिन और रात निभा रहे हैं। यहाँ तो हम सभी को सेवाओ की अवधि निश्चित है कि इतने घंटे, परंतु हमारे बापू के जीवन पर हम यदि दृष्टि डाले तो उनकी सेवा की कोई अवधि निश्चित ही नही है, इसे कहते है गुरू वाक्यो मे निष्ठा, इसे कहते है सेवा मे निष्ठा, इसे कहते है कर्तव्य परायणता।
हे राही तुम बढ़े चलो फिर विजय की कामना लिए गुरु वचनो मे दृढता लिए ना रूको। तुम ना थको दृढ संकल्प की भावना लिए निकल पङो। जन मन की कलुषितता का संहार करने बंधुओ तप्त हृदयो मे शांति का संचार करने विकट पथ पर निकल पङो। ध्रुव देह की संभावना लिए राही तुम बढे चलो फिर विजय की कामना लिए गुरु वचनो मे दृढ़ता लिये।