स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती बताते हैं कि हम कोई पत्रिका पढ़ रहे थे । उसमें एक वाक्य निकला कि ‘अपने अज्ञान को जानना ज्ञान है ।’ हम सोचने लगे कि ‘क्या वेदान्त सिद्धान्त यही है कि अपने अज्ञान को जान लें तो ज्ञान हो गया ?’ आप देखो, अंधकार को जानना ही प्रकाश नहीं है । अज्ञान जान लेने से अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती है । उसमें एक संशोधन है । आश्रय-विषय सहित अज्ञान को जान लेने से अज्ञान की निवृत्ति होती है । आश्रयविषयसहित माने क्या होता है ? जिसको अज्ञान है वह अज्ञान का आश्रय हुआ । जिसके बारे में अज्ञान है वह अज्ञान का विषय हुआ । यदि आप इस ढंग से समझें कि अज्ञान किसको है और किसके बारे में है और यह समझें कि जिसको अज्ञान है उसी के बारे में है, तो अज्ञान निवृत्त हो जायेगा । अज्ञान का आश्रयभूत – आत्मा । अज्ञान का विषयभूत – ब्रह्म । जब इन दोनों की आत्मा और ब्रह्म की एकता के ज्ञान के सहित अज्ञान को जानते हैं तब अज्ञान मिट जाता है । अच्छा, यदि कहीं अख़बार में अथवा किताब में पढ़ लिया कि ‘अज्ञान को जानना ज्ञान है’ और उसको रट लिया कि ‘आहाहा ! बहुत बढ़िया बात है’ तो बात तो बहुत बढ़िया है लेकिन समझदारी के साथ उसका कोई रिश्ता नहीं है । सामान्य लोग जिस ढंग से सोचते हैं, वेदांत की विचारशैली उससे विलक्षण है ।
यदि आपको घट का अज्ञान है तो आप घट को जानो । घट के ज्ञान से घट का अज्ञान मिटेगा । अपनी अद्वितीयता के अज्ञान से ही आप अपने को जीव मान रहे हैं । जब आप अपने को अद्वितीय ब्रह्मरूप जानेंगे, तब ब्रह्मज्ञान से आपकी यह जीवपने की भ्रांति मिटेगी । यदि आप कहें कि आप जानते हैं कि आप बड़े अज्ञानी हैं या आप समझते हैं कि आप बड़े बेवकूफ हैं, तो क्या आप ब्रह्मज्ञानी हो गये ? आप ‘ब्रह्मज्ञानी’ नहीं हो गये । आप ‘बेवकूफ ज्ञानी’ हो गये ।
यदि आप बेवकूफी को समझेंगे तो बेवकूफी के ज्ञानी होंगे और ब्रह्म को समझेंगे तो ब्रह्म के ज्ञानी होंगे । आपको यह इसलिए बताया कि जो लोग परम्परा से (गुरु परम्परा से आत्मानुभव किये महापुरुषों से) वेदांत का अध्ययन-स्वाध्याय नहीं करते हैं, वे लोग छिट-पुट बातें सुनकर उनको रट लेते हैं । अपने अज्ञान को जानना ज्ञान नहीं है । आश्रय-विषयसहित अज्ञान को जानने से अज्ञान की निवृत्ति होती है । अज्ञान का आश्रयभूत आत्मा और विषयभूत ब्रह्म – इन दोनों की एकता के ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है । ब्रह्मात्मैक्यबोध से अज्ञान-भ्रम का निवारण होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 22 अंक 323
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