हम सुख के निमित्त विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं परंतु देवी और देवता परमात्म-तत्त्व की सत्ता से ही शक्ति लेकर हमको वरदान देते हैं और वह तत्त्व तो हम स्वयं हैं । दूसरों का सहारा हम क्यों लेते हैं ? उस आत्मतत्त्व का हम साक्षात्कार करें । यदि हम बहिर्मुखी बनकर प्रकृति की चीजों में सुख ढूँढेंगे तो हमारी स्थिति उस हिरण की तरह हो जायेगी जिसकी नाभि में ही कस्तूरी होती है और वह उसकी सुगंध के लिए बाहर भागदौड़ करता रहता है-
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढे बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं ।।
ईश्वर सृष्टि में सुख-दुःख नहीं है । जीव-सृष्टि ही सुख-दुःख का निर्माण करती है । प्रकृति की घटनाओं में जैसा आपका भाव होगा, जैसी आप वृत्ति बनायेंगे, जैसा आप संकल्प करेंगे वैसा ही आपको सुख-दुःख या शुभ-अशुभ महसूस होगा ।
समझो, दो लड़के विदेश में कहीं कमाने जाते हैं । एक की कुछ दिन बाद मृत्यु हो जाती है और दूसरा धन कमाता है । अब कोई विदेश से उन लड़कों के पिताओं को दो अलग-अलग पत्र लिखे कि ‘आपका लड़का मर गया है’ और ‘आपका लड़का खूब धन कमा रहा है ।’ संयोग से यदि वे पत्र बदलकर दोनों पिताओं को मिलें तो कल्पना करो क्या होगा । जिसका पुत्र मर गया है वह तो समझेगा कि ‘मेरा पुत्र खूब कमा रहा है’ और बहुत प्रसन्न होगा । वास्तव में उसे दुःखी होना चाहिए क्योंकि उसका तो पुत्र मर चुका है । दूसरी ओर जिसका पुत्र वास्तव में नहीं मरा वह पिता पत्र बदलने के कारण अपने पुत्र को मरा जानकर रोने-पीटने लग जायेगा । उसे बहुत दुःख होगा जबकि उसे बहुत प्रसन्न होना चाहिए । यानि सुख अथवा दुःख पुत्रों के मरने या न मरने या कमाने से नहीं हुआ अपितु उन पिताओं के भावों के कारण हआ । जैसी उनको अपने पुत्रों सूचना मिली उसके अनुसार हो गया सुख-दुःख ।
यानी सुख-दुःख मरने की घटना में निहित नहीं है । अपने पुत्रौं के प्रति पिताओं ने जो अपना कल्पित संसार बनाया है, उसमें जब वे चोट महसूस करते हैं तब उनको दुःख होता है । अतः मुक्त होकर संसार में रहना चाहिए । हम आत्मा हैं । हम साक्षीस्वरूप हैं । प्रकृति की घटनाओं से अपने अंतर को मत चलित होने दो । व्यवहार करो पर निर्लेप होकर । जो कुछ दिख रहा है सब मिथ्या है । यह सब गुजर जायेगा । पहले जो कुछ हुआ वह सपना बन गया । वर्तमान में जो हो रहा है वह भी सपना बन जायेगा । भविष्य में जो होगा वह भी सपना बन जायेगा । सपने में कितने ही महल बने, कितने ही हाथी-घोड़े बने, कितने ही नगर व बाजार बने परंतु जब सपना टूटा तो सब बेकार । वैसे ही इस जगत को स्वप्नवत् जानो । फिर इसकी घटनाओं से अपने को हम सुखी-दुःखी क्यों करें ? तटस्थ रहकर हर्ष-शोक से ऊपर रह के व्यवहार करते रहें ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 4, अंक 324
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