क्या आपने ईश्वर को देखा है?(सन्यासी का आध्यात्मिक सफर) भाग – १

क्या आपने ईश्वर को देखा है?(सन्यासी का आध्यात्मिक सफर) भाग – १


गुरु प्रेम और करुणा की मूर्ति है, गुरु के प्रति भक्ति मे शिष्य के हृदय मे स्वार्थ की एक बूंद भी नही होनी चाहिए। गुरु के प्रति भक्ति अखुट और स्थायी होनी चाहिए, शरीर या चमड़ी का प्रेम वासना कहलाती हैं। जबकि गुरु के प्रति प्रेम भक्ति कहलाता है।ऐसा प्रेम.. प्रेम के खातिर होता है स्वामी विवेकानंद जी के उत्कृष्ट गुरु भक्ति विषयक उनके जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश हम डालेंगे। हमारे देश मे गुरु शिष्य की लाजवाब जोड़ी रही हैं। जिसकी मिसाल आज पूरी दुनिया मे दी जाती है।

उन लाजवाब गुरु शिष्य की जोड़ियों मे से एक जोड़ी श्री राम कृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की है। स्वामी विवेकानंद भारतीय चेतना के मंदिर के शिखर है तो उनकी नींव का पत्थर है उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस। वह पत्थर जो दिखाई तो नहीं देता लेकिन जिसके बिना महल के टिके रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जब जब स्वामी विवेकानंद को याद किया जाता है तो श्री रामकृष्ण परमहंस भी याद आते हैं, या रामकृष्ण परमहंस को हम याद करते हैं तब स्वामी विवेकानंद याद आते है, दोनों का रिश्ता गुरु शिष्य संबंध की आदर्श मिसाल है।

श्री रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानंद जी के जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिसे उनसे कभी अलग करके नहीं देखा जा सकता। श्री रामकृष्ण परमहंस के पास आकर विवेकानंद की सत्य की खोज पूरी हुई फिर उन्होंने अपने गुरु की शिक्षाओं को पूरे विश्व मे फैलाया। इस महान भारतीय सन्यासी ने पूरी दुनिया को अपनी कर्म भूमि बनाया और अपने गुरु की प्रेरणा से विश्व भर मे भारतीय सभ्यता और धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अपने ज्ञान व प्रतिभा से अनेक बुद्धि जिवियो को प्रभावित किया और अपने शुरुआती दौर मे विदेशो मे *द इंडियन मौंक* से मशहूर हुए। स्वामी विवेकानंद के जीवन की कुछ घटनाओं के बारे मे जानकर हम उनके चरित्र बल से परिचित हो सकते हैं, कठिन से कठिन परिस्थतियों मे भी उनका चरित्र हमेशा बेदाग ही रहा जैसे कि एक सत्त शिष्य का रहता है, वे हमेशा सूरज की भांति चमकते रहे और विश्व भर मे अपने गुरु का ज्ञान प्रकाश फैलाते रहे।

विवेक यानि नरेंद्र दत्त का जन्म आज से १५३ वर्ष पहले १२ जनवरी १८६३ को हुआ था। इसी दिन युवा दिवस मनाया जाता है और भक्त नरेंद्र का जन्म १२८ साल पहले हुआ था, जब एक ही इंसान के दो अलग अलग जन्मदिन बताए जाते है तो इसका अर्थ है कि एक जन्मदिन शरीर का है और दूसरा जन्मदिन है वह दिन जब उस शरीर की मान्यताएं समाप्त हुई और उसके अंदर का अनुभव प्रकट हुआ। कोलकाता मे जन्मे नरेंद्र दत्त की मां का नाम भुवनेश्वरी और पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। उनके पिता एक संपन्न इंसान थे और पेशे से वकील थे, नरेंद्र के अलावा उनके दो और बेटे भी थे। उनके दादाजी श्री दुर्गाचरण ने ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से ग्रह त्याग कर दिया था।

जब नरेंद्र मां के गर्भ मे थे तो उनकी मां उन्हें गर्भ संस्कार देने के लिए भगवान शिव की खूब आराधना करती थी लेकिन उस समय उसे अंदाजा भी न था कि उनके बच्चो मे वास्तव मे कौन से संस्कार पड़ रहे हैं, नरेंद्र एक मधुर, प्रफुल्ल एवं चंचल बालक के रूप मे बड़े होने लगे। नरेंद्र इतने चंचल थे कि उनकी अदम्य शक्ति को वश मे लाने के लिए दो नौकरानियों की आवश्यकता होती थी, उन्हें शांत करने का अन्य कोई उपाय न देख उनकी मां शिव शिव कहते हुए उनके सिर पर जल डालने लगती थी इसे व हर बार शांत हो खड़े हो जाते थे ।

बच्चो का पशु पक्षियों के प्रति स्वाभाविक प्रेम होता है। नरेंद्र का भी पशु पक्षियों के प्रति गहरा लगाव था जो इनके जीवन के अंतिम पर्व मे पुनः व्यक्त हो उठा था, नरेंद्र के निहित गुणों की अभिव्यक्ति मे उनकी मां भी सहायिका बनी। एक दिन जब नरेंद्र ने घर लौटकर बताया कि विद्यालय मे उनके साथ अन्याय पूर्ण व्यवहार हुआ है तो उन्होंने बालक को दिलासा देते हुए कहा था – बेटा ! तेरी गलती नहीं थी तो भी कोई परवाह नहीं। फल की ओर ध्यान दिए बिना तू सदा सत्य का ही पालन किए जाना। सत्यनिष्ठा के फल स्वरूप संभव है कि तुझे कभी कभी अन्याय तथा कटूक परिणाम सहन करना पड़े परन्तु किसी भी परिस्थिति मे तुम सत्य को ना छोड़ना।

मां का यह उपदेश नरेंद्र ने सिर्फ ध्यान मे रखा बल्कि उसे तभी से अपने जीवन मे भी स्थान दे दिया, नरेंद्र के बचपन के कई प्रसंग है जिन मे से एक उनके साहस का वर्णन करती हैं। नरेंद्र के पड़ोसी के घर के आंगन मे पीपल का एक वृक्ष था, जिस पर चढ़कर खेलना नरेंद्र को बहुत पसंद था। वह पड़ोसी चिंतित रहता था कि कहीं किस दिन नरेंद्र गिरकर अपने हाथ पांव ना तुड़वा बैठे।

नरेंद्र के स्वभाव से परिचित होने की वजह से वह पड़ोसी जानता था कि पेड़ पर चढ़ने से मना करने भर से तो नरेंद्र मानने वाला नहीं। इसलिए उसे एक ऐसा उपाय सूझा जिसका असर किसी भी सामान्य बच्चे पर होना तय था उसने नरेंद्र से कहा नरेंद्र इस पेड़ पर एक ब्रह्म राक्षस रहता है और उसे पसंद नहीं कि कोई बच्चा पेड़ पर चढ़े इसलिए यदि सुरक्षित रहना है तो इस पेड़ से दूर ही रहना। पड़ोसी को लगा कि ब्रह्म राक्षस की बात सुनकर नरेंद्र पेड़ से दूर हो चोट चपेट से सुरक्षित रहने लगेगा लेकिन नरेंद्र तो नरेंद्र ही था।

पड़ोसी जैसे ही किसी काम से बाहर गया नरेंद्र फौरन पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी पर बैठ कर ब्रह्म राक्षस की प्रतीक्षा करने लगा। एक घंटा बीता और दो घंटे बीते और होते होते शाम होने को आई परन्तु ब्रह्म राक्षस को न आना था और ना ही वह आया लेकिन पड़ोसी जरूर घर लौट आया दरवाजा धकेले जाने की आवाज सुनकर नरेंद्र ने पेड़ से ही आवाज लगाई। काका ब्रह्म राक्षस मेरा गला दबाने कब आएगा?

मैं तो सुबह से उसका इंतजार करते करते थक गया हूं। बेचारे पड़ोसी ने नरेंद्र को नीचे उतारा और कहा जा बेटा जिसमें इतना साहस हो उसे कोई क्या सताएगा? तुझे कोई ब्रह्म राक्षस नहीं खाएगा लेकिन तू अंदर जाकर खाना जरूर खा ले सुबह से शाम हो गई है तु भूखा है । वास्तविकता यह है कि स्वामी विवेकानन्द शुरू से ही बड़े बुद्धिमान और बहादुर थे हर नियम परंपरा रोक कर मान्यता का अर्थ पूछा करते थे अगर उन्हें संदर्भ मे दिया गया उत्तर पसंद नहीं आता तो वे उसे अपनी कसौटी पर कसते थे और सिद्ध न होने पर उस नियम को तोड दिया करते थे उनकी बुद्धि इतनी तेज थी कि वे जो भी सबक पड़ते थे वह उन्हें फौरन याद हो जाता था और फिर वे उन्हें अपने दोस्तो के पास गप्पे लड़ाने चले जाते थे, उनकी इस क्षमता से उनके दोस्त धोखे मे पड़ जाते थे और उन्ही की नकल करते हुए कम समय तक पढ़ते। जिसके कारण उन्हें बाद मे पछताना पड़ता क्यों कि नरेंद्र भले ही कम समय मे ही सब कुछ याद कर लेते थे लेकिन उनके दोस्तो मे यह क्षमता न थी नरेंद्र के जीवन मे उनके माता पिता का गुरु समान स्थान था, माता पिता से संस्कारो के रूप मे मिली शिक्षा ने ही उन्हें श्री रामकृष्ण परमहंस का शिष्य बनने योग्य बनाया।

उनकी मां उन्हें हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए प्रोत्साहित करती थी और इसी भावना के वशीभूत होकर नरेंद्र ने विवेकानंद के रूप मे विश्व बंधुत्व और विश्व मानवता का सिद्धांत दिया। उनकी मां खुद भी एक निडर स्त्री थी और अन्याय व असत्य के विरूद्ध पूरी वीरता से खड़ी होती थी। एक ओर नरेंद्र की मां भुवनेश्वरी देवी ने उन्हें स्नेह पूर्ण संस्कार दिए तो दूसरी ओर पिता विश्वनाथ दत्त ने अनुशासन द्वारा नरेंद्र को संयम का पाठ पढ़ाया, विश्वनाथ दत्त का स्वभाव था कि वे अपने पास आने वाले हर व्यक्ति को सहारा देने के लिए हमेशा तैयार रहा करते थे।

इससे पता चलता है कि वे स्वभाव से बड़े दयालु और बड़े दिलवाले भी थे, कई लोग उनके घर पर महीनों तक ठहरते और उनका सारा खर्च विश्वनाथ दत्त ही उठाया करते थे। इन सब कारणों से कभी परिवार मे पैसे की बचत नहीं हो पाई। यह देखकर एक बार नरेंद्र ने अपने पिता से आवेश मे पूछा आप हमारे लिए क्या छोड़कर जाएंगे तो विश्वनाथ दत्त बालक नरेंद्र से कहे कि जरा उठकर दीवार पर टंगे आइने पर देखो कि मैं तुम्हारे लिए क्या छोड़कर जाऊंगा? नरेंद्र ने आइने में अपना प्रतिबिंब देखा और कहा अरे हा मेरे लिए तो मैं खुद ही हूं, मेरे पिता ने मुझे इस लायक बनाया है कि मैं स्वयं ही जिम्मेदारी खुद ले सकता हूं। वे पिता का आशय समझ गए और फिर उन्होंने दुबारा फिर कभी यह सवाल नहीं पूछा। नरेंद्र के पिता नहीं चाहते थे कि वे अपने पीछे इतनी सम्पत्ति छोड़कर जाए कि उनके पुत्र तमोगुणी हो जाए, विश्वनाथ दत्त व्यर्थ धन उड़ाने वाले व्यसनी, विलासी इंसान नही थे, उनका हृदय बहुत बड़ा था इसलिए वह खुलकर खर्च करते थे अपने समाज मे वे दाता के रूप मे जाने जाते थे।

एक पिता के रूप मे वे नरेंद्र के आदर्श बने। एक बार किसी कारण वश नरेंद्र ने अपनी मां से कुछ बाल सुलभ अपशब्द कह दिए, ऐसे मे कोई आम पिता अपने बेटे को दण्ड देता या जमकर फटकरता है लेकिन विश्वनाथ बाबू ने ऐसा कुछ नहीं किया, उस दिन जब नरेंद्र के कुछ मित्र घर खेलने के लिए आए तो विश्वनाथ बाबू ने कोयले से उनके कमरे के दरवाजे पर लिख दिया आज नरेंद्र ने अपनी मां से ऐसे ऐसे अपशब्द कहे। इस बात से नरेंद्र को जो आत्म ग्लानि महसूस हुई उसने अपने पश्चाताप और सोच समझकर बोलने का गुण विकसित किया इन्हीं कारणों से नरेंद्र के मन मे अपने माता पिता के लिए बहुत श्रद्धा थी, दोस्तो के सामने उसने अपने माता पिता को लेकर गर्व महसूस करते थे, इसी से उनमें आत्मगौरव की भावना जगी। तीव्र बुद्धि होने के कारण वह हमेशा तार्किक ढंग से सोचते थे जीवन की यात्रा मे ईश्वर की तलाश करते हुए वे समय के साथ सैलानी बन गए। सैलानी का अर्थ है टूरिस्ट। वे किसी भी सत्संग कार्यक्रम मे जाते तो एक जानकारी लेने के हिसाब से जाते। जैसे पर्यटक जाया करते थे फिर खोजी बने फिर उसके बाद सच्चे शिष्य बने और फिर पक्के शिष्य बनने के बाद नरेंद्र भक्त बन गए। भक्त बनकर उन्होंने अभिव्यक्ति की सत्य की इस यात्रा मे जब वे सैलानी थे खोज किया करते थे तो उस वक़्त उनका विद्यार्थी जीवन चल रहा था उस समय उनके शहर मे जब भी कोई धर्म प्रचारक आता तो उसे मिलने पहुंच जाते। वे इतने जिज्ञासु थे कि जाकर सीधे सवाल पूछते कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? वो जिनसे भी यह सवाल पूछते वे लोग आश्चर्य चकित हो जाते थे क्यों कि इससे पहले किसी ने भी ऐसा सवाल नहीं किया, कोलकाता मे अलग अलग धर्मो मे बहुत से प्रचारकर्ता और ज्ञानी आया करते थे मगर उन सब मे से कोई भी नरेंद्र के इस सवाल का जवाब हां मे नहीं दे सका। इसके बावजूद नरेंद्र ने धर्म प्रचारकों से मिलना जुलना और यह सवाल पूछना जारी ही रखा। नरेंद्र के मन मे उठा यह दूसरा सवाल आखरी सवाल था कुछ दिनो बाद वे ईश्वर की खोज मे ब्रह्म समाज नामक आध्यात्मिक संस्था से जुड़े नरेंद्र इस संस्था के सदस्य बन गए, वहा वे संगीत का अभ्यास भी किया करते थे, भजन भी गाते थे और जब भी वहा कोई धर्म प्रचारक आता तो उससे यह सवाल जरूर पूछते कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? जवाब मे वे लोग चुप हो जाते थे ऐसा नहीं कि ब्रह्म समाज से जुड़कर वे संतुष्ट थे लेकिन जब तक मन चाही चीज हासिल नहीं होती तब तक इंसान कुछ ना कुछ तो करता ही है नरेंद्र के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ वे ईश्वर की तलाश मे निकले ऐसे सैलानी थे जो अपने सवाल का जवाब पाने के लिए हर जगह जाता है लेकिन फिर भी उसे कोई जवाब नहीं मिलता चुकीं किसी भी धर्म का कोई उपासक इनके इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा था इसलिए नरेंद्र बेचैन थे सोचते थे कि पृथ्वी पर कम से कम एक इंसान तो ऐसा होना चाहिए जिसने ईश्वर को देखा हो। वे ऐसे इंसान से मिलना चाहते थे एक दिन उनकी मुलाक़ात महर्षि देवेन्द्र ठाकुर से हुई, उन दिनों वे नदी किनारे नाव मे घर बनाकर रहा करते थे और वही पर साधना व ध्यान वगेरह करते रहते जब नरेंद्र को पता चला तो वे जिज्ञासा वश वहा पहुंच गए और तुरंत अपने सवाल दागने शुरू कर दिए, देवेन्द्र नाथ ने उन्हें कई अलग अलग सवालों के जवाब भी दिए मगर देवेन्द्र ने कहा मुझे बस इसी सवाल का जवाब चाहिए कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? यह सुन देवेन्द्र ठाकुर ने कहा तुम्हारी आंखों मे योगियों की चमक है और तुम्हारे शरीर पर योगियों के चिन्ह भी है तुम अगर सच्चे मन से प्रार्थना करोगे, ईश्वर को चाहोगे, उनकी साधना करोगे तो उन्हें जरूर पा लोगे उनकी इस बात का नरेंद्र पर ऐसा असर हुआ कि वे सैलानी से खोजी बन गए, सैलानी तो हर जगह जाता है लेकिन खोजी एक ही जगह टिककर काम करना चाहता है, गुरु की तलाश खोजी बनने के बाद ही पूरी होती है।

खोजी बनने के बाद नरेंद्र का रहन सहन बदलकर योगियों जैसा हो गया वे सफेद धोती पहनने लगे और अलग से किराए का मकान लेकर रहने लगे घरवालों को लगा कि नरेंद्र इसलिए अलग रहना चाहता है ताकि उनकी पढ़ाई लिखाई मे बाधा ना आए उन्हें उनके पिताजी से हमेशा छूट मिलती ही थी इसलिए किसी ने उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं, वे योगियों की तरह जमीन पर सोने लगे और धीरे धीरे सारी सुविधाओं का त्याग करने लगे पढ़ाई लिखाई और संगीत का अभ्यास करने के बाद उनके पास जो भी समय बचता था उसमें वे धार्मिक पुस्तकें पढा करते थे उनके मित्र उनसे मिलने आते तो उनके साथ भी धर्म चर्चा ही करते। इस तरह देवेन्द्र ठाकुर से मिलकर उनका जीवन बदल गया अपने अंदर ईश्वर को पाने के लिए पात्रता तैयार कर रहे थे अब बस उन्हें एक योग्य सदगुरु की आवश्यकता थीं

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आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा ।

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