गुरू ने लेटे-लेटे ही की कुछ ऐसी लीला कि शिष्य की निष्ठा अटल हो गई ।

गुरू ने लेटे-लेटे ही की कुछ ऐसी लीला कि शिष्य की निष्ठा अटल हो गई ।


गुरू के प्रति भक्ति-भाव होना अध्यात्मिक निर्माण कार्य की नींव है । भावना का उफान या उत्तेजना गुरू भक्ति नहीं कहलाता । शरीर प्रेम यानि गुरू प्रेम का इन्कार, शिष्य अगर अपने शरीर की देखभाल करता है तो वह गुरू की सेवा नहीं कर पाता ।

साधक के दुष्ट स्वभाव के नाश का एकमात्र उपाय गुरू सेवा है । गुरू की कृपा, गुरूभक्तियोग का आखिरी लक्ष्य है । दशरथ के पिताश्री, स्वयं दशरथ और ब्रह्म राम भी गुरू के द्वार पर गए । सदगुरु दाता तो वैसे भी करुणा करके भर ही देते हैं लेकिन कुछ हमारी ओर से भी कदम उठे, यह आवश्यक है ।

*हमको है यह आरज़ू कि वो नकाब उठाए खुद, लेकिन उनको है इन्तजार कि तकाजा करे कोई* परमात्मा, सदगुरु भगवान अपने आप खुद को लुटा देते हैं लेकिन वह भी कभी-2 चाहते हैं कि तकाजा करे कोई जिसे शास्त्रों ने कहा अथाह तो ब्रह्म जिज्ञासा ।

गुरू के घर में जाना, गुरू के द्वार जाना या सामीप्य पाना इसका मतलब है कि गुरू के घट को टटोलना । गुरू की जागी हुई चेतना का, आत्मा का, चेतना का परिचय पाना । पहुंचे हुए फकीर की आंखों को देखना, लोग यदि पहुंचे हुए फकीर की आंख पहचान लें तो आप कुछ सुनाइए, सत्संग कीजिए यह बोलना ही बंद कर दें ।

*वो पलके झुकाएं, वो पलकें उठाएं, जो जाने सो समझे यही गुफ्तगू है ।* गुरू गृह में जाने का मतलब उनकी जगी हुई चेतना की पहचान के लिए चैतसिक सम्बन्ध जोड़ना, उनके घट में क्या है, क्या लिए बैठे हैं यह जागृत महापुरुष ।क्या मिलेगा उस दर से जो जाने, जो समझे कि यही गुफ्तगू है बात इतनी ही है ।

गुरू के द्वार जाने से, गुरू का सामीप्य पाने से नौ निधि की प्राप्ति होती है । पहली निधि, विषाद से मुक्ति – भगवान करे किसी को विषाद ना हो, परमात्मा किसी को ग्लानि ना दे,

सर्वे भवन्तु सुखि ना: सर्वे संतु निरामया: । हम सब इसी सनातन धर्म की उद्घोषणा करते रहते हैं और यही तो सनातनता है यही शाश्वत है लेकिन जगत में तो सब होता ही रहता है कभी ग्लानि, कभी खुशी, कभी विषाद, कभी प्रसाद यानि प्रसन्नता हम इन द्वन्दों से सटे हुए जी रहे हैं,परन्तु जब कभी मन में विषाद हो तो गुरू गृह जाइए । वहां से कोई प्रसाद लिए बिना नहीं लौटता है, उसका विषाद प्रसाद में कन्वर्ट ना हुआ हो यह असम्भव है । घटना घटती है इसमें कोई अंधश्रद्धा का प्रश्न नहीं है क्यूंकि यह अध्यात्मिक विज्ञान है दुनिया में कहीं भी जाने से विषाद कम नहीं हो पा रहा है ।

इधर-उधर सिर रखने से और हां-हां करने से नहीं लगता कि कहीं विश्राम मिलता है । मिलता है तो विशाल विनय से गुरू द्वार में जाने से मिलता है । उनके सामीप्य से मिलता है तो एक तो हमें गुरू के द्वार पर विषाद से मुक्ति मिलती है हम प्रसाद से भर जाते हैं । जाते हैं तब कुछ और होते हैं, लौटते हैं तो कुछ और हो जाते हैं ।

तो गुरू में ही आपकी निष्ठा हो, गुरू में ही आपकी श्रद्धा हो, बाकी तो संसार विषाद में वृद्धि ही करता है कम तो कहीं नहीं हो पा रहा । विचारों का एक तुमुल युद्ध दिमाग को कसके रखता है इसको आज का साइंस टेंशन कहता है तो विषाद से मुक्त होने के लिए गुरू गृह जाइए ।

दूसरी निधि है विद्या – गुरू के घर में व्यवस्था है विद्या प्रदान करने की । अब विद्या की तो बहुत बड़ी व्याख्या है, कई प्रकार की विद्याएं हैं गोस्वामी जी कहते हैं कि गुरू गृह जाने से समस्त विद्याएं प्राप्त हो जाती हैं यानि साधक की हर क्षेत्र में गति होने लगती है ।

गुरू गृह गए पढ़न रघुराई अल्प काल विद्या सब अाई*

समस्त प्रकार की विद्या गुरू के सामीप्य से गुरू द्वार से साधक को सहज ही प्राप्त हो जाती है । ऐसी विद्या की प्राप्ति होती है जिससे माया का समस्त प्रपंच हमारे लिए सुखद हो जाता है ।

तीसरी निधि – विवेक गुरू के गृह में विवेक की वृद्धि होती है जो गया है उसका विवेक बढ़ता है । विवेक का पंख लगता है और साधक ऊंची उड़ान भरने लगता है ।

चौथी निधि है – विकास, गुरू गृह जाने से हम सांसारिक लोगों के कुछ मनोरथ होते हैं कि हमारा विकास हो और हो और हो ।

विकास की वृद्धि होती है चाहे वह धर्म विकास हो चाहे अर्थ विकास हो, चाहे काम विकास, चाहे मोक्ष विकास

बरनऊ रघुबर विमल जसु जो दायकु फल चारु गुरू चरन सरोज रज*

तो गुरू के सामीप्य से विकास होता है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में, परंतु यही आखिरी साधन नहीं हैं ।

हमारा दाम कौड़ी का भी नहीं होता और लाखों में मूल्यन होने लगता है, यह गुरू द्वार की महिमा है ।

पांचवी निधि गुरू द्वार से प्राप्त होती है – विश्राम, गुरू के घर से एक दान मिलता है वह है विश्राम का, विकास के बाद विश्राम ना मिले तो विकास किस काम का ।

पैसा बहुत मिल जाए और आप विश्राम ना कर सकें तो क्या, पैसे सबको मिलने चाहिए पर विश्राम परम आवश्यकता है ।

गोस्वामी जी कहते हैं

*जाकि कृपा लवलेश ते, मति मंद तुलसीदास हों पायो परम विश्राम*

गुरू के द्वार पर परम विश्राम की प्राप्ति होती है ।

छठवीं निधि प्राप्त होती है – वैराग्य, गुरुद्वार पर गुरू के सामीप्य से सहज ही साधक में सांसारिक माया से वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । बाहर से सब कुछ होगा लेकिन अंदर से असंगता दीन दुगुनी, रात चौगुनी बढ़ती जाएगी । यह गुरू द्वार की महिमा है, गुरू सामीप्य की महिमा है ।

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सातवीं निधि – गुरू द्वार से जिज्ञासा की प्राप्ति होती है, बार-2 गुरू के दर्शन, उनसे मानसिक सम्बन्ध यह साधक के अंतः कर्ण में जिज्ञासा उत्पन्न करती है । जो नहीं देखा, जो नहीं सुना, उस परमात्म तत्व के प्रति जिज्ञासा अथवा तो ब्रह्म जिज्ञासा ।

आठवीं निधि – गुरू द्वार से प्राप्त होती है विचार शून्यता की, हमारे विचार शून्य होने लगते हैं ऐसे महापुरुषों के पास जाने से हमको अनुभव होता होगा कि हमारे विचार शून्य हो जाते हैं लाख सोच के गए हों, कुछ भी नहीं बोल पाते ।

तो गुरू के समक्ष उनके सामीप्य से, दर्शन से साधक सहज ही विचार शून्य हो जाता है और विचार की शून्यता सबसे बड़ी उपलब्धि है । जितनी देर भी उम्र बढ़े विचार शून्यता की जिसको हमारी योग धारणा में पतंजलि की पूरी प्रक्रिया में आगे-2 जाते निर्विकल्प समाधि माना जाता है ।

निर्विकल्प समाधि की अवस्था के लिए गुरू के साधकों को अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता । गुरू दर्शन और गुरू सामीप्य ही साधक को निर्विकल्पता की ओर ले जाती है ।

नौवीं निधि – गुरू द्वार से प्राप्त होती है विश्वास की, गुरू के घर जाने से विश्वास दृढ़ होता है ।

विश्वास बढ़ाने की कोई भी व्यवस्था विश्व में नहीं है सिवाय गुरू द्वार के, किसी अस्पताल में जाने से या दवाइयां खाने से विश्वास नहीं बढ़ता, भरोसा नहीं बढ़ता । भरोसा बढ़ता है किसी जागृत महापुरुष के चरणों द्वारा, इसलिए सूरदास जी कहते हैं –

*भरोसो दृढ़ इन चरनन ही केरो*

दुनिया में कहीं भी जाओ धोखा ही धोखा मिल रहा है, फरेब मिल रहा है । बहकाने वाले सब उसके यार बन गए और समझाने वाले मुफ्त में गुनहगार बन गए । ऐसे जगत में रहना पड़ता है । गुरू के द्वारा हमारा भरोसा दृढ़ होता है, हमारा मन ऐसा है कि उसमें अनेकों प्रकार की अच्छी-बुरी तरंगें आती रहती हैं ।

अमीर खुसरो अपने गुरू निजामुद्दीन औलिया के इतना निकट था कि गुरू ने उसे छूट दे रखी थी कि वह गुरू के कमरे में रहता, वहीं सोता । क्या भाग्य रहा होगा, एक थाली में भोजन करते, मुर्शीद और शागिर्द दोनों । गुरू की कफनी खुसरो पहनता, निजामुद्दीन औलिया ने कहा भी था,

कि अमीर खुसरो की जब यात्रा पूरी हो तो उसकी कब्र बिल्कुल मेरे निकट बनवाना, दूर मत ले जाना । गुरू का इतना प्यार पाया था अमीर खुसरो ने, एक दिन रात्रि के समय वह पैर दबा रहा था एक तो एकांत है फिर पहुंचे हुए फकीर का एकांत, बात ही कुछ और हो जाती है ।

अंधेरे में भी रोशनी होती है, अमीर पैर दबाता रहा, पांच मिनट के लिए तरंगें बदली मन की, वह पैर दबाते हुए सोचने लगा कि क्या यह सच में पहुंचे हुए पीर हैं ? क्या यह जाग्रत व्यक्ति हैं, या मैंने अंधश्रद्धा से पैर पकड़ लिए हैं ? क्या सचमुच यह पहुंचे हुए हैं ? हमारे जैसे ही खाते-पीते हैं, मजाक करते हैं, टहलते हैं, कहते हैं नींद आ रही है सो जाना है ।

सब संसारियों के ही तो लक्षण हैं, अमीर खुसरो के मन में ऐसे भाव उठने लगे । बार-2 मन में यह ग़लत तरंगें टकराने लगी कि यह सचमुच सच्चे पीर हैं हम सभी जानते हैं कि जब हम बहुत दौड़ रहें हों तो धीरे-2 चलने से विश्रांति मिलती है । धीरे-2 चलने के बाद फिर खड़े रह जाएं तो विश्रांति और बढ़ जाती है ।

खड़े रहने से बैठ जाएं तो अधिक विश्रांति, बैठने से थोड़ा अपने को लेटा दें तो और विश्रांति । बिल्कुल सो जाएं तो और विश्रांति और सोने में भी करवट बदलें तो और विश्रांति । अमीर के मन में यह सब गलत तरंगें चल रही थी उसी समय निजामुद्दीन औलिया ने करवट बदली ।

गुरू की कृपालुता देखिए, वे एक ही शब्द बोलकर करवट बदल लेते हैं कि अमीर बेटे करवट बदल ले ।

बस बात खत्म हो गई गुरू का यही मंत्र था मानों संकेत था जैसे मैंने करवट बदली और मैं विश्राम महसूस कर रहा हूं बेटे तेरे मन में क्या चल रहा है,जरा तू भी करवट बदल ले फिर तो भरोसा दृढ़ हुआ अमीर का *छाप तिलक सब छीनी तोसे नैना लगाकर* फिर क्रांति घटी तो गुरू के बिना विश्वास का दृढ़ीकरण और कौन करेगा । गुरू के द्वार से , गुरू के सामीप्य से यह नौ निधियां जीवन में सहज ही प्राप्त हो जाती हैं ।

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