निष्कामता आयेगी तो नम्रता भी आयेगी और नम्रता आयेगी तो जैसे सागर में बिन बुलाये गंगा-यमुना आदि नदियाँ चली आती हैं ऐसे ही यश, धन, ऐश्वर्य, प्रसन्नता, खुशी – ये सब सद्गुण अपने-आप आ जायेंगे । निष्कामता में इतनी शक्ति है लेकिन कामना व स्वार्थ मं अंधे हुए लोग जानते नहीं । जहाँ नम्रता और निष्कामता में अहंकार आया तो फटकार और विफलता बिन बुलाये आयेगी ।
जिसके पास धन है, बुद्धि है, स्वास्थ्य है, योग्यता है वह अगर सत्कर्म नहीं करता है, ईश्वरप्रीत्यर्थ कर्म नहीं करता है तो वह स्वार्थी है, विषय-लम्पट है । वह दंड का पात्र है, अशांति का पात्र है, विनाश का पात्र है – ऐसा शास्त्र कहते हैं । सेवाकार्य करना यह अपनी भलाई के लिए हमारा कर्तव्य हो जाता है । और जिनको सेवा मिलती है वे लोग यदि उसे टालते रहते हैं या जी चुराते हैं, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखते हैं उनकी मति में ही बंदूक जैसी अशांति हो जाती है । इसलिए अपना कार्य तो तत्परता से करें साथ ही दूसरे के कार्य में भी हाथ बँटायें ।
ज्यों-ज्यों चित्त निष्काम कर्म करेगा त्यों-त्यों उसकी क्षमताएँ बढ़ेंगी । कामना से आपकी क्षमता व योग्यताएँ कुंठित हो जाती हैं । एक व्यक्ति डंडा ले के पानी कूट रहा था । उससे पूछाः “अरे, क्या करता है ?”
बोलेः “मैं निष्काम कर्म करता हूँ, कुछ भी मिलने वाला नहीं है फिर भी कूट रहा हूँ ।”
अरे मूर्ख ! यह निष्काम नहीं, निष्प्रयोजन प्रवृत्ति है । निष्प्रयोजन प्रवृत्ति न करें, निष्काम प्रवृत्ति करें ।
दूसरे का दुःख मिटाना तो ठीक है लेकिन दूसरे के दुःख मिटाने पर भी इतनी जोरदार दृष्टि न रखे जितनी उसको सुख मिले इस पर रखे । जब सुख मिलेगा तब वह दुःख के सिर पर पैर रख ही देगा । और सुख तुम कहाँ से लाओगे ? तुम्हारे पास फैक्ट्री है क्या ? तुम सुख लाओगे महाराज !…. जितने-जितने तुम निष्कामी, प्रभुप्रेमी होओगे उतना-उतना तुम्हारा अंतःकरण सुखी होगा और दूसरे को सुखी करने के विचार भी उसी में उठेंगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 17 अंक 325
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