ध्यान-जप के अभ्यास से हुआ निर्भय खुले परम जीत के द्वार-पूज्य बापू जी

ध्यान-जप के अभ्यास से हुआ निर्भय खुले परम जीत के द्वार-पूज्य बापू जी


महात्मा बुद्ध के जमाने की बात है । दो बच्चे आपस में खेलते थे । एक बच्चा सदैव जीतता था और दूसरा सदैव हारता था । एक दिन हारने वाले ने जीतने वाले से पूछा कि “तुम आखिर क्या करते हो कि रोज जीत जाते हो ?”

जीतने वाले ने कहाः “मैं रोज भगवान सदगुरु की शरण जाता हूँ, ध्यान करता हूँ । ‘बुद्धं (अपना शुद्ध-बुद्ध सर्वव्यापी आत्म-परमात्म स्वरूप) शरणं गच्छामि…. गुरु शरणं गच्छामि…. सत्यं शरणं गच्छामि….’ ऐसा बोलते-बोलते मैं शान्त हो जाता हूँ फिर मुझे पता नहीं क्या होता है । बाद में मेरे में बड़ी स्फूर्ति होती है, शक्ति होती है ।”

गुरुमंत्र जपे अथवा कीर्तन करे, ध्यान करे फिर अनजाने में ही व्यक्ति जितने अंश में उस आत्मा-परमात्मा में स्थित होता है, शांत होता है, उतनी ही उसकी योग्यता विकसित होती है । अगर देह को ‘मैं’ मानेगा तो संसार और विकारों का आकर्षण होगा लेकिन आत्मा को ‘मैं’ और भगवान को, सदगुरु को ‘मेरा’ मानेगा तो विकार कम होंगे और आत्मसुख आयेगा ।

वह लड़का अनजाने में आत्मसुख, आत्मशांति का प्रसाद लेता था । हारने वाला लड़का था भोला-भाला, साफ-हृदय । उसने सफलता की कुंजी क्या है समझ ली और प्रतिदिन ध्यान करने लगा । एकाग्रता से हिम्मत बढ़ जाती है । वह कभी-कभार जीतने लगा तो उसकी ध्यान में, ज में और श्रद्धा हो गयी । वह और करने लगा । अब हारने की जगह पर वह जीतने लग गया लेकिन उसके साथ-साथ उसको जो अंतरंग सुख मिलने लगा उसके आगे उसकी जीत और हार जब खिलवाड़ हो गये । अब खेल में उसे इतना आनंद, रस नहीं आता था, इतना महत्त्व नहीं दिखता था क्योंकि वह अंतरंग साधना में चला गया था । अब तो उसको शांत बैठे रहने में, जप करने में, मौन रहने में रस आने लग गया । ऐसा करते-करते उसकी मनःशक्ति, निर्णयशक्ति, निर्भीकता आदि गुण खिल गये । उसकी मति-गति कुछ अनूठी होने लगी ।

एक बार वह अपने पिता के साथ खेत में गया । खेत के आसपास के पेड़-वेड़ थोड़े बढ़ गये थे, उनकी डालियाँ-वालियाँ काट-कूट के बैलगाड़ी भरी । देर हो गयी, सूरज डूबने लगा । दोनों चल पड़े । दिनभर मेहनत की थी तो बीच में थकान हुई । बैलगाड़ी रोकी, बैलों को खोला । सोचा, ‘जरा आराम करें, बैल भी जरा चर लें ।’ बैल चरने के बहाने खिसक गये और गाँव में पहुँच गये ।

जब बाप की नींद खुली तो उसने बेटे को कहा कि “देख, हम लोगों को जरा झोंका आ गया तो इतने में बैल भाग गये । तुम यहाँ बैठो, मैं बैलों को खोज के लाता हूँ । डरोगे तो नहीं ?”

वह पहले एकदम छोटे-से जंतु से भी डरता था लेकिन अब पास में ही गाँव का मरघट है फिर भी वह लड़का बोलता है कि “मैं नहीं डरता । पिता जी ! आप बैलों को खोजने जाइये ।”

बाप बैलों के पदचिन्हों को खोजते-खोजते गाँव में पहुँच गया । बैल तो मिले, घर पर पहुँच गये थे, अब बैलों को वापस लाकर बैलगाड़ी खींचने के लिए गाड़ी से जोड़ना था लेकिन गाँव का दरवाजा बंद हो गया । बाप गाँव में और बेटा बाहर जंगल में और श्मशान के पास । बेटा बैठ गया, उसको वही चस्का था – गुरु शरणं गच्छामि…. शुद्ध-बुद्धं शरणं गच्छामि… सत्यं शरणं गच्छामि… ऐसा करते-करते उसको तो ध्यान का रस आ गया, वह तो अंतर्मुख हो गया । अब रात्रि के 8 बजे हों चाहे 9 बजे हों, 10 बजे हों चाहे 12 बजे…. उसके चित्त में कुछ बजने का प्रभाव नहीं है क्योंकि अनजाने में वह आत्मा की शरण है । नहीं तो खाली सन्नाटे में डरने वाला बच्चा….. मरघट पास में है लेकिन उसको कोई फिक्र नहीं ।

मध्यरात्रि हुई तो निशाचर निकले । रात्रि को उनका प्रभाव होता है । कथा कहती है कि उनके मन में हुआ कि यह अच्छा शिकार मिल गया, खूब भंडारा करेंगे । इस लड़के को डरा के अब तो इसी को खायेंगे । भूत उत्सव करने लगे । लड़का तो बैलगाड़ी के नीचे गुरु शरणं गच्छामि… सत्यं शरणं गच्छामि….’ करते-करते लेट गया था । अचेतन मन में जप चल रहा था । भूतों ने डरावने, लुभावने सारे दृश्य दिखाये, चीखे लेकिन बच्चे को गहरी नींद थी, जगा नहीं और जब जगा तो भी डरता नहीं । बच्चे के इर्द-गिर्द से सात्त्विक, श्वेत तरंगें निकल रही थीं, प्रकाश निकल रहा था ।

हमारी चित्तवृत्ति जब ऊपर उठती है तो सत्त्वगुण बढ़ता है, एकाग्रता बढ़ती है तो आत्मचेतना की वह आभा पड़ती है । उस लड़के के दिव्य प्रकाश के प्रभाव से भूत डरे और उन्होंने देखा कि ‘यह कोई साधारण बालक नहीं है । यह कोई फरिश्ता है, देवता है, कोई महान आत्मा है ।’

जब महान आत्मा होता है तो फिर लोग झुककर उसको रिझाने का प्रयास करते हैं । प्रेत ने उस बच्चे का अभिवादन करने के लिए राजा के महल में से एक रत्नजड़ित थाल लाकर उसमें भोजन परोस के दिया । लड़का अनजाने में वेदांती हो गया था, अनजाने में आत्मसुख में पहुँचा था । अभिवादन से वह आकर्षित नहीं हुआ और डराने से वह डरा नहीं क्योंकि वह देह को ‘मैं’ देर के संबंधों को ‘मेरा’ मानने की गलती में नहीं था । अनजाने में वह अंतर्यामी आत्मा के करीब था ।

सुबह हुई, भूतों ने वह रत्नजड़ित स्वर्ण-थाल बैलगाड़ी में लक्कड़ों के बीच धर दिया । गाँव का दरवाजा खुला, बाप बैलों को लेकर आने लगा । ‘रात को राजा का स्वर्ण थाल चोरी हो गया है’ यह खबर फैल गयी । राजा के सिपाही खोज में निकले । खोजते-खोजते वहीं आ गये, बोलेः “अरे कौन लड़का है ? कहाँ से आया ? यह क्या है ?”

देखा तो थाल मिल गया । बोलेः “चोर रंगे हाथ पकड़ा गया । बैलगाड़ी में तूने ही रखा होगा ।”

लड़का बोलाः “मुझे पता नहीं ।”

“पता नहीं, तेरे बाप का है ! चल ।”

इतने में तो बाप भी आया । उस लड़के को तो अपराधी समझकर ले गये राजा के पास । थाल भी रख लिया, लड़के को भी रख लिया । लड़का अपने-आप में निर्दोष था । पूछा कि “थाल कहाँ से आया ?”

बोलाः “कोई पता नहीं ।”

“तुम्हारी बैलगाड़ी में से निकला ।”

“मुझे खबर नहीं ।”

“सब बताओ !…..” धाक, धमकी, साम, दाम, दंड, भेद – सब किया । दंड का भय दिखाया लेकिन चित्त में अनजाने में वह आत्मशरण में था, निर्भीक था । शरीर को ‘मैं’ मानोगे, शरीर की वस्तुओं को ‘मेरी’ मानोगे तो भय, चिंता और दुःख बने ही रहते हैं । आत्मा को ‘मैं’ और परमात्मा को अपना स्वरूप जानोगे तो दुःख के समय, भय के समय भी दुःख और भय नहीं टिकेंगे ।

राजा ने भय दिखाया लेकिन लड़का निर्भीक रहा । प्रलोभन दिया तो प्रभावित नहीं हुआ । राजा उसको लेकर महात्मा बुद्ध के पास श्रावस्ती नगरी गये कि ‘भंते ! चोरी के माल सहित यह लड़का पकड़ा गया और फिर भी इसे कोई डर नहीं, कोई भय नहीं । और यह लड़का चोर हो ऐसा दिखता हीं और माल इसके यहाँ से मिला है । तो क्या यह भूत ले गये थे क्या ? यह इतना शांत कैसे ?”

बुद्ध ने कहाः “हो सकता है । इस निर्दोष बालक का मन इस थाल में नहीं है, इस लक्कड़ में नहीं है । जहाँ होना चाहिए वहाँ (अंतर्यामी में) है ।”

राजा ने बालक को ससम्मान छोड़ दिया ।

तो शुद्ध हृदय था । उसमें संसार का कचरा ज्यादा घुसा नहीं था । सुन ली मित्र से बात कि ‘मैं रोज़ ध्यान करता हूँ, जप करता हूँ इसीलिए जीतता हूँ ।’ करने लगा ध्यान, होने लगा जप, होने लगी थोड़ी-थोड़ी जीत और फिर उस जीत ने परम जीत के द्वार खोल दिये ।

जितना मन निर्मल होता है उतना आसानी से आत्मा में लगता है और जितना आत्मा में लगता है उतना ही निर्मल जल्दी होता है । जितना बाहर की वस्तुओं में सुख ढूँढता है उतना ही मन मलिन होता है । जितना यह मलिन होता है उतना ही आत्मा से विमुख होता है । जितना भोग का आकर्षण है, उतना व्यक्ति भीतर से छोटा है और जितना भोग के प्रति बेपरवाही है, उपरामता है और अंतर्मुखता का सुख लेने का सौभाग्य है उतना ही व्यक्ति ऊँचा होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 327

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