एक बार स्वामी दयानंद सरस्वती के शिष्य गुरु दत्त से किसी ने कहा कि आप अपने गुरुदेव के महान जीवन चरित्र पर कोई पुस्तक क्यूं नहीं लिखते, इससे उनके आदर्शों को समाज तक पहुंचाने में बहुत मदद मिलेगी ।
गुरुदत्त उस व्यक्ति की बात सुनकर कुछ लम्हों के लिए मौन हो गया, बल्कि कहीं खो ही गया । व्यक्ति ने गुरुदत्त को हल्का सा हिलाया और कहा क्या हुआ ? क्या आपको मेरा सुझाव सही नहीं लगा ?
गुरुदत्त ने संकल्प से भरी आवाज में उत्तर दिया कि मैं अवश्य लिखूंगा अपने गुरुदेव के जीवन चरित्र पर एक किताब । ऐसी किताब जिसे पढ़ कर दुनिया उनकी महिमा के आगे नतमस्तक होगी । मैं आज से ही यह प्रयास शुरू करूंगा ।
छः माह बाद उस व्यक्ति की भेंट पुनः गुरुदत्त से हुई, उसने पूछा कि पुस्तक कहां तक पहुंची । गुरुदत्त ने कहा कि कार्य अभी चल रहा है, मैंने पूरे उत्साह से प्रयास आरंभ कर दिए हैं ।
एक साल बीता व्यक्ति ने कहा क्या अभी तक लेखन कार्य पूरा नहीं हुआ ?
नहीं ! परंतु मेरी कोशिश जारी है, बस मुझे कुछ वक्त और चाहिए ।
दो वर्ष बीते व्यक्ति ने कहा मैं आपकी पुस्तक पूरी होने का समाचार सुनने के लिए इंतजार करता रहा परन्तु लगता है आप मुझे बताना भूल गए । खैर कोई बात नहीं, परन्तु अब शीघ्र ही उसकी झलक दिखाईये । मैं उस किताब को देखने के लिए बहुत उत्सुक हूं ।
गुरुदत्त ने कहा कि मैं आपको बताना नहीं भूला, दरअसल अभी किताब पूरी नहीं हुई है । मैं जी तोड़ मेहनत कर रहा हूं, वह व्यक्ति हैरानी से गुरुदत्त को देखने लगा । मन ही मन सोचने लगा कि इतनी लग्न और धैर्य से लिखी गई किताब निसंदेह समाज में क्रांति की लहर लाएगी ।
काफी माह बीत जाने के बाद एक दिन गुरुदत्त के चेहरे पर अदभुत चमक देखकर सहसा ही वह व्यक्ति बोल पड़ा तो आखिरकार आपने अपने गुरुदेव की जीवनी लिखने में सफलता हासिल कर ही ली । क्यूं मैं सही कह रहा हूं ना ?
जी ! देखिए पुस्तक आपके सामने है । व्यक्ति ने कहा कहां है । गुरुदत्त ने कहा कि मैंने अपने गुरुदेव के अनमोल आदर्शों को, उनके श्रीवचनों को कागज पर नहीं उकेरा, बल्कि ध्यान और साधना की कलम से अपने अंतः कर्ण पर लिखने का प्रयास किया है। मैंने पूरी कोशिश की है कि इस संसार को यह संदेश देने की कि मेरे गुरुदेव के वचन, उनका चरित्र, उनका व्यक्तित्व इतना महान है कि उसे जो भी अपने मन के कागज पर लिख लेता है, अपने हृदय पटल पर जो इन्हें अंकित कर लेता है वह जगत के लिए एक चलता फिरता प्रेरक-ग्रंथ बन जाता है ।
व्यक्ति ने कहा सच यह पुस्तक तो अद्वितीय है , ऐसी पुस्तक सभी शिष्यों को लिखनी चाहिए । गुरुदेव की महानता की अनूठी अभिव्यक्ति है यह पुस्तक, इसलिए स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि साधक को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल बाह्य पुस्तकों का अभ्यास करने से, वाक्य रटने से अमृत्व नहीं मिलता । उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके । ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरुकृपा से ही प्राप्त हो सकता है, उनके सानिध्य से ही प्राप्त हो सकता है । उनके सिद्धांतों पर चलकर ही प्राप्त हो सकता है । जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किए हैं ऐसे गुरु का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है । तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरु का संग श्रेष्ठ है । गुरु का सत्संग शिष्य का पुनर्जीवन करने वाला मुख्य तत्व है, वह उसे दिव्य प्रकाश देता है और उसके लिए स्वर्ग के द्वार सहज ही खोल देता है ।