धर्म के लिए कितना समय देना चाहिए ?

धर्म के लिए कितना समय देना चाहिए ?


पूज्य बापू जी के साथ प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः महाराज श्री ! जीवन में धर्म के लिए कितना समय देना चाहिए ?

पूज्य बापू जीः धर्म क्या है ? जो सारे ब्रह्माण्डों को धारण कर रहा है और जो तुम्हारे शरीर को धारण कर रहा है । उसके लिए कितना समय देना चाहिए ? अरे ! मनुष्य जन्म मिला है मुक्त होने के लिए और उसी के लिए समय नहीं है तो फिर काहे के लिए समय है, बंधन के लिए समय है । धर्म के लिए थोड़ा समय…. धर्म कोई स्नानागार है कि थोड़े समय में नहा धो के बाहर आ जायें । धर्म के लिए कितना समय…. नहीं, सारा समय धर्ममय हो जाय । भोजन भी धर्ममय हो जाय, भगवान को भोग लगे । निद्रा भी धर्ममय हो जाय…. भगवच्चिन्तन करते-करते । पति-पत्नी का, परिवार का पालन भी भगवान के नाते धर्ममय हो जाय । धर्म के लिए कितना समय दें, यह सवाल ही उचित नहीं है । धर्म को छोड़कर जितना समय आप जी रहे हैं, वास्तव में उतना समय आप मर रहे हैं । उतना समय आप अपने दुश्मन हो रहे हैं । धर्म को छोड़ेंगे तो अधर्म होगा, अधर्म होगा तो दुःख होगा । जहाँ-जहाँ सुख है, शांति है, आनंद वह धर्म का फल है और दुःख है, बेचैनी, अशांति वह वह बेवकूफी, अज्ञान, मूढ़ता का फल है । दैनिक जीन धर्ममय होगा तो ही वास्तव में जीवन होगा और दैनिक जीवन को धर्म में अलग करेंगे तो वह पशु-जीवन हो जायेगा । इसलिए जो कुछ भी करो, इस भाव से करो ।

 खाऊँ पिऊँ सो करूँ पूजा, हरूँ फरूँ सो करूँ परिकरमा, भाव न राखूँ दूजा ।

भोजन करें तो भी ‘अंतर्यामी परमात्मा मेरे हृदय में विराजमान हैं, उनको भोजन करा रहा हूँ… उनको भोग लगा रहा हूँ….’ इस भाव से करें । भोजन करें. चलें-फिरें…. जो भी करें, इच्छा-वासना से प्रेरित हो के नहीं, कर्ताभाव से प्रेरित हो के नहीं अपितु भगवान की प्रसन्नता के लिए और भगवद्भाव से सराबोर होकर करें तो यह प्रभु की पूजा बन जाता है ।

सृष्टि आदि में ईश्वर-सत्ता थी, अब भी है और बाद में भी रहेगी । उसके साथ तालमेल करके जो भी हरकत करेंगे, जो भी व्यवहार करेंगे वह सब धर्म है । इससे आप तो उठते जाओगे, अपने सम्पर्क में आने वालों को भी ऊँचा उठाने में सक्षम हो जाओगे । माला घुमाने अथवा मंदिर में जानेमात्र से ही भजन, धर्म पूरा नहीं हो जाता । आपका प्रत्येक व्यवहार आपकी वास्तविक उन्नति, शाश्वत उन्नति करने वाला हो, इसका नाम धर्म है ।

जीवन जीना एक कला है । कला दो मिनट के लिए ही थोड़ी सीखी जाती है । कला व्यवहार में लायें तभी तो उसका लाभ है । इसलिए जीवन का पूरा समय धर्ममय होना चाहिए । तो परमात्म-सत्ता से एकाकार होकर उसका अधिक से अधिक लाभ उठाने की व्यवस्था का नाम है ‘धर्म’ । इसलिए धर्म के लिए कुछ समय नहीं, पूरा समय देना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020 पृष्ठ संख्या 2 अंक 328-329

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *