शिष्य को घास के तिनके से भी अधिक नम्र होना चाहिए तभी गुरु की कृपा उस पर उतरेगी । जब शिष्य ध्यान नहीं कर सकता हो, जब आध्यात्मिक जीवन का मार्ग नहीं जान सकता हो तब उसे गुरु की सेवा करनी चाहिए, उनके आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए, उसके लिए केवल यही उपाय है । पूर्णत्व की प्राप्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य है किन्तु मनुष्य के पर्यटन बहुत ही सीमित हैं । आंतरिक प्रसन्नता एक मात्र मानव प्रयास से नहीं अपितु गुरु कृपा से प्राप्त होती है । वे साधक धन्य हैं जिन्हें ईश्वर और गुरु कृपा प्राप्त है। भारत वर्ष में गुरु शब्द बहुत ही सम्मानित है तथा इसके साथ पवित्रता तथा उच्च ज्ञान का अर्थ संबद्ध है । इसका प्रातः अकेले प्रयोग ना करके देव शब्द के साथ प्रयोग किया जाता है । देव का अर्थ है प्रकाशित प्राणी, अतः आत्मज्ञान से सम्पन्न गुरु को गुरुदेव कहते हैं । एक सामान्य अध्यापक तथा आध्यात्मिक गुरु में महान अंतर है । गुरु के समस्त शिष्य चाहें अस्सी वर्ष के ही वृद्ध क्यूं ना हों, किन्तु अपने गुरु के समक्ष बच्चे के सदृश्य ही होते हैं । गुरुदेव अपने शिष्यों की सब प्रकार से रक्षा करते हैं एक बार एक शिष्य ने बंगाली बाबा से पूछा कि आप यह सब क्यूं करते हैं लोगों को शिष्य बनाना, उनकी रक्षा करना यह सब किस लिए । बाबा ने कहा कि योग्य विद्यार्थियों को पढ़ाने के अतिरिक्त मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैं केवल यही करना चाहता हूं । शिष्य अपने हाथों में शुष्क समिधा को लेकर आता है वह श्रद्धा और सम्मान से प्रणाम करते हुए कहता है यह आपके चरणों में समर्पित है इस समिधा समर्पण का तात्पर्य है कि उसने उच्चत्तम ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनसा, वाचा और कर्मणा स्वयं को श्री गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया है । गुरु उस शुष्क समिधा को अग्नि में प्रज्जवलित करके कहते हैं कि अब मैं पथ प्रदर्शन करते हुए भविष्य में तुम्हारी रक्षा करूंगा । तदनंतर वह शिष्य को विभिन्न स्तरों की उसकी साधना और अनुशासन का मार्ग प्रशस्त करते हैं यह एक गुरु शिष्य का ऐसा विशुद्ध सम्बन्ध है जिसकी किसी भी अन्य सम्बन्ध से तुलना नहीं की जा सकती । गुरु का सर्वस्व यहां तक की शरीर, मन और आत्मा सब कुछ शिष्य का हो जाता है । गुरु मंत्रदान करते हुए कहते हैं कि यह तुम्हारा आध्यात्मिक और शाश्वत मित्र है । नित्य इस मित्र का स्मरण करो । संसार में कहीं भी रहो, कुछ भी करो हर कर्म में अपने इस मंत्र रूपी मित्र का स्मरण बनाए रखो । इसे सदैव साथ रखो, यह तुम्हारी सदा सहायता करेगा । शिष्य चाहे जितना भी चाहे किन्तु गुरु के लिए कुछ भी नहीं कर सकता क्यूंकि गुरु को किसी भी लौकिक या परलौकिक चीज की आवश्यकता नहीं होती । ऐसे करुणा मूर्ति गुरु ही भ्रांत शिष्य पर कृपा करते हैं । शिष्य कभी-2 सोचता है कि यह मेरे लिए इतना क्यूं कर रहे हैं, यह मुझसे क्या चाहते हैं । वे शिष्य से कुछ नहीं चाहते, वे कर्तव्य भावना से ही सब कुछ कर रहे हैं यही उनके जीवन का लक्ष्य है । अपने पथ-प्रदर्शन के लिए वे आपके आभार तक की कामना नहीं करते, वे केवल अपना कार्य करते हैं प्रेम की खातिर । ऐसे ही महापुरुष गुरु कहे जाते हैं वे निखिल मानवता के पथ प्रदर्शक हैं जिस प्रकार सूर्य इतनी दूर रहते हुए भी प्रकाश प्रदान करता है, उसी प्रकार से सच्चा गुरु भी अनासक्त भाव से अपना अध्यात्मिक प्रेम प्रदान करते हैं । पूज्य बापू जी के भानजे श्री शंकर भाई ने पूज्य श्री का एक संस्मरण बताते हुए कहा कि जब बापूजी आबू की नल गुफा में रहकर साधना करते थे तो मैं वहां जाता रहता था । एक बार उपवास पूरा होने के बाद बापूजी मुझे बोले, मुझे बहुत भूख लगी है तू कुछ ले आ । मैं ढूंढ़ते हुए दुकान पर गया तो केवल तीन ही केले मिले, मैं ले आया । बापूजी ने उनमें से एक केला मुझे दिया और दो केले अपने लिए रख कर दोपहर का साधना का नियम पूरा करने लगे । नियम पूरा हुआ तो सामने गौमाता आ रही थी, बापू जी ने एक केला गाय को खिला दिया । बापूजी को बहुत भूख लगी थी फिर भी उन्होंने एक केला मुझे और एक केला गाय को दे दिया, स्वयं एक ही केला खाया । बापूजी का ऐसा करुणामय हृदय, दयालु स्वभाव कि मैं तो देखता ही रह गया । दरअसल पूज्य बापूजी के लिए प्राणीमात्र उनका ही आत्मस्वरुप है इसलिए उनका यह स्वभाव सहज व स्वभाविक है । आज जो कुछ भी मानवीय संवेदना, जीवदया, परदुख कातरता, सदभाव, गव सौहार्द्रता धरती पर देखने को मिलती है वह स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुख देने वाले ऐसे सर्वभूत हिते रतः महापुरुषों की तपस्या, श्रेष्ठ समझ व सत्संग का ही तो फल है ।