नित्य उपासना की आवश्यकता क्यों ?

नित्य उपासना की आवश्यकता क्यों ?


‘ऋग्वेद’ (1.113.11) में कहा गया हैः

ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः।

अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ।।

‘जो मनुष्य ऊषा के पहले शयन से उठकर आवश्यक (नित्य) कर्म करके परमेश्वर का ध्यान करते हैं वे बुद्धिमान और धर्माचरण करने वाले होते हैं । जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर का ध्यान करके प्रीति से आपस में बोलते-चालते हैं वे अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त होते हैं ।’

परमात्मा के नित्य पूजन, ध्यान, स्तुति के महत्त्व को महर्षि वेदव्यासजी ने महाभारत के अनुशासन पर्व (149.5-6) में बताया है कि “उसी विनाशरहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से, उसी का ध्यान, स्तवन एवं उसे नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुःखों से छूट जाता है । उस जन्म, मृत्यु आदि 6 भावविकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरंतर स्तुति करने से मनुष्य सब दुःखों से पार हो जाता है ।”

परमेश्वर की उपासना-अर्चना करने से आत्मिक शांति मिलती है । जाने अनजाने किये हुए पाप नष्ट होते हैं । देवत्व का भाव मन में पैदा होता है । आत्मविश्वास बढ़ता है । सत्कार्यों में मन लगता है । अहंकाररहित होने की प्रेरणा मिलती है । बुराई से रक्षा होने लगती है । चिंता और तनाव से मन मुक्त होकर प्रसन्न रहता है । जीवन को शुद्ध, हितकारी, सुखकारी, आत्मा-परमात्मा में एकत्ववाली ऊँची सूझबूझ प्राप्त होती है । ऊँचे-में-ऊँचे ब्रह्मज्ञान की सूझबूझ से शोकरहित, मोहरहित, चिंतारहित, दुःखरहित, बदलने वाली परिस्थितियों में अबदल आत्मज्ञान का परम लाभ मिलता है ।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते ।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते ।

पुण्यात्मा, धर्मात्मा, महानात्मा, दर्शनीय, चिंतनीय, मननीय, आदरणीय, सर्वहितकारी, पूर्ण परोपकारी, पूर्णपुरुष, आत्मसाक्षात्कारी, ब्रह्मवेत्ता के लिए महर्षि वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं से कीड़ी बड़ी है । कीड़ी से कीड़ा-मकोड़ा, कच्छ (कछुआ), बिल्ला, कुत्ता, गधा, घोड़ा दि बड़े है पर सबसे बड़ा है हाथी । परंतु हे राम जी ! सुमेरु पर्वत के आगे हाथी का बड़प्पन क्या है ? ऐसे ही त्रिलोकी में एक-से-एक मान करने योग्य लोग हैं । देवाओं में मान योग्य एवं सुख-सुविधाओं में सबसे बड़ा इन्द्र है । किंतु ज्ञानवान के आगे इन्द्र का बड़प्पन क्या है ?”

संत तुलसीदासजी ने लिखा हैः

तीन टूक कौपीन की, भाजी बिना लूण ।

तुलसी हृदय रघुवीर बसे तो इन्द्र वापड़ो कूण ।।’

पीत्वा ब्रह्मरसं योगिनो भूत्वा उन्मतः ।

इन्द्रोऽपि रंकवत् भासते अन्यस्य का वार्ता ?

ब्रह्मवेत्ता के आगे इन्द्र भी रंकवत् भासता है । इन्द्र को सुख के लिए अप्सराओं का नृत्य, साजवालों के साज,  और भी बहुत सारी सामग्री की आवश्यकता पड़ती है जैसे पृथ्वी के बड़े लोगों को सुख के लिए बहुत सारी सामग्री और लोगों की आवश्यकता पड़ती है लेकिन आत्मज्ञानी आत्मसुख में, आत्मानुभव में परितृप्त होते हैं । तीन टूक लँगोटी पहनकर और बिना नमक की सब्जी खा के भी आत्मज्ञानी आत्मदेव में परम तृप्त होते हैं ।

स तृप्तो भवति। स अमृतो भवति ।

स तरति लोकांस्तारयति । (नारदभक्तिसूत्रः 4 व 50)

तस्य तुलना केन जायते । (अष्टावक्र गीताः 18.81)

उस आत्मज्ञान के सुख में सुखी महापुरुष के दर्शन से साधक, सज्जन, धर्मात्मा उन्नत होते हैं, परितृप्त होते हैं और उन महापुरुष को मानने वाले गुरुभक्त देर-सवेर सफल हो जाते हैं । भगवान शिवजी ने कहा हैः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः ।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ।।

‘जिसके अंदर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसका पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है, उसके वंश में जन्म लेने वाले धन्य हैं, धरती धन्य है !’

उपासना से इन सभी लाभों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब सच्चे मन, श्रद्धा एवं भावना से उपासना की जाय । जैसे जमीन की गहराई में जाने से बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है, ठीक वैसे ही श्रद्धापूर्वक ईश्वरोपासना द्वारा अंतर्मन में उतरने से दैवी सम्पदा प्राप्त होती है ।

उपासना की मूल भावना यही है कि जल की तरह निर्मलता, विनम्रता, शीतलता, फूल की तरह प्रसन्न एवं महकता जीवन, अक्षत की तरह अटूट निष्ठा, नैवेद्य की तरह मिठास-मधुरता से युक्त चिंतन व व्यवहार, दीपक की तरह स्वयं व दूसरों के जीवन में प्रकाश, ज्ञान फैलाने का पुरुषार्थ अपनाया जाय ।

भगवान श्रीकृष्ण गीता (18.46) में कहते हैं-

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।

‘उस परमेश्वर की अपने कर्मों से पूजा करके मनुष्य सिद्धि (स्वतः अपने आत्मस्वरूप में स्थिति) प्राप्त करता है ।’

पूज्य बापूजी कहते हैं- “पूजा-अभिषेक में 40 किलो दूध चढ़ाओ या 40 ग्राम, पर पूजा करते-करते तुम मिटते जाते हो कि बनते जाते हो, ईश्वर में खोते जाते हो कि अहंकार में जगते जाते हो – इसका ख्याल करो तो बेड़ा पार हो जायेगा । शिवजी तुम्हारे चार पैसे के दूध के लिए भूखे हैं क्या ? तुम्हारे घी और शक्कर के भूखे हैं क्या ? नहीं…. वे तुम्हारे प्यार के, उन्नति के भूखे हैं । प्यार करते-करते तुम खो जाओ और तुम्हारे हृदय में शिव-तत्त्व प्रकट हो जाय । यह है पूजा का रहस्य !”

एक बार चैतन्य महाप्रभु से एक श्रद्धालु ने पूछाः “गुरुदेव ! भगवान सम्पन्न लोगों की पूजा से सन्तुष्ट नहीं हुए और गोपियों की छाछ व विदुर के शाक उन्हें पसंद आये । लगता है कि पूजा के पदार्थों से उनकी प्रसन्नता का संबंध नहीं है ।”

चैतन्य महाप्रभुः “ठीक समझे वत्स ! प्रभु के ही बनाये हुए सभी पदार्थ हैं फिर उन्हें किस बात की कमी ? वास्तव में पूजा तो साधक के भाव-जागरण की पद्धति है । वस्तुएँ तो प्रतीकमात्र हैं, उनके पीछे छिपा हुआ भाव भगवान ग्रहण करते हैं । भावग्राही जनार्दनः । पूजा में जो-जो वस्तुएँ भगवान को चढ़ायी जाती है, वे इस बात का भी प्रतीक हैं कि उन पूजा सामग्रियों को निमित्त बनाकर हम अपने पंचतत्त्वों से बने तन, तीन गुणों में रमण करने वाले मन, बुद्धि, अहं, इन्द्रिय-व्यवहार को किस प्रकार उन्हें अर्पण कर अपने अकर्ता-अभोक्ता स्वभाव में जग जायें ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 38,39 अंक 328-329

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *