हमारा और परमेश्वर का संबंध सनातन है, सीधा-सादा है। हमारा और वस्तुओं का संबंध, हमारा और व्यक्तियों का संबंध माना हुआ संबंध है। माना हुआ सबंध (मान्यताएँ बदलती है और वस्तुएँ टूटती-फूटती है) बदल जाता हैं। वास्तविक संबंध किसी भी परिस्थिति में नहीं टूटता। वास्तविक संबंध को जानना है और माने हुए संबंध को अनासक्त भाव से निभाना है। आसक्ति से आदमी की योग्यताएँ क्षीण हो जाती है। कर्म के फल की वाँछा से अंतःकरण की योग्यता कुंठित हो जाती है और फल तो जितना प्रारब्ध में होगा वह मिलकर ही रहता है। निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण की शुद्धि करते हैं।
अंतःकरण की शुद्धि- ये बड़ी उपलब्धि है। जैसे फानूस (लालटेन) की कालिमा हटा देने से लालटेन का प्रकाश बाहर फैलता है, लालटेन के काँच की कालिमा हटाकर साफ-सुथरा कर देने से लालटेन का प्रकाश बाहर फैलता है, वह चमकता है, ऐसे ही अंतःकरण की अशुद्धि मिटाने से परमात्म-प्रकाश, परमात्म-सामर्थ्य, परमात्म-आनंद, मतलब परमात्मा का दिव्य-प्रसाद उस व्यक्ति के द्वारा निखरता है। परमात्मा तो सब में है और सब का सनातन-स्वरूप है। जो नहीं पहचानते उनका भी वास्तविक स्वरूप परमात्मा ही है- ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन।
आप भगवान के सनातन अंश है फिर भी दुःख, मुसीबत, शोक, चिंता, पीड़ा, मृत्यु, जन्म आदि जो कष्ट सह रहे हैं ये सारे के सारे कष्टों का एक ही कारण है कि आपके और ईश्वर के बीच जो अज्ञान है वही सारी मुसीबतें दे रहा है। तो अंतःकरण के तीन दोष हैं- ‘मल’, ‘विक्षेप’ और ‘आवरण’। ‘मल’ माने वासनाओं की भीड़, ये मिले, ये मिले, ये मिले, ये खाऊँ, ये खाऊँ… इच्छाएँ। इससे वह अंतःकरणरूपी काँच मैला है और जितनी इच्छाएँ ज्यादा होती है उतना चित्त ज्यादा विक्षिप्त रहता है-‘विक्षेप’।
तो ‘मल’, ‘विक्षेप’… तीसरा होता हैं ‘आवरण’। ‘आवरण’
क्या होता है कि जो है उसको नहीं जानते, जो नहीं है उसको
मानते हैं। वास्तविक में जो हम है उसका फायदा नहीं उठाते और जो नहीं है उसी को संभाल-सजाकर
मर रहे है। इसी का नाम है ‘अविद्या’। यह अविद्या आने से, अविद्या
को संभालने से, अविद्या होने से आदमी को सारे कष्टों का
शिकार बनना पड़ता है। जो विद्यमान न रहे उस शरीर को ‘मैं’
मानते है, सदा उसको विद्यमान रखना चाहते है। जो
वस्तु विद्यमान न रहेगी, सदा उसको संभालते है, क्योंकि
अविद्या का प्रभाव है मस्तिष्क में। अब बात रही, दूर कैसे करें? अंतःकरण शुद्ध हो, काँच साफ हो तो प्रकाश दिखेगा ठीक
से। तो अंतःकरण मलीन कैसे होता हैं? और शुद्ध कैसे होता है? ये भी अपन लोग जानेंगे तभी तो फायदा उठायेंगे।
सुख की लालच और दुःख का भय इन दो कारणों से अंतःकरण मलीन रहता हैं। बाहर
की वस्तुओं से सुख लेने की लालच और कोई वस्तु या व्यक्ति न जाये उस दुःख का भय। ‘सुख की लालच और दुःख का भय’, इससे अंतःकरण अशुद्ध होता हैं। सुख की लालच छोड़ दें और दुःख का भय छोड़ दें
तो अंतःकरण बस शुद्ध हो जाये। परमात्म-प्रकाश, परमात्म-आनंद,
परमात्म-मस्ती आने लगेगी। इसमें आहारशुद्धि, मंत्रजाप,
सेवा, दान-पुण्य, ये सब सहायक चीजें हैं।
तो एक साधन होता है ‘बहिरंग’, दूसरा
साधन होता है ‘अंतरंग’। जैसे तीर्थयात्रा करते हैं तो बहिरंग साधन माना जाता हैं।
भगवन्नाम का जप करते हैं तो वह अंतरंग साधन हैं क्योंकि जप का अर्थ हृदय में,
जप का प्रभाव रक्त में, नस-नाड़ियों में पड़ेगा।
गुरूदत्त जप है ये अंतरंग साधन हैं। जप का अर्थ समझते हैं तो और अंतरंग साधन हो
जाता हैं। अंतरंग माना आत्मा के निकट वाला साधन। जैसे गाड़ी को बाहर से रोकना, दस-पॉंच
आदमी खड़े होकर गाड़ी को रोक दें, ये बहिरंग है और ब्रेक पर पैर रखकर गाड़ी रोके, ये
अंतरंग हैं, लायनरों पर प्रेशर पड़ता हैं। बाहर से धक्का देकर
अथवा घोड़ा-वोडा बाँध के गाड़ी को घसीटना, दौड़ाना, ये बहिरंग है और गाड़ी में मशीन
फिट करके पेट्रोल देना, ये अंतरंग हो गया। ऐसे ही अंतःकरण की शुद्धि कुछ बहिरंग
साधनों से भी होती हैं, अंतरंग साधनों से जल्दी होती हैं, आसानी से होती हैं। जैसे तीर्थाटन किया तो जिसके शरीर में अहं हैं,
अपने पाँच कोष हैं, कवर हैं, अपने उस स्वरूप
के ऊपर पाँच कवर हैं। जैसे बादाम रोगन पर पाँच कवर हैं.. बादाम का फल- उसके ऊपर एक
कवर, फिर वो हरी-हरी गिरी- दो, फिर वो
कठोर लकड़े जैसी कवर- तीन, फिर लाल कवर- चार, फिर वो सफेद गिरी- पाँच, उसके अंदर
बादाम का तेल । ऐसे ही उस बादाम के फल की वैल्यू क्यों हैं? तेल
के कारण! ऐसे ही मानव की वैल्यू क्यों हैं? कैसे है? कि ‘आत्मा’ के कारण। तो जिसका अन्नमय कोष में ज्यादा स्थिति हैं, ऐसे
आदमी को बहिरंग साधन अच्छा लगेगा, धार्मिक तो होगा लेकिन अंतर्मुख-ध्यान-व्यान-मजा
नहीं, तीर्थयात्रा, मेहनत की भक्ति…। जिसका अन्नमय कोष से
कुछ अंतर हैं, मन प्राणमय कोष में हैं उसको प्राणायाम,
आसन, उपवास ये अच्छा लगेगा। जिसकी मनोमय कोष
में स्थिति हैं उसको भगवान का भजन-कीर्तन, मंदिर, भगवान के नाम का जप-ध्यान अच्छा लगेगा। जिसकी विज्ञानमय कोष में स्थिति
हैं उसको भगवान-तत्व की कथा-वार्ता के विचार उठेंगे और समझेगा ‘भगवान’ क्या?,
‘ठाकुर’ क्या?, ‘कृष्ण’ क्या?, ‘तीर्थ’ क्या?, ‘मैं’ क्या? ये
बात उसको स्फुरणा भी होगा समझने की और अच्छी भी लगेगी, जहाँ सुनाई पड़ेगा।
तो अन्नमय कोष, बहिरंग आदमी है, उससे प्राणमय
कोष में जीनेवाला आदमी थोड़ा अंतरंग हैं। इससे मनोमय कोष में जीनेवाला आदमी और
अंतरंग हैं। इससे विज्ञान मय कोष में जीनेवाला आदमी और अंतरंग हैं, उससे भी आनंदमय
कोष में जीनेवाला आदमी और अंतरंग हैं। आनंदमय कोष में जीनेवाला आदमी, साधक, अगर
किसी सदगुरू को मिल जाता हैं.. काम बन जाता हैं।
आनंदो ब्रह्म, ब्रह्म इति परमात्मनो इति वेदांतेनः
वेदांतवेत्ताओं
का परमात्मा कोई सगुण साकार, कोई मूर्तिधारी किसी देश में बैठा हैं, ऐसा नही हैं। आनंदस्वरूप
वो परमात्मा हैं और तेरे हृदय में प्रकाशित हो रहा है, वही है। एक विचार उठा और
दूसरा उठने को हैं, उसके बीच की अवस्था है वो ही चैतन्य परमात्मा। बुद्धि को जो
अनुकूल चीज मिलती हैं, मन को जो प्रसन्नता होती
हैं वो प्रसन्नता जहाँ से आती हैं, वो प्रसन्नस्वरूप परमेश्वर हैं, वो ही तू हैं, बाकी
वस्तु और भोगने के साधन तू नही हैं। इस प्रकार का गुरूदेव उपदेश दे और शिष्य का
कल्याण हो जाता हैं, साक्षात्कार हो जाता हैं, फिर दस मिनट में समझ ले, दस दिन में समझ ले…ये
समझकर उसमें टिक जाता हैं। तो ऐसा तो कोई कोई तैयार साधक मिलता हैं इसलिए उसको साक्षात्कार हो जाता हैं, बाकी के लोग आत्म-साक्षात्कारी
पुरूष के संग में आएँगे तो जो अन्नमय कोष में जी रहे हैं, जैसे तीर्थयात्रा, ऐसे
रुपये-पैसे, पद संभाल कर जो सुखी होना चाहता हैं वो अन्नमय कोष में हैं। ऐसे पुरूष
को जब गुरू मिल जाएँगे तो उसका एक कोष गुरु-मुलाकात से, गुरु-दृष्टि
से, गुरु-कृपा से, गुरु-सान्निध्य से…।
गुरू उनको कहते हैं हम, जो अंधकार को मिटा के आत्म-प्रकाश
देने का सामर्थ्य रखते हो अथवा तो उसका दूसरा अर्थ है- इंप्रेस न हो और ऊँचे से
ऊँची स्थिति में, जैसे सुमेरू हैं, आँधी चले, तूफान चले, बाढ़
आये, सुमेरू को कुछ नहीं होता, हिमालय
को कुछ नहीं होता। ऐसे जहाँ कुछ नहीं होता वहाँ जो टिके हुए पुरूष, उनको गुरू कहा
जाता हैं। ऐसे गुरु, गोविंद से भी ज्यादा आदरणीय माने गए हैं-
गुरू गोविंद दोनों खड़े किसको लागू पाय
बलिहारि गुरूदेव की गोविंद दियो दिखाय
ईश ते अधिक गुरू में प्रीति, जानि करत सुजान
बोले- ईश्वर से अधिक गुरू में प्रीति?
कि- हाँ! ईश्वर की मूर्ति में श्रद्धा करोगे, हृदय शुद्ध होगा लेकिन वो मूर्ति उपदेश नहीं देगी, गलतियाँ नही काटेगी-छाँटेगी। सम्प्रेक्षण-शक्ति बरसायेगी नहीं लेकिन ऐसे पुरूष गलतियाँ काटेंगे-छाँटेंगे, उपदेश देंगे और उसमें उनका संकल्प- “इनका भला हो!” ऐसे संकल्प से वो बोलेंगे!
भागवत
में ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की महिमा में शुकदेवजी परीक्षित को बताते हैं कि
भगवान में तीस गुण हैं, उद्धारक-शक्तियाँ,
जीव का भला करने का और भगवत्प्राप्त ब्रह्मवेत्ता महापुरूष में छत्तीस गुण होते
हैं। ऐसे पुरूष जल्दी से मिलते नहीं और मिलते हैं तो हम पहचान नहीं पाते और पहचान
लिया तो फिर माता के गर्भ में नहीं आते हम। ऐसे पुरुषों के लिए ही उच्च अवस्था पर
पहुँचे हुए ऋषि ने गाया है- गुरूर्ब्रह्मा... ब्रह्मा जी जैसे सृष्टि करते
हैं, ऐसे हमारे अंदर आध्यात्मिक संस्कारों की सृष्टि
करते हैं। गुरुर्विष्णु… जैसे विष्णुजी पालन करते हैं, ऐसे ही हमारे
आध्यात्मिक संस्कारों का पोषण करते हैं वे।
गुरुर्देवो महेश्वर:.. हमारे गुरू क्या
है? कि- महेश्वर हैं, शिव हैं। जैसे
शिवजी प्रलय कर देते हैं, ऐसे ही हमारे अंदर जीव-भाव के, राग-द्वेष के संस्कारों
को खत्म करते हैं। इससे भी ऋषि संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने देखा कि ये तो ठीक है-
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हुआ, लेकिन
उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय के बाद भी जो
नहीं मिटता उसका साक्षात्कार कराने वाले तो साक्षात ब्रह्म हैं-
गुरूर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वराः
गुरू साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः
ऐसे गुरुदेव को हम नमस्कार करते हैं।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अज्ञान तिमिर से जो हम भटक रहे थे, अगले जन्म के माँ के गर्भ में लटके थे, कभी किसी माँ का गर्भ मिला, टिके और कभी ऐसे ही बह गए बाथरूम में। इस बात को तो नास्तिक आदमी भी अस्वीकार नहीं कर सकता हैं। इस जन्म में भी न जाने कितनी-कितनी बार गर्भों में ट्राय करते-करते बहे होंगे और अभी ये शरीर को गर्भ-वास मिल गया। ऐसा थोड़े है कि सीधा गर्भ-वास मिल गया और पैदा हो गये होंगे। कई बार ऐसे ही बह गये होंगे और मर गये और साक्षात्कार नहीं किया तो फिर वो ही तो रूटीन होगी। पशु के गर्भ में भी, टिकने का मिलता हैं, कभी नहीं मिलता। तो पशु का कितना दुःखी जीवन, मनुष्य का कितना सारा दुःखी जीवन। तो ये दुःखद-जीवनों से हटाकर मुक्ति के माधुर्य का अनुभव कराने वाले गुरु। उन गुरूओं का अनुभव हैं कि अंतःकरण की अशुद्धि, इच्छा से, सुख की इच्छा से और दुःख के भय से होती हैं। सुख की इच्छा मिटाना हैं तो सुख-स्वरूप हरि का ध्यान और सुख-स्वरूप परमात्मा के नाते संसार में व्यवहार करें तो सुख की इच्छा मिटेगी। सुख की इच्छा मिटते ही दुःख का भय अपने आप चला जायेगा और मंत्र-जाप करने से भी निर्भयता आती हैं, सत्संग से भी निर्भयता आती हैं तो सुख की लालच, दुःख का भय मिटे।
तो परम गुरू मनु महाराज का आवाहन किया राजा इक्ष्वाकु ने और प्रार्थना की कि- ” भगवन! राज-पाट का सुख देख लिया। दिन-दिन आयुष्य नष्ट हो रही हैं। सोने के बर्तनों में भोजन कर लिया, चाँदी के रथों में घूम के देख लिया, लेकिन प्रभु कोई सार नहीं, मुझ दास पर कृपा करो, मैं बड़ा दुःखी हूँ। लोगों की नजर से तो राजाधिराज अन्नदाता महाराज हूँ लेकिन विवेक से देखता हूँ कि क्या? इस पृथ्वी पर मेरे जैसे कई पुतले आ गये। मौत के मुँह में दिनों-दिन नजदीक जा रहा हूँ। मेरे चित्त में बड़ा क्षोभ हो रहा है। मैं अनाथ बालक की नाईं आपकी शरण हूँ!”
तब …कृपा-सागर, प्राणीमात्र के परम-सुहृद, आत्मवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता, मनुष्यमात्र के नहीं, जीवमात्र के सुहृद होते हैं । कृपामय वाणी से कहने लगे मनु महाराज कि- “हे राजा इक्ष्वाकु! तू नित्य अंतर्मुख रह। अंतरात्मारूपी ईश्वर से तू जुड़ा रह अर्थात आत्म-ध्यान, आत्म-चिंतन और आत्मा-परमात्मा की प्रसन्नता के लिए काम कर। तू नित्य अंतर्मुख रह। तेरे सारे क्लेश, सारे दुःख, पाप-ताप नष्ट हो जायेंगे। हे राजन! घर में जो भोजन मिले, सहज में, आरोग्यता का ख्याल करके खा ले। ये चाहिये, वो चाहिये, जीभ का स्वाद का गुलाम मत बन।” मनु महाराज राजा इक्ष्वाकु को बोलते हैं और आशाराम महाराज अपने साधकों को बोलता हैं…”जो भोजन मिले खा लो।” मैं बिल्कुल विश्वास से कहता हूँ, मुझे पक्का स्मरण हैं, मैंने कभी ऐसा नहीं कहा कि आज मेरे लिए ये सब्जी बनाओ और अनजान कोई होता हैं सेवक तो पूछता हैं कि ‘क्या बनाएँ?’ तो मेरे को होता हैं कि ये क्या पूछ रहा हैं? कभी-कभी नारायण, आजकल कभी-कभी पूछ लेता हैं ‘ये बनाऊँ वो बनाऊँ’ तो हृदय में आश्चर्य भी होता हैं और उसकी बेवकूफी भी लगती हैं। क्या पता ये गुरूदेव की कृपा है, आप लोगों के आशीर्वाद हैं लेकिन ‘ये खाऊँ,ये खाऊँ,ये खपे, ये खपे’ कब तक? जो होता है, अनुकूल पड़ता हैं तो ठीक से खा लेते हैं नहीं तो थोड़ा कम खाकर पेट भरना हैं। जीभ का स्वाद नहीं। इंद्रियों का स्वाद ज्यों-ज्यों छोड़ते जाओगे त्यों-त्यों आत्म-स्वाद में तुम्हारा खूँटा गड़ता जायेगा, आत्म-स्वाद में तुम्हारी स्थिति होती जायेगी और ज्यों-ज्यों आत्म-स्वाद मिलेगा त्यों-त्यों तुम सच्चे परमेश्वरीय सुख का आस्वादन करोगे और, और लोग भी तुम्हारे संग में आकर आस्वादन के भागी बनेंगे। जैसे लालटेन का का काँच साफ हैं, तो काँच तो चमकता हैं लेकिन काँच के द्वारा दूर-दूर तक प्रकाश जाता हैं। ऐसे ही तुम्हारा जीवन तो चमकेगा, तुम्हारे जीवन के द्वारा दूर-दूर तक परमात्म-आनंद के वेव्स, परमात्म-मस्ती, परमात्म-ज्ञान, परमात्म-ध्यान के वेव्स दूर-दूर तक फैलेंगे।
“हे राजन! तुम नित्य अंतर्मुख रहो। घर में जो भोजन मिले स्वाभाविक
उसको खा लो। जहाँ नींद आए वहाँ सो जाओ..ऐसा बिस्तर हो, ऐसा
गादी हो,ऐसा तकिया हो,ऐसा फलाना
हो..छोड़ो! जहाँ नींद आए वहाँ सो जाओ। जो वस्त्र मिल जाए वो पहन लो…एक आदमी आया
कि-बापू तमे खादीज पहरो छो…पहले हम खादी ज्यादा पहनते थे…मैंने कहा-हाँ मैं
खादी भी पहनता हूँ… कि मैं खादी ना ज वस्त्रों जोयो छे तमारे माटे मैं खादी
लाया ..मैंने कहा-हमारे लिए कुछ नहीं लाना।हमारा अब शरीर का जो प्रारब्ध हैं,
जिस वक्त विधाता-परमात्मा जिसको जो प्रेरणा करेगा!हमारा अपना शरीर
नहीं तो खादी का कपड़ा हमारा कैसे? जो आएगा पहन लेते हैं!जो
वस्त्र मिले अंग ढकने के लिए, मर्यादा के, उस सामाजिक-सोशल मर्यादा के इर्द गिर्द जो वस्त्र मिले पहन लिए, जो भोजन मिला खा लिया, जहाँ नींद आई सो गए! मुख्य काम
ये हैं कि आत्मचिंतन, आत्मध्यान, आत्मज्ञान!
गोरखनाथ ने कहा- हंसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान... हँसते-खेलते जीवन
निर्भार बनाओ। कई लोग ध्यान करते हैं न तो यूँ अकड़ के। तू ध्यान करता हैं कि झगड़ा करता हैं? ध्यान करता हैं कि कुश्ती करता हैं? भगवान आनंद-स्वरूप
हैं तो पहले अपने हृदय को आनंद से भरकर फिर प्रवेश कर ध्यान में।
विवेकानंद ठीक बोलते थे कि वॉली-वॉल खेलने के बाद गीता जितनी समझ में आयेगी उतना कमरे में बैठकर, मंदिर में बैठकर गीता उतनी समझ में नहीं आयेगी। प्राण-अपान की गति विकसित होगी, चित्त प्रसन्न होगा फिर गीता पढ़ो तो कुछ धार्मिक लोग चिड़चिडे स्वभाव के हो जाते हैं, उन्होंने धर्म की यात्रा की नहीं, युनिफार्म की यात्रा की।
हसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान।
अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।।
खावे पीवे न करें मन भंगा।
कहे नाथ मैं तिसके संगा।।
खाये-पीये
लेकिन मन किसी में फँसने न दे, मन भंग न करें.. पहले तो ऐसा खाते थे, अब क्या ऐसा टुकड़ा। पहले तो ऐसा जीते थे, अब ऐसा जी रहे। पहले तो
गरीबी में जी रहे थे, अब अमीरी में। पहले अच्छा पहनते थे, अब घटिया पहन रहे हैं। पहले
घटिया पहनते थे, अब अच्छा पहन रहे हैं.. इन तुच्छ
चीजों को अपने अंतःकरण में मत भरो, मत आने दो। पहनता था शरीर,
घटिया भी शरीर ने पहन लिया, बढ़िया भी शरीर ने पहन लिया। बढ़िया भी खा लिया, घटिया
भी खा लिया.. ये सब आतिशबाजी का हाथी तो हैं। ऐसे ही यह शरीर आतिशबाजी का पुतला
हैं। इसका एड्रेस तो श्मशान हैं। रामतीर्थ ने सिलकीन धोती मँगाई और पहनी। बोले-
स्वामीजी आज तो आपका वट हैं, आप तो चमक रहे हैं, इतना बढ़िया
धोती पहने हैं गुरूजी। बोले- ये तो सती का सिंगार हैं। ये तो सती का सिंगार है। ये
आखिरी जन्म हैं, ला दिया किसी ने, पहन लिया। हो गया…। सती का सिंगार हैं, इसकी
बात क्या करते हो? मेरी बात करो। मैं कौन हूँ? तुम भी वही हो। मैं ‘कृष्ण’ बनकर आया था, लोगों ने
मुझे नहीं पहचाना। मैं ‘राम’ बनकर आया था, लोगों ने मुझे नहीं समझा। मैं ‘बुद्ध’
बनकर आया, लोगों ने मेरे को नहीं समझा। अब मैं ‘रामतीर्थ’ बनकर आया हूँ और मेरा
कहना है कि तुम भी वही हो जो अनेक रूपों को ले के आया
हूँ, उसकी बात करो। सिलकीन साड़ी पहनी हैं, घड़ियाल सोने की
रामतीर्थ ने पहनी, आपने क्या खाया?
आपने क्या बोला? आपने क्या? हम कभी
कुछ खाते ही नहीं। हम कभी कुछ पहनते ही नहीं। चिदानंद रूपः शिवोहं शिवोहं…। आनंदमय
कोष में जीता हुआ व्यक्ति अगर तत्वज्ञान मिल जाए तो आनंदस्वरूप में टिक जायेगा।