बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -6)

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -6)


सद्गुरु की ख़ुदाई अदाओं की आँधी संसार के परखच्चे उड़ा देती है। फिर शिष्य की इस जमीं पर गुरु अपने प्यार भरे हाथों से रूहानियत का एक नया नगर बसाते है। ऐसा नगर जहाँ सिर्फ शुद्ध प्रेम की ठंडी बयार बहती है।जिसमें सहज समर्पण की सुगंध घुलि होती है। जहाँ विश्वास पूरे यौवन में गुलज़ार होता है। जहाँ आनन्द की सुनहरी सुबह खिली रहती है और कभी रात आती भी है तो पूर्णमासी सी।बुल्लेशाह के अन्दर भी इनायत शाह के सधे हुए हाथ यही रूहानी दुनिया रच रहे थे।*न गर्ज किसी से न वास्ता,* *मुझे काम अपने काम से ।**तेरे जिक्र से, तेरी फ़िक्र से,* *तेरी याद से, तेरे नाम से।*बुल्लेशाह की यह अज़ब मस्ती गज़ब कर गई। उसके सगे-संबंधी बौखला उठे। उसकी इस रूहानी दुनिया पर विष बुझे तीर कस बैठे। विरोध की घनघोर आँधी बनकर गरज़ उठे।*इधर हमने एक शाम सजाई चिरागों से! और उधर लोगों ने शर्त लगाई हवाओं से!*पहले पहल जिगरी दोस्त आश्रम आया। दुनियावी कायदे-कानूनों की दुहाइयाँ देकर वह एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा। फिर भाभीयाँ और बहनों का एक पूरा काफ़िला ही तंज, टोंच और फिकरों की सौगात लिए वहाँ आ धमका। उन्होंने भी डरा- धमकाकर, चढ़ा-गिराकर, हँस-रोकर हर पैतरा आजमाकर देखा। परन्तु सब बेकार!*वो संकल्प रखता हूँ जो हादसों में पलता है-2**कि बेसब्र आँधियों में मेरा चिराग जलता है।*यह बुल्लेशाह के मुरीद ज़िगर का ऐलान था। खिलाफ़ी रुख़ भी उसके इस संकल्प की आग में ईंधन फूंक गये। उसकी अन्दरूनी- रूहानी दुनिया में जले चिरागों को और चकमक-रोशन कर गये।इधर जब भाभीयाँ और बहने हवेली पहुँची तो वहाँ मातमी सन्नाटा छा गया। सय्यदों को भाभीयों से पूरी उम्मीद थी, परन्तु वे तो अपने कुचले हुए फणों के साथ थक-हार कर लौटी आई थी। अब भाइयों ने सोचा कि फुंकारो से काम नहीं चलेगा। चलो फिर कुछ सिंह गर्जना की जाए।इसलिए वे आश्रम पहुँचकर बुल्लेशाह पर ख़ूब दहाड़े। उन्हें डराया-धमकाया, परन्तु ये खूँखार दहाड़े बुल्लेशाह के बन्द कानों से टकराकर उल्टे दहाड़ने वालों को ही अधमरा कर गई।दरअसल पूरी सय्यद कौम में एक दरवेश की हैसियत से मशहूर थे उनके परिवारवाले। इसलिए उनके सुपुत्र के कारनामों के चर्चे भी आग की तरह फैल गए। यही वज़ह थी कि कभी तो कोई सगा-संबंधी बुल्लेशाह को समझाने-बुझाने आश्रम में चले आता। कभी विद्वानों की मंडली उससे शास्त्रार्थ करने पहुँच जाती।तो कभी मज़हबी व कौमी भाईयों का वहाँ ताता लगा रहता।आखिरकार बुल्लेशाह की सहनशक्ति जबाब दे गई। मन तंग आकर बिफ़र उठा। एक दिन बेहद खिन्न और परेशान होकर बुल्लेशाह ने अपने गुरुदेव से अर्ज किया कि,” साँई! मेरी पिछली जिंदगी से जुड़ी यह जमा हमको यहाँ जीने नहीं देगी। इनकी आँखों पर तो उँची जाति, लियाकतो और झूठी शानो-शौकत की पट्टी बँधी है। ये ना आपकी रूहानियत को समझ सकते है और न ही मेरे पाक इरादे को। साँई, बेहतर यही होगा कि हम यह बस्ती ही छोड़ दे। यहाँ से कहीं दूर-दराज़ इलाके में जाकर बसर करें। जहाँ न कोई हमारी जात से वाकिफ़ हो,ना हमारी कौम से और ना हमसे।आप मेरे मुर्शीद अर्थात गुरु और बंदा आपका मुरीद अर्थात शिष्य, बस सबको फ़कत यही पता हो।”*चल बुल्ल्या! चल उत्थे चलिए,* *जित्थे होण अक्ल दे अन्ने!**न कोई साडी जात पहचाने,* *न कोई सानु मन्ने।*परन्तु गुरु इनायत शाह तो शिष्य को इस आँधी में भी मजबूत बनाना चाहते थे। वे जानते थे कि, ख़िलाफ़त का यह दौर बुल्लेशाह का निर्माण ही करेगी। इसलिए उन्होंने गंभीर होकर बुल्लेशाह को कहा कि,”नहीं बुल्ले, इस आश्रम को छोड़ना वाज़िब नहीं। ख़ुदा की रजा में राजी रहो। उसकी हर बक्षीस में रूहानी राज़ होता है।बातों-2 में गुरु ने बुल्लेशाह पर एक रूहानी दृष्टि डाल दी। बुल्लेशाह वह रूहानी राज तो जान न सका। मगर उस पल उसने अपने गुरु की नजरों से एक नूरानी जाम जरूर पी लिया। ऐसा जाम जिसे पीकर उसकी डिगी रूह मस्त हो उठी और वह कह उठा,*अगर तलब है उन्हें बिजलियाँ गिराने की -2**तो हमें भी ज़िद है यहीं आशियाँ बनाने की।*दो प्रेमी शायर हो गये, उन दोनों ने एक ही बात कही। लेकिन अपने-2 तरीकों से कही। पहले शायर ने कहा कि, *”शबे बिसाल है अर्थात मिलन है, बुझा दो इन चिरागों को।ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलनेवालों का?”*और दूसरे प्रेमी ने यही बात कही कि, *”शबे बिसाल हैं अर्थात मिलन है, रोशन करो इन चिरागों को।ख़ुशी की बज़्म है जलने दो जलनेवालों को।”*पहले तो बुल्लेशाह का नज़रिया भी पहले प्रेमी की भाँति था कि *ख़ुशी का बज़्म है, क्या काम जलनेवालों का?* उसने इस भभकती दुनिया से दूर भाग जाना चाहा, परन्तु गुरु के चन्द लफ़्जों ने उसकी सोच पलटकर रख दी।उनकी नूरानी आँखों की अनकही बोली ने उसे बहुत कुछ समझा दिया। उसे दूसरे प्रेमी का नज़रिया दे दिया । यही कि अगर संसार की खुशामत छोड़कर करतार से नाता जोड़ेगा तो खुशामत पसन्द बौखलायेंगे ही। *ख़ुशी की बज़्म है, जलने दो जलनेवालों को!*ये दुनियावी चिराग दहकेंगे ही, दखलबाजी तो होगी ही, सो होने दो। जो जलते है उन्हें जलने दे। तुम ख़ुदापरस्ती की बज़्म में खो जाओ। इन खुदपरस्तो के अँगारों, चिनगारियों को अनदेखा कर के जलवा-ए नूर की चमकार आँखों मे बसा लो। बुल्लेशाह को गुरु की आज्ञा व दृष्टि से बहुत बल मिला। बुल्लेशाह घोषणा कर उठा कि,*हम वो पत्ते नहीं जो शाख से टूट जाया करते हैं।- 2**आँधियों से कहो कि,औकात में रहे!*हम क्यों अपने आश्रम, अपने वतन की जमीं को छोड़कर कहीं जाएं? हम क्यों पीठ दिखाकर रुख़सत हो? क्यों ना पुरजोर होती इन खिलाफ़ी आँधियों को ही औक़ात में रहना सीखा दिया जाए? एक पुख़्ता सबक पढ़ा दिया जाए?बुल्लेशाह का मन इन्कलाबी नारे लगा उठा। दिलोदिमाग पर एक जुनून सवार हो गया। अब जरूर कुछ ऐसा करूँगा कि ये रिश्तेदार मेरा पीछा छोड़ दे। ये उँची नाकवाले सय्यदी मुझे देखने से कतराये, मुझसे नफ़रत करे,ताकि मैं इनके लिए जीते-जी ही मर जाऊँ। ये मुझे बेअदब, वाहयात, कुछ भी कहे। बेशक़ पागल करार दे-दें, परन्तु आज़ादी बक्षे। मेरी जिन्दगी में अब और दखल न दे।मुझे अपने गुरु के चरणों में शान्तिपूर्वक रहने दे।एक ऐसे ही मस्त फ़क़ीर हुए स्वामी रामतीर्थ। जब उन्होंने फ़कीरी की राह चुनी तो उनके परिवारवालों ने भी विद्रोह किया।उन्हें वापस लीवा लाने के लिए बहुत संदेश भेजे। कहते है, जबाब ने रामतीर्थ ने उन्हें एक करारा ख़त लिखा। खरे शब्दों में झिड़का। उन्होंने लिखा कि, “क्या कभी किसी ने एक मरे हुए को लौटने का संदेश भेजा है? मैं मर चुका हूँ! इस मायामय दुनिया और इसके बाशिन्दों के लिए । इसलिए एक मुर्दे को वापिस बुलाने की बेकार कोशिश ना करो। हाँ!अगर वाक़ई मुझसे मिलने की इच्छा हो, तो मेरे जैसे बन जाओ। एक मृतक से मिलना है, तो खुद मर जाओ। तभी मिलन संभव है।”हो सकता है कि स्वामीजी का यह खत अपने समय में कारगर रहा हो। लेकिन बुल्लेशाह जानता था कि उसके कट्टर और अख्खड़ भाई-बंधुओं के लिए ऐसे ख़त बेअसर है, महज़ कागज़ के टुकड़े ही सिद्ध होंगे। उनके लिए तो कोई कड़ा कदम ही उठाना होगा, कुछ धमाकेदार करना पड़ेगा, परन्तु क्या……?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *