आज बुल्लेशाह सूर्य की पहली किरणों के साथ ही हवेली से निकल पड़े गुरु की तलाश में। उपर सूर्य तप रहा था और यहाँ बुल्लेशाह भी अतप्त न रहा। एक तो सीने की दाह और उपर से सूर्य का आक्रोश। भूख-प्यास से व्याकूल बुल्लेशाह एक इमली के पेड़ के नीचे बैठ गए। तन की तपन शांत तो हुई परन्तु मन, उसकी व्याकुलता ज्यों की त्यों रही। बुझती भी कैसे? वह तो इनायत शाह की नंदन छत्रछाया की खोज में था। लेकिन वे मिलेंगे कहाँ? बुल्लेशाह के सामने यही सबसे बड़ा सवाल खड़ा था।लाहौर कोई छोटा शहर तो ना था।कई मीलों तक पसरा हुआ था।अपार जनसमुदाय था वहाँ और फिर शाह इनायत का कोई अता-पता भी तो नहीं था। ऐसे में किधर जाएँ? क्या करें? कैसे ढूँढे उन्हें? *कैसे की पतझड़ में बसन्त की तलाश करूँ? इस अन्धी सुरंग की अंत की तलाश करूँ?* *जिधर देखूँ दीद रहे हैं बाणे ही बाणे,**इन बाणों के भीतर कैसे शाह की तलाश करूँ?* हे परवरदिगार! रहम कर! मेरे मौला, अपने बंदे पर करम कर! दुनिया तो तेरे आगे ऐशोआराम के लिए दामन फैलाती हैं, तू उन्हें वह भी बक्ष देता है। मुँह माँगी मुरादे देता है। मेंरे नयन कटोरे तो सिर्फ तेरे दीदार के प्यासे हैं। रूह तेरे लिए तड़प रही है। क्या मेरी यह दिली फ़रियाद पूरी नहीं होगी?कदम यूँही दरबदर भटकते रहेंगे? डगर-2 की ख़ाक छानते रहेंगे? क्या कभी इनके तले मन्ज़िल नहीं बिछेगी? मेरे मालिक! अब तो मेहरबानी कर! सद्गुरु कोई राह दिखा दे! मैं जानता हूँ, तेरे निर्गुण रूप का दीद करानेवाला तेरा ही कोई सगुण रूप होगा। उसके क़दमों की धूलि चूमने को मेरे ज़िगर में हजारों जिहदे तड़प रहे हैं। *अब ए हक़ीक़ते मुमतजर* *नजर आ लिबासे मज़ाज में,**कि हजारों सिजदे तड़प रहे हैं, मेरी जबिनी निज़ाज में।* बुल्लेशाह रोके हुए कदम फिर से गतिमान कर दिए। दीवानों की मानिन्द वह इनायत की राह टोहने लगा। खोज का यह सिलसिला एक या दो दिन नहीं कई दिनों तक चलते रहा। कड़ाके की धूप में बुल्लेशाह इधर-उधर सद्गुरु की खोज करते रहे। “भाई! इनायत शाह का आश्रम कहाँ है ,जानते हो?””नहीं।””इनायत शाह का नाम सुना है?””नहीं।”पूछते-2 बुल्लेशाह को कई दिन बीत गए। लेकिन आखिरकार राह मिल ही गई। प्यासे को रूहानी कुएँ का पता लग ही गया। बुल्लेशाह पूछते-2 शाह इनायत की पाक दहलीज़ तक पहुँच गए। वह नहीं जानता था कि सामने बिछी यह दहलीज़ उसके लिए नवजीवन का आह्वाहन है। इससे गुज़रकर उसका जीवन आमूल बदल जायेगा। इनायत शाह का आश्रम उसके जीवनभर का आशियाना हो जाएगा। वह सोच भी नहीं सकता था कि आज जिस इनायत शाह को वह ईश्वरप्राप्ति का माध्यम बनाने आया है आनेवाले समय में वे ही सद्गुरु उसकी मंज़िल बन जायेंगे। साधन ही साध्य हो जायेगा। वह इनायत की क़दमों में बसेगा और इनायत उसकी श्वासों में। इनायत के रूप में उसे केवल मुर्शिद नहीं मिलेंगे, सर्वस्व मिलेगा। मुँदी आँखो को, निराकार अपलक आँखों को साकार, प्राणों को आधार बिन्दू, मस्तक को पाक क़दमों का ठौर, रगो में दौड़ते लहू के कतरे-2 को एक लक्ष्य, उसका कोई अपना वजूद नहीं रहेगा। वह सिर्फ एक शिष्य होगा। उसकी शिष्यत्व की यही पहचान होगी। बुल्लेशाह दहलीज पार कर आश्रम में प्रवेश कर गया। आश्रम लगभग 1200 गज का फैला हुआ था। बीचोंबीच एक छाँवदार बरगद का वृक्ष खड़ा था। उसके तने के चारों ओर एक पक्का चबूतरा बना था। दाई तरफ एक से एक सटी हुई 10-11 कुटिरें थी। आखिरी कुटीर से 30 का कोन बनाता हुआ एक कुंड था पानी से लबालब भरा हुआ।बरगद से बाँई ओर कुछ गज में बड़े सलीक़े से बाग़वानी की गई थी। अलग-2 तरह के वृक्ष झूम रहे थे। नीचे क्यारियों में तरकारिओ और साग-पात की पौध लगी थी।बुल्लेशाह पहले पहल कुटिर की ओर बढ़ा। ठिठके कदमों से उसका दिल जोर-2 से धड़क रहा था। इतना कि वह अपनी धड़कनों को साफ सुन सकता था। आज सद्गुरु से मिलन होगा। यह खयाल लिए बुल्लेशाह आगे बढ़ा। उसने एक-2 कुटिर में झाँककर देखा परन्तु कहीं कोई न मिला। नितान्त नीरवता, और सन्नाटा था वहाँ। एक बार फिर निराशा ने उसे आ घेरा। वह भारी मन से निकास द्वार की ओर मुड़ गया। लेकिन तभी एक युवक ने अन्दर प्रवेश किया। बुल्लेशाह ने उससे झट पूछा, “हजरत इनायत कहाँ मिलेंगे?”युवक ने बगीचे की ओर संकेत कर दिया। बुल्लेशाह ने ग़ौर से इंगित दिशा में देखा। पौधों के झुंड बीच एक मानवीय आकृति हिलती-डुलती दिखाई दी। वह बेसब्र कदमों से उस ओर बढ़ा।पास पहुँचने पर पाया कि, वे प्याज़ की पनिरी बो रहे थे। सफेद बाल, कमजोर शरीर, त्वचा पर झुर्रियाँ, अंग-2 पर वृद्धावस्था के निशान! उन्हें देखते ही बुल्लेशाह के अन्दर संशयों का तूफ़ान खड़ा हो गया। उसने अपने मानस पटल पर गुरु का जो दिव्य चित्र खिंचा था, इनायत उससे बिल्कुल अलग थे।उसने तो सोचा था कि ,”खुदाए नूर को दिखानेवाला ख़ुद भी नूरानी व्यक्तित्व होगा! परन्तु यह क्या? अधेड़ उम्र, कीचड़ से लथपथ काया, पसीने से तरबतर बदन। “बुल्लेशाह के भीतर अहम की नागफ़नी नाचने लगी। देखते ही देखते उसने अनेकों सवाल फुफकार डाले। इस दीन-हीन में क्या रूहानियत होगी? प्याज़ की पनिरी बोनेवाला यह वृद्ध क्या मुझे नूरे ईलाही दिखायेगा? क्या इस वृद्ध के पास शास्त्रों का ज्ञान होगा?”वाह रे इन्सानी फ़ितरत! गुरुसत्ता को भी बाहरी आवरण के आधार पर परखने चली है ! नहीं जानती कि,गुरु तो ईश्वरत्व का विराट पुंज होते हैं। देहातीत सत्ता है। किसी वेष-भेष का गुलाम नहीं। किसी विशेष कर्म में बँधा हुआ नहीं। ऐसा नहीं कि उसका रूप मनभावन ही हो। वह उँची जाति और संपन्न कुल से संबंध रखता हो। उसकी पहचान तो उनकी ज्ञान निष्ठा होती है। उनकी नूरानी दृष्टी होती है। फिर भी मनुष्य उन्हें कैसे पहचाने?बुल्लेशाह एक आलिम फाजिल, शास्त्रवेत्ता ,महान ग्रंथक्य, रिद्धि-सिद्धियों का स्वामी इस सूक्ष्म सूत्र से अंजान था। इसलिए फटे हाली के बाने के अन्दर छिपे एक शहनशाह को पहचान नहीं पाया। अहम में सराबोर होकर लगा अपनी करामाती शक्तियों का प्रदर्शन करने। सामने एक आम का पेड़ था। बुल्लेशाह ने बिस्मिल्लाह कहा और आमों से लदी टहनियों पर एक नज़र डाली। दृष्टि पड़ने की देर थी कि 3-4 आम डालियों का हाथ छोड़कर धड़धड़ उसकी झोली में आ गिरे। शाह इनायत तुरन्त मूड़े और अल्हड़ शेख अन्दाजी से बोले, *सुन तू मर्दा रहिया, अम्ब चुराया तुद असाडा।* *देदे से सानो भाईयाँ।* “ओ भाई! तूने हमारे आम क्यों चुराये? इसी पल वापस कर दे।” बुल्लेशाह भी तुनककर बोले, “न में तुम्हारे पेड़ों पर चढ़ा और न ही आमों पर कंकड-पत्थर मारे। यह तो हवा के एक मस्त झोंके की शरारत है। नाहक़ मुझपर क्यों बिगड़ते हो?””वाह! चोरी भी और चतुराई भी!”इनायत बोले , *बिस्मिल्ला पड़ अम्ब उतारियाँ कित्ती है तू चोरी* मैं जानता हूँ कि, बिस्मिल्लाह कहकर तूने ही मेरे आमों की चोरी की है। बात करते-2 शाह इनायत बुल्लेशाह को भाँप रहे थे। बातों ही बातों में बुल्लेशाह पर अपनी नूरानी दृष्टी डाल दी। अपनी नजरें पाक से ऐसे तीखे बाण छोड़े जो सीधे बुल्ले के अंतःकरण में जा लगे। क्या कशिश थी इन निगाहों में? सद्गुरु की निगाहों में क्या जादू होता है यह एक शिष्य ही जानता है। यह वही जादूई दृष्टि थी जो जब निजामुद्दीन औलिया ने अमीर ख़ुसरो पर घुमाई थी। तो वह सदा-2 के लिए उनका मुरीद हो गया था। मस्ती में छका हुआ पगले की नाई थिरक-2 कर गा उठा था- *छाप-तिलक सब छिनी रे मोसे नैना मिलाइके*यह वही मोहिनी नज़र थी। जो जब कान्हा ने गोपीयों पर डाली थी। तो वे भी सुध-बुध खोकर घायल विरहिणी बन उठी थी।आज बुल्लेशाह भी ठगा सा रह गया। शाह इनायत की एक ही नज़र ने उसे कायल कर दिया। वह बेमोल बिकनेपर मजबूर हो गया। उसका रोम-2 पुलककर कह उठा, बुल्लेशाह भी जन लया, है बरकत ईह विच होरी ये कोई साधारण बाबा नहीं पूर्ण पीर हैं। इसके नयन प्याले ,ओह! कितने आला है! ईलाही नूर के झरोखे बुल्लेशाह के अहम पर करारी चोट लगी। इठलाती नागफ़नी झुक गई। गर्दन की ऐठन ढिली पड़ गई। सिर भी तना न रह सका और वह उसी पल सद्गुरु के चरणों मे लोट गया। उन्हीे कीचड़ से सने कदमो में दण्डवत प्रणाम करते हुए आत्मा की गहनुमत गहराई से बोला, “महाराज मैं बुल्लेशाह हूँ। रब को पाने आया हूँ। मेरी रूह रो-रोकर थक चुकी है। अब इस ग़रीब को यह दात बक्ष दो। मेरे मौला, नजरें इनायत कर दो!”इनायत शाह बिना कुछ बोले मूड़े और क्यारियों से बाहर निकल आये। बरगद की इर्दगिर्द बनी मुँड़ेर पर जा बैठे। बुल्लेशाह भी सम्मोहित सा हुआ, उनके पीछे-2 चला आया। उनके चरणो में नीचे कंकड़ीली ज़मीन पर ही बैठ गया। इसपल उसे न तो अपने सय्यद होने का मान था, न रिद्धि-सिद्धियों का ध्यान था। न ही विद्वत शास्त्रवेत्ता होने का भान था। भान था तो बस इस बात का कि वह बेहद प्यासा है और सामने सद्गुरु के रूप में अमृत का सोता है। वह चातक है और सामने अथाह जल बिन्दुए लिये स्वाती नक्षत्र चमक रहा है। रूह ने दावे से कहा कि, उसकी जन्म-जन्मांतरों पिहू-2 बस इन्हीं चरणों में थमेगी। बुल्लेशाह गुरु के सामने बैठ प्रार्थना करने लगे कि,अवगुण वेख न भूल मियाँ राँझा,याद करि उस कारेनु ,दिल लोचे तख्त हजारेनु”मेरे औलिया ! मेरे हिमाक़तों और अवगुणों को बिसार दो, याद करो अपने उस अज़्ल के कार्य अर्थात आदिकाल के वायदे को। उसे निभा दो । मेरी रूह मुद्दत से परवरदिगार के लिए तड़प रही है।अब उसका नूरानी दीद करा दो।”यहां बुल्लेशाह किस वायदे की ओर संकेत कर रहा है ? सूफ़ी संत, सूफ़ी मत के अनुसार जब ख़ुदा ने सृष्टि की रचना की तो जीवात्मा उससे अलग होकर धरा पर आना नहीं चाहती थी। ऐसे में सृष्टिकर्ता ने उनसे वादा किया तुम चलो, मैं भी तुम्हारे पीछे-2 साकार रूप धारण कर ज़मीन पर उतरूँगा। पीर, औलिया, मुर्शिद, सद्गुरु बनकर तुम्हें वापस लीवा ले आऊँगा। अपने में पुनः समा लूँगा। इसी कलाम की आज बुल्लेशाह हजरत इनायत को याद करा रहे हैं। ढेरों युक्तियाँ देकर निहोर कर रहा है और हर निहोर, हर तर्क ,हर युक्ती में फ़क़त एक ही पिर है, “साँई मैं रबनु पावना है। मुझे उससे मिला दे ।”अबतक इनायत शाह मौन थे। बुल्लेशाह बोल रहा था। वे सुन रहे थे। वैसे भी वह कौनसी घड़ी या पल था जब उन्होंने उसकी अनकही पिर को नहीं सुना था।उसकी निःशब्द वेदना को नहीं समझा था। वे तो उसकी शब्दहीन गुहार से तबतक तब भी परिचित थे। जब वह उन्हें जानता तक नहीं था। उन्होंने उसकी हर सिसकियों भरी धड़कनों को गिना था। वे उसकी ह्रदय में बैठी ईश्वर जिज्ञासा की पूरी ख़बर रखते थे।आज फ़र्क बस इतना था कि, बुल्लेशाह अपनी अन्दरूनी दर्द को शब्दों का रूप देकर उनके सामने रख रहा था। जब बुल्लेशाह कह चुका, तब शाह इनायत मुस्कुराये । क्यारिओ की तरफ़ मुँह किया और बोले ,”बुल्ल्या, रबदा की पाना? ऐधरो पुटना तै उधर लाना?”अर्थात ,”बुल्लेशाह! रबका भी क्या पाना? इधर से उखाड़ कर उधर रोपना। “बाग़वानी की शैली में एक सादी-सी पंक्ति थी यह परन्तु एक गहरे सूत्र को सँजोये हुए रूहानियत के सार को लिए हुए । इसके जरिए इनायत ने रहस्योद्घाटन कर दिया कि, “बुल्ले! अगर ईश्वर को पाना है तो अपने मन को बाहर से समेटकर अन्दर रोप दे। अन्तर्मुखी हो जा।मायारूप इस बाहरी संसार में ईश्वर को चाहे तो कहीं भी और किसी भी तरह ढूँढ ले, तेरी खोज फल नहीं देगी। भीतर जा अन्दर झाँक ! नुराहे ईलाही वहीं मिलेगा!”शाह इनायत ने जब यह रूहानी उपदेश दिया बुल्लेशाह तुरन्त उसके मायने को समझ गया। उनके बारीक़ इशारे और मार्गदर्शन को उसीपल भाँप गया।ऐसा भी नहीं था कि यह आध्यात्मिक सूत्र उसके लिए नया था। वह शास्त्र अध्ययन से भलीभाँति जानता था कि खुदा मिलेगा तो भीतर से ही। परन्तु भीतर जाएँ कैसे? अन्तर्मुखी हुये किस तरह ? यही तो असली सवाल था?—————————————-आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जाएगा….